अगर मै आपसे कहुं के आजके दौर में रमज़ान के पुरसुकून महीने में बिना किसी जंग के तोप चल रहे हैं, तो शायद आप हैरत में पड़ जाएं। लेकिन ये सच है। दुनिया के कई हिस्सों में हर रोज़ मग़रिब के समय तोप चलते हैं, और तोप के गूंज की आवाज़ सुन कर ही रोज़ेदार अपना रोज़ा खोलते हैं, और अफ़्तार करते हैं।
भारत के राज्य मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल से 40 मील दूर रायसेन हो, या फिर राजिस्थान का अजमेर, वहां का हर बाशिंदा तोप को रमज़ान माह में चलते हुए देखता है। रायसेन में यह अनूठी परंपरा 18वीं सदी में भोपाल रियासत की बेगम ने शुरू करवाई थी, वहीं अजमेर में ये परंपरा मुग़लो के दौर से है, जो अब तक क़ायम है। अजमेर के इलावा राजिस्थान के और भी कई इलाक़ो में भी अफ़्तार के समय तोप चलाने का परंपरा है।
भारत में ये कुछ चुनिंदा जगह हैं जहां, तोप की गूंज का इंतज़ार रोज़ेदार करते हैं. सदियों बाद भी यह परंपरा क़ायम रहना इन इलाक़ों के लिए फ़ख्र की बात है, क्युंके लोग अलग अलग बहना बना कर अपने पुरानी परंपरा से छुटकारा पा ले रहे हैं। वैसे विभिन्न मीडिया रिपोर्ट से पता चला रहा है के इस साल करोना संकट की वजह कर रायसेन में पिछले 200 साल से चली आ रही परम्परा टूट गई।
रायसेन में होता कुछ यूँ था के सुबह सेहरी के समय तोप की गूँज शहर के साथ-साथ आसापास के 30 किमी तक के दायरे के क़रीब 30 गांवों तक जाती थी; शाम को इफ़्तारी में गांवों तक इसकी गूंज शोर-शराबे और ट्रैफ़िक के कारण कुछ कम हो जाती थी।
रायसेन मुस्लिम त्योहार कमिटी ने तोप चलाने के लिए ज़िला प्रशासन से अनुमति मांगी थी, पर इस बार लॉकडाउन का पालन करते हुए ज़िला प्रशासन ने तोप चलाने की अनुमति नहीं दी।
भारत में इस तरह के रिवाज अधिकतर उन शहरों में है, जो कभी छोटी छोटी रियासत का हिस्सा था, इसकी शुरुआत दिल्ली से ही होती है, मुग़ल दौर में रमज़ान से 2 दिन पहले घोड़सवार चारो तरफ़ भेज दिये जाते थे, उनका काम चाँद देखना होता था, अगर चाँद बादल में छुपा होता, या घोड़सवार उसे देखने में नाकामयाब होते तो, तब ऊंचाई पर रहने वाले किसी सम्मानित व्यक्ति या क़ाज़ी से चाँद की पुष्टि करवाया जाता, और फिर बादशाह के सामने पेश किया जाता, बादशाह उल्मा से मशवरा करते, और फिर रमज़ान का ऐलान तोप चला कर दिया जाता। ग्यारह बार तोप के गोले दाग़े जाते, कई बार आतिशबाज़ी भी होती, और सड़क और गलियों में ढ़ोल और नगाड़े के साथ ऐलान करवाया जाता। ठीक यही काम रमज़ान के आख़िर में ईद के चाँद के समय भी होता। भारत में ये रेवाज धीरे धीरे हर रियासत में पहुंची, चाहे वो टोंक हो, जूनागढ़ हो, भोपाल, हैदराबाद, लखनऊ ही क्यूँ न हो! धीरे धीरे इस परम्परा में काफ़ी परिवर्तन भी आ गया, जैसे भोपाल में तोप की जगह पटाख़े ने ले ली है, और कई जगह साइरन बजता है, पर दुनिया में कई ऐसे देश हैं जहां सरकारी आदेश पर तोप चला कर अफ़्तार करने की दावत दी जाती है।
दुनिया के कई हिस्सों में चांद दिखने पर क़िले से या पहाड़ियों पर से कई बार तोप चला कर रमज़ान का आग़ाज़ किया जाता था, फिर 30 दिनों तक शाम को इफ़्तार के समय तोप चलाने का सिलसिला बना रहता था।
ये रेवाज कब शुरु हुआ, इसको ले कर कई मत है, कुछ इसे उस्मानी सल्तनत से जोड़ते हैं, तो कुछ ममलूक से, इसे ले कर कई तरह की कहानी भी मशहूर है, लेकिन अधिकतर मिस्र के ही इर्द गिर्द है। एक बार एक ममलूक सुल्तान क़ाहिरा में अपने एक नये तोप का टेस्ट रमज़ान के समय मग़रिब के वक़्त किया, लोगो ने तोप की आवाज़ सुन कर रोज़ा खोल लिया, जब ये बात सुल्तान को पता चली तो उन्होंने रोज़ मग़रिब के समय तोप चलाने का हुक्म दिया।
कुछ ऐसी ही कहानी 19वीं सदी के शुरुआत में मिस्र के शासक रहे मुहम्मद अली के साथ भी है, उन्होने एक जर्मन निर्मित तोप को रमज़ान के समय मग़रिब के वक़्त चलवाया, जिसे लोगों अफ़्तार करने का इशारा समझा।
