1857 की बक़रईद : बहादुर शाह ने क़ुरबानी पर लगा दी थी क़ानूनी रोक

 

प्रोफ़ेसर कपिल कुमार

सदियों से भारत की ये रीत बनी रही है कि हम भारतीय आपस में अपने घर के अंदर कितना ही लड़ें, चीख़ें या चिल्लाएं लेकिन जब कोई बाहरी आक्रमणकारी हमारी सभ्यता और पावन भूमि की ओर गंदी नज़र उठाता है तो हम एक साथ कंधे से कंधा मिला कर खड़े हो जाते हैं।

1857 की गर्मियों में चंद ग़द्दारों को छोड़ कर पूरा भारत एक साथ अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ खड़ा हो गया था। 10 मई को मेरठ में अंग्रेज़ फ़ौज के भारतीय सिपाहियों ने विद्रोह का परचम बुलंद करते हुए दिल्ली की ओर कूच कर दिया।

11 मई को मुग़ल शासक बहादुर शाह ज़फर को भारत का शासक घोषित कर वापिस उस राजगद्दी पर बैठा दिया गया जो 1842 में अंग्रेज़ों ने एक तहख़ाने में बंद करा दी थी। पेशावर से चिटगांव, आरा से सतारा, झाँसी से हैदराबाद भारत में हर किसी ने ज़फर के नाम का झंडा उठा लिया था। तांतिया टोपे, बेग़म हज़रत महल, रानी लक्ष्मीबाई, कुंवर सिंह, अज़ीमुल्लाह, उन अनगिनत लोगों में से वो कुछ नाम है जिन्होंने भारत को अंग्रेज़ों से मुक्त कराने के लिए जान की बाज़ी लगा दी थी।

अंग्रेज़ों के पास 1757 के प्लासी युद्ध के समय से ही केवल दो हथियार थे : एक तो फूट डालने की नीति दूसरा लालची ग़द्दार भारतीयों की मदद लेना। 1857 की कहानी में भी ऐसा ही कुछ था। जहां पूरा दिल्ली अमीर, ग़रीब, मुस्लिम, हिन्दू, सिख, किसान, सभी अंग्रेज़ों से लड़ रहे थे वहीं कुछ ग़द्दार पैसे के लिए अपने ही लोगों की जान और देश की आज़ादी का सौदा कर चुके थे।

ऐसा ही एक ग़द्दार गौरीशंकर था। उसने दिल्ली के अंदर से अंग्रेज़ फ़ौज जो कि उस समय रिज पर कई दिन से घात लगाए बैठी थी को ये पत्र लिखा कि 2 अगस्त 1857 का दिन बक़रईद (ईद उल अज़हा) का दिन है। इस दिन हम दिल्ली के अंदर कुछ लोगों से गाय की क़ुरबानी कराएंगे। ज़ाहिर सी बात है कि शहर के हिंदू इसका विरोध करेंगे जिससे दिल्ली में दोनों धर्मावलम्बी आपस में लड़ पड़ेंगे। बस उसी समय अंग्रेज़ फ़ौज दिल्ली पर धावा बोल कर शहर पर क़ब्ज़ा कर सकती है।

रणनीति ज़बरदस्त थी। लेकिन रिज पर बैठे अंग्रेज़ सिपाही सुबह से इंतज़ार करते रहे लेकिन ऐसा कुछ न हुआ। दोपहर में उल्टा ये हुआ कि दिल्ली से भारतियों की एक टुकड़ी ने इस अंग्रेज़ फ़ौज पर हमला किया। अंग्रेज़ों को अपने इस प्लान के नाकामयाब होने का कारण बाद में तब पता चला जब गौरीशंकर ने अगले पत्र में ये बताया कि बादशाह ज़फ़र ने ये फ़रमान जारी किया था कि जितनी गाय दिल्ली शहर में हैं उनको कोतवाली में बंधवा दिया जाये ताकि कोई असामाजिक तत्व ग़लती से भी गौ-हत्या न करे। कोतवाल ने बताया कि ये मुमकिन नहीं है क्योंकि कोतवाली में सभी गायों को बांधने लायक़ प्रयाप्त स्थान नहीं है। तब एक और फ़रमान जारी किया गया जिसमें कहा गया कि इस बक़रईद पर किसी भी जानवर की क़ुरबानी नहीं की जाएगी। तो 2 अगस्त को दिल्ली शहर में किसी भी जानवर की क़ुरबानी नहीं दी गयी। इस मौक़े पर बहादुर शाह ज़फ़र ने एक शेर भी कहा था कि :

लश्कर : अहद-ए-इलाही आज सारा क़त्ल हो
गोरखा गोरे से ता गुज्जर अंसारी क़त्ल हो
आज का दिन ईद-ए-क़ुरबान का जब ही जानेंगे हम
ऐ ज़फ़र तहे तेग़ जब क़ातिल तुम्हारा क़त्ल हो

बहादुर शाह ज़फ़र के इस शेर के अनुसार ईद पर जानवर की नहीं दुश्मन फ़ौज की क़ुरबानी ही असली ख़ुशी थी।

बहादुर शाह ज़फ़र का फ़रमान

अंग्रेज़ अफसर फ़ॉरेस्ट ने इस ईद के बारे में लिखा है कि “जहां एक ओर पूरा दिन मुसलमान जामा मस्जिद में अंग्रेज़ों को मार भगाने के नारे लगाते रहे वहीं दूसरी ओर उसके बाहर विष्णु भक्त ब्राह्मण भी अंग्रेज़ फ़ौज के ख़िलाफ़ दिल्ली की जनता को जोश दिला रहे थे ।”

कीथ यंग जो कि एक और अंग्रेज़ अफ़सर था और उस दिन रिज पर तैनात था उसके अनुसार जिन हिन्दू और मुसलमानों के आपस में लड़ने की आशा वे कर रहे थे उन्होंने मिल कर अंग्रेज़ फ़ौज पर ही धावा बोल दिया।

1857 की ये ईद हमें याद दिलाती है कि ये देश और इसके वासी अपनी आज़ादी को धार्मिक अनुष्ठानों से अधिक महत्ता देते आये हैं और देते रहेंगे।

(प्रोफ़ेसर कपिल कुमार एक जाने माने इतिहासकार हैं जिन्होंने लाल क़िला व् अन्य स्थानों पर महत्वपूर्ण संग्रहालयों का निर्माण कराया है। इनमें से एक 1857 के इतिहास पर संग्रहालय भी है जिसे लाल क़िला में देखा जा सकता है। वर्तमान में प्रोफ़ेसर इग्नू से संबंधित भी हैं।)