कॉमरेड अबुल ओला ने जिस समय दुनिया में आँख खोला रूस में क्रांति आ चुकी थी, भारत में एक सफ़ल किसान आंदोलन चम्पारण में हो चुका था, रॉलेट एक्ट के विरुद्ध जनता में आग सुलग रहा था, ख़िलाफ़त आंदोलन अपने शुरुआती चरण में थी, भारत को आज़ाद कराने का आंदोलन हर ओर चल रहा था। इन्ही सब के बीच 7 अगस्त 1918 को अबुल ओला का जन्म अपने ननिहाल गया में हुआ था, नाना मौलाना अब्दुल ग़फ़्फ़ार एक बड़े आलिम थे, गया में एक मदरसा ‘क़ासमिया इस्लामिया’ की बुनियाद डाली थी। अबुल ओला के वालिद मौलाना ख़ैरुद्दीन पंजाब के अटक के रहने वाले थे, पढ़ने के लिए दारुल उलूम, देवबंद गए, आलिम की पढ़ाई मुकम्मल की, और मुफ़्ती बन कर निकले, शादी गया में हुई, तो वहीं बस कर अपने ससुर मौलाना अब्दुल ग़फ़्फ़ार के खोले मदरसे ‘क़ासमिया इस्लामिया’ में बच्चों को दर्स देने लगे, वापस पंजाब नहीं गए। अबुल ओला का असल नाम सय्यद ज़फ़रउद्दीन था, पर उनकी वालीदा ने नाम बदल कर अबुल ओला रख दिया।
अबुल ओला की शुरुआती तालीम नाना के खोले हुवे मदरसे में वालिद की निगरानी में हुई। उर्दू फ़ारसी ज़ुबान सीख ली और क़ुरान के कुछ पारे को कंठस्त कर लिया। ये वो दौर था जब गया शहर स्वतंत्रता संग्राम के सेनानियों का गढ़ बना हुआ था, अबुल ओला बचपन में ही सियासत में दिलचस्पी लेने लगे, उनकी आँखों के सामने गया शहर में कांग्रेस सहित कई बड़ी सियासी जामात का सालाना अधिवेशन हुआ, अपनी आँखों से लोगों के दिल में आज़ादी की छठपटाहट देखी।
बचपन से ही वालिद ने भी अपने उस्ताद शेख़ उल हिन्द मौलाना महमूद उल हसन, उनकी रेशमी रुमाल तहरीक और उनके जद्दोजहद के इलावा ख़िलाफ़त तहरीक, हिजरत तहरीक और इनसे ही टूट कर बाल्शेविक आंदोलन से प्रेरित हो कर 1920 में ताशकंद में बने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के बारे में बता रखा था, इस वजह कर अबुल ओला काफ़ी सेंसेटीव हो चुके थे। पढ़ाई में दिल नहीं लग रहा था, तेवर बाग़ियाना हो चुके थे, वालिद ने ज़िला स्कूल, गया में दाख़िला करवा दिया। स्कूल में ही रूस की क्रांति से प्रेरित हो कर बने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य हो गए। और लगातार छात्र आंदोलन में हिस्सा लिया, और कई जगह पर आंदोलन का नेतृत्व भी किया। जिस वजह कर उनको पढ़ाई के लिए मिल रहा वज़ीफ़ा बंद कर दिया गया। 1933 के मेरठ कांस्प्रेसी केस ने छात्रों पर गहरा असर छोड़ा, इसका असर गया में भी देखने को मिला, 1934 में गया के कुछ छात्रों ने मिल कर एक गुप्त समिति का गठन किया, जिसका नाम MORN रखा गया। इस शब्द के चारों अक्षर अपने अपने व्यक्तिगत रूप रूप में निहित थे। M से Moto, O से Ola, R से Rajdev और N से Nagendra की पहचान बनी। इस गुप्त संगठन की मदद से अबुल ओला ने न सिर्फ़ विभिन्न स्कूल के छात्रों से सम्पर्क स्थापित किया, बल्के गया-मुग़लसराय रेलवे कर्मचारीयों सम्पर्क स्थापित कर गुप्त जानकारी का आदानप्रदान करना शुरू किया।
पटना यूनिवर्सिटी से मेट्रिक पास किया, अंग्रेज़ी में स्नातक किया, फिर क़ानून की पढ़ाई भी पढ़ी और वकील हुवे। बाद के दिनों में अकाउंटस पर भी ऊबूर हासिल किया।