19वीं सदी के आख़िर में मिस्त्र के वली रहे ख़ीदाईव इस्माइल के साथ भी यही क़िस्सा है के उनके सिपाही तोप मग़रिब के समय चला रहे थे, इसकी आवाज़ इस्माइल की बेटी फ़ातिमा ने सुना, तब उसने अपने पिता से इसे हर रोज़ रमज़ान में मग़रिब के समय तोप चलाने की दरख्वास्त की, जिसे मान लिया गया, बाद के दिनों में रमज़ान के समय चलने वाले तोप को फ़ातिमा के नाम से जाना गया। आज भी क़ाहिरा के सलाहउद्दीन क़िले से मग़रिब के समय तोप चलाई जाती है, जिसके बाद अफ़्तार किया जाता है। रमज़ान में चलने वाले इन तोप को अरबी ज़ुबान में मिदफ़ा अल इफ़्तार भी कहते हैं।
19वीं सदी के शुरुआत में शारजा के सुल्तान बिन सक़र अल क़ासमी ने अपने दौर ए हुकूमत में वहां रमज़ान के समय तोप चलाने परम्परा की शुरुआत की, आज भी युऐई के विभिन्न शहरों में रमज़ान के तोप चलाया जाता है, चाहे वो दुबई हो या आबूधाबी। कभी उस्मानी सल्तनत का हिस्सा रहे बलकान के अल्बानिया, बोस्निया और हर्जे़गोविनियाँ सहीत कई इलाक़ों में इसी तरह तोप दाग़कर रोजे़दारों को रोज़ा खोलने की इत्तेला दी जाती थी। जब इन इलाक़ो पर वामपंथीयों का शासन आ गया तो इसे बंद कर दिया गया, पर 1997 के बाद फिर से सेराजेवो में तोप दाग़कर रोजे़दारों को रोज़ा खोलने की इत्तेला दी जाने लगी।
उस्मानी सल्तनत की राजधानी और मौजूदा तुर्की के इतिहासिक शहर क़ुस्तुन्तुनिया में भी आप रमज़ान के दौरना तोप चलते देख सकते हैं। ये सच है समय समय के साथ तोप के शकल में भी परिवर्तन आ गया है। पर जहां तक बात मुसलमानो के तीन पवित्र शहर मक्का, मदीना और अल-क़ूद्स (येरुशलम) का है, यहाँ आज भी तोप के गोले फटने की आवाज़ सुन कर ही रोज़ेदार अफ़्तार करते हैं। फ़लस्तीन और इस्राईल झगड़े के बीच भी पवित्र शहर अल-क़ूद्स (येरुशलम) में दो इस्राईली सुरक्षाकर्मी के निगरानी में आज भी तोपों की गूंज से रोज़ा खोला और रखा जाता है। मदीना में साला पहाड़ी और क़ुबा क़िले से तोप की आवाज़ ज़माने से रोज़ेदार सुनते हुवे आ रहे हैं, मक्का शहर में आज मक्का पुलिस अपनी निगरानी में पहाड़ों की ऊचाई से तोप के गोले छोड़ते हैं। ‘The ruling of Mecca in the era of the Ottomans’ के लेखक Mohamad Ouedi के अनुसार उस्मानी दौर में रोज़ेदार मक्का में तोप की आवाज़ सुन कर ही अफ़्तार करते थे, तोप को पहाड़ी की ऊंचाई पर रखा जाता था, ताके दूर तक आवाज़ जा सके। उनके अनुसार तोप चलाने की ये परम्परा उस्मानी दौर में ही शुरू हुई, क्यूंकि उनसे पहले तोप का चलन दुनिया में नहीं था। और ये अपने समय का सबसे आधुनिक अविष्कार था, क्यंकि उस समय ना तो घड़ी थी, जिससे लोगों रोज़ा खोलने का समय पता चलता, न ही वैसा कोई यंत्र था जिससे एक बार मे आवाज़ दूर तक पहुंचाई जा सके, लेकिन तोप मदद से एक साथ दोनों काम हो जाता था।
चूंके सलतनत उस्मानीया जिसे ओटोमन अम्पायर के नाम से जानते हैं, ये तीन महाद्विप में फैला था, इस लिए उसके द्वारा शुरु की गई चीज़ का असर आज भी दिखता है। आज भी उस्मानी सल्तनत का हिस्सा रहे मिस्र, साऊदी अरब, यूएई, क़ूवैत, टूनिशिया आदी देशों में तोप से गोले दाग़ कर रमज़ान के रोज़े रखने और खोलने का रेवाज है।
लेबनान की राजधानी बेरुत में तोप 19वीं सदी से ही चलते आ रहा था, पर 80 के दशक में तोप उस समय बंद हो गया, जब वहां गृहयुद्ध की शुरुआत हुई, ठीक ऐसा ही अफ़ग़ानिस्तान के साथ हुआ, 1979 में सोवियत यूनियन के हमले के बाद राजधानी कबूल के शेर दरवाज़ा पहाड़ी से आने वाली आवाज़ थम सी गई।
इसके इलावा भारतीय उपमहाद्विप में भी कई जगह इस रेवाज को ज़िन्दा रखा गया है, चाहे वो पाकिस्तान का सुदूर इलाक़ा हो या फिर बंगलादेश का ढाका। भारत के हैदराबाद में ये परम्परा कबका ख़त्म हो चुका है। कभी हैदराबाद के नौबत पहाड़ पर से तोप की गूंज शहर के लोगों को अफ़्तार और सेहरी का वक़्त बताती थी; पर एक तहज़ीब के ज़वाल के साथ बहुत सारी चीज़ें बदल गई।