1935 में सोशिलिस्ट पार्टी के सयुंक्त मोर्चे और सोवियत रूस मे नये क्रांतिकारी समाजवादी शाखा का गठन गया ज़िला में भी हुआ, जिसे Students Association के नाम से इसकी स्थापना कर अबुल ओला को महासचिव के लिए चुना गया; तबसे उन्हें Comrade कह कर पुकारा जाने लगा, जिसके बाद वो कॉमरेड अबुल ओला के नाम से पुकारे जाने लगे। शोषण के विरुद्ध आवाज़ बुलंद करने के लिए कॉमरेड ओला मध्यवर्गी लोगों के भरोसे नहीं रहे, उन्होने फ़ुटपाथ पर जीवन गुज़ारने वाले, टमटम वाले, रिक्शा वाले, और विभिन्न सवारी गाड़ी के ड्राइवर को अपने आंदोलन का साथी बनाया। आंदोलनकारीयों के मानसिक विकास के लिए भी लगातार कोशिश की, जिस कारण ग़रीबो में अपने हक़ को लेकर काफ़ी बेदारी आई। परिणामस्वरुप 1935 के अंत तक गया ज़िलें में समाजवाद की विचारधारा काफ़ी मज़बूत हुई।
1936 के बाद आंदोलन में और तेज़ी आई, कॉमरेड ओला पर पुलिस दबिश बढ़ा दी गई, उन्हें परेशान किया जाने लगा, पर इस सब चीज़ से बेपरवाह कॉमरेड ओला ने बुद्धिजीवियों और चेतनाशील छात्रों के साथ मिल कर प्रगतिशील चिंतको का एक मंच बनाया जिसका नाम Progressive Thinkers Association रखा। साथ ही लोगों में चेतना पैदा करने के लिए 1938 में कॉमरेड ओला ने बम्बई से छपने वाले National Front, मद्रास से निकलने वाले New Age और गया में छपने वाले साप्ताहिक अख़बार “चिंगारी” को गया ज़िला के घर घर तक पहुँचाने की ज़िम्मेदारी ख़ुद अपने हाथों में ले ली।
वो लगातार कॉटन मिल के मज़दूरों से ताल्लुक़ात बनाये हुवे थे, उन्हें लगातार अंग्रेज़ों के विरुद्ध जागरूक करने के लिए पर्ची वितरित करते रहे, जिसकी ख़बर अंग्रेज़ों को लग गई, कॉमरेड ओला को भूमिगत होना पड़ा; पर अपने साथियों से लगातार सम्पर्क बनाये रखा। 1939 में नेताजी सुभाष चंद्र बोस की उपस्थिती में गया ज़िला पॉलिटिकल कॉन्फ्रेंस दाऊदनगर में हुआ, जिसे कामयाब बनाने में कॉमरेड ओला ने जी जान लगा दिया, पर्चा, पोस्टर और तक़रीर से लोगों को जागरूक करते रहे। पहले से ही अंग्रज़ों के निशाने पर रहे कॉमरेड ओला इस कॉन्फ्रेंस के कामयाब होने के बाद एक बार फिर अंग्रेज़ी पुलिस के निशाने पर थे, वो फिर से भूमिगत हो गए। सरकारी एजेंट ने उन्हें ढूंढ कर गिरफ़्तार कर गया जेल में डाल दिया, फिर वो हज़ारीबाग़ सेंट्रल जेल भेज दिये गए, जहां उनकी मुलाक़ात जय प्रकाश नारायण से हुई, इस मुलाक़ात ने कॉमरेड ओला में एक अलग सियासी बेदारी पैदा की। जेल में कोई 6 माह रहने के उन्हें रिहा कर दिया गया। जेल से छूटने के बाद कॉमरेड ओला अंग्रेज़ों के ज़ुल्म की परवाह किये बगैर फिर से आंदोलन में कूद पड़े, मगध क्षेत्र के विभिन्न ज़िलों में दट कर काम किया। गया शहर, जहानाबाद, अरवल, कुर्था, दाउदनगर, नबीनगर, ओबरा, औरंगाबाद के इलावा हुलासगंज पकरीब्रांवा, शेरघाटी, इमामगंज, बोधगया इलाक़े में जम कर काम किया और लोगों में अंग्रज़ों के विरुद्ध जागरूकता पैदा की।
आख़िर कॉमरेड ओला गिरफ़्तार भी कर लिए गए, कई बड़े लीडर के साथ वो गया सेन्ट्रल जेल में एक साल तक क़ैद रहे, वापस आ कर फिर आंदोलन का हिस्सा बने, पटना से लेकर सारण तक अपने छाप छोड़ते चले गए। इसी बीच उनके कई नये साथी भी बने जिनमे एक थे कॉमरेड मंज़र रिज़वी। वो रोहतास इंडस्ट्री मज़दूर संघ के ले लीडर थे, उनकी कर्मभूमि डालमियानगर थी, जहां उन्होंने 26 जनवरी 1942 को मज़दूरों का एक कामयाब हड़ताल करवाया, जिसका प्रभाव न सिर्फ़ पुरे बिहार प्रदेश में पड़ा बल्कि इसकी गूँज पुरे देश में सुनाई दी। इसके कॉमरेड मंज़र रिज़वी गिरफ़्तार कर हज़ारीबाग़ जेल में डाल दिये गए, जहां वो 2 साल रहे। यहाँ कॉमरेड ओला उनसे कम्युनिस्ट पार्टी की तरफ़ से अकसर मिलने आते थे। यही ताल्लुक़ात और दोस्ती जल्द ही रिश्तेदारी में बदल गई। करीमचक, छपरा, ज़िला सारण में कॉमरेड मंज़र रिज़वी की बहन अक़ीला ख़ातून से 1945 में कॉमरेड ओला का निकाह हुआ। फिर ज़िला सारण के ही एक हाइ स्कूल में बच्चों को पढ़ाने का काम करने लगे, साथ ही आंदोलन में लगातार सक्रिय रहे। कम्युनिस्ट पार्टी के अख़बार ‘Peoples War’ और उर्दू में ‘क़ौमी जंग’ को बड़े पैमाने पर सर्कुलेट किया, जिससे न सिर्फ़ स्वतंत्रता संग्राम को बल मिला बल्कि कम्युनिस्ट पार्टी की शक्ति में भी इज़ाफ़ा हुआ। 1946 में कॉमरेड ओला को कम्युनिस्ट पार्टी के मुस्लिम कार्यकर्त्ता का महासचिव बनाया गया। 1947 में देश आज़ाद हुआ, साथ ही बंटवारा भी, जिसके नतीजे में भारी ख़ून ख़राबा हुआ, कॉमरेड ओला ने मज़लूम लोगों की भरपूर मदद की, उनका मानना था के दंगे फ़साद में आम ग़रीब मज़दूर लोगों को मारा जाता है, इसलिए वो वापस अपने शहर गया आ गये। 1954 में उन्होंने ज़िलापरिषद में अकॉउंटेंट के पद को संभाला। आज़ादी के 25वीं वर्षगाठ पर भारत सरकार ने 1972 में कॉमरेड अबुल ओला को स्वतंत्रता संग्राम में उनके योगदान के लिए ताम्ब्रपत्र और प्रशस्ति पत्र देकर सम्मानित किया, साथ ही उन्हें पेंशन भी दिया गया। कॉमरेड ओला लगतार मज़दूरों और ग़रीबो के हक़ में आवाज़ उठाते रहे, बल्कि कम्युनिस्ट पार्टी का काम भी गया ज़िला में देखते रहे, यही कारण था के इस इलाक़े में कम्युनिस्ट पार्टी बहुत मज़बूत रही। 6 जनवरी 1994 को कॉमरेड ओला की पत्नी का देहांत हुआ, और 1 जनवरी 2006 को कॉमरेड ओला को दिल का दौरा पड़ा, उन्हें पटना के एक निजी अस्पताल में भर्ती कराया गया, जहां उनका निधन हुआ। उनकी मौत की ख़बर पुरे बिहार फैल गई, पार्टी का झंडा हर कार्यालय पर झुका दिया गया, बड़ी संख्या में कम्युनिस्ट पार्टी के नेता गया स्थित कॉमरेड ओला के आवास पर जमा होने लगे। अंतिम संस्कार में हज़ारों की संख्या में उनके चाहने वाले लोग जमा हुवे, और नम आँखों के साथ कॉमरेड अबुल ओला को करीमगंज क़ब्रिस्तान में दफ़न कर दिया गया। ज्ञात रहे के मुल्क की आज़ादी और ग़रीब मज़दूरों की फ़लाह की ख़ातिर कॉमरेड ओला ने अपनी तमाम दौलत वक़्फ़ कर दी थी, मौत के वक़्त उनके औलाद के इलावा उनकी ख़ुद की कोई दौलत नही थी।
ये जानकारी कॉमरेड ओला के पुत्र और बज़्म ए क़लमकार के महासचिव डॉ शकील ओलाई ने दी है। उन्होंने इस विषय पर एक काफ़ी वसी लेख लिखा है।