जब हिन्दु मुस्लिम एकता के सबसे बड़े पैरवीकार मौलाना मज़हरुल हक़ को हिन्दु और मुसलमानो ने मिल कर चुनाव हरवा दिया।

अपने अख़बार ‘दी मदरलैंड’ में सरकार के ख़िलाफ़ लिखने के अभियोग में 26 जुलाई 1922 को मौलाना मज़हरुल हक़ गिरफ़्तार कर लिए गए, उन पर इस अभियोग में धारा -500 व 501 के तहत 1000 रु का जुर्माना या 3 महीने क़ैद की सज़ा सुनाई गई। हक़ ने जुर्माना देने से इंकार कर दिया, इस लिए जेल भेज दिए गए। 16 सितम्बर को उन्हे छोड़ दिया गया, पर केस चलता रहा।

असहयोग आंदोलन में हिस्सा लेते ही मौलाना मज़हरुल हक़ के चरित्र के अंदर बहुत ही बदलाव दिखाई देने लगा। शानो शौकत वाली ज़िन्दगी जीने वाले मज़हरुल हक़ ने अब ख़ुद को सादा और कठोर बनाया, ये बदलाव बाहरी नही था, उन्होने ख़ुद में अंदरुनी बदलाव किये। उन्होने लिखा : ‘मुझे इस संसार में, जहां माया का एकछत्र राज है, निरुद्देश्य भटकने के लिए अभिशप्त किया गया है। कोई भी इच्छा रखने की क्या ज़रुरत है। अब मुझे उम्मीद है के मै अपने जीवन की उस अवस्था में पहुंच गया हुं, जहां इस संसार की वासनायें मनुष्य के आचरण पर कोई असर नही डालती हैं। मै अपने आप को बहुत दिनों तक धोखा देता रहा और अपने भावों को तरह तरह से छिपाता रहा। शायद मेरे मौजुदा रुख़ में भी शैतान मुझे धोखा दे रहा है। पर मुझ इतमिनान हे़ै के मैं यह जानता हुं के मै जो कुछ कह रहा हुं, ईमानदारी और सच्चाई से कह रहा हुं। 14 जुलाई 1922 को अख़बार ‘दी मदरलैंड’ में लिखा : ’56 साल तक अंधेरे में भटकने और हर तरह के मानव-सुलभ पापों में लिप्त रहने के बाद, यह हक़ीक़त मैं पहला मौक़ा है जब मै अपने ख़ुदा के साथ हक़ीक़ी संपर्क में आऊंगा और अपने तमाम गुनाहों के लिए माफ़ी मांगुंगा।

पर इन सब के बावजूद मौलाना मज़हरुल हक़ असहयोग आंदोलन के संचालन के ढंग से नाख़ुश मालूम होते हैं। 19 मई 1922 को एक लेख में उन्होने असहयोग आंदोलन के लाभों और हानियों का लेखा जोखा पेश किया। और आंदोलन के संचालन में जो ग़लतियां मालूम पड़ती हैं उस पर खुल कर अपने विचार प्रकट कये। वो एक पत्र में लिखते हैं : ‘एकमात्र चीज़ जो मुझे व्यतिथ करती है, यह है कि असहयोग की हत्या उसके दुशमनो ने नही, दोस्तों ने की है, और अब उसे बस शान से दफ़नाना बाक़ी रह गया है।

विधान परिषदों में प्रवेश और उनके बहिष्कार के सवाल पर छिड़े बहस ने उन्हे और भी नाराज़ कर दिया था। इसी वजह कर अख़बार ‘दी मदरलैंड’ से भी उनके इख़्तेलाफ़ और मतभेद हो गए। के.बी.सहाय की संपादकत्व में जहां अख़बार ‘दी मदरलैंड’ परिषद(कौंसिल) प्रवेश के प्रस्ताव का समर्थन करने लगा था, वहीं मौलाना मज़हरुल हक़ इसके ख़िलाफ़ थे। वो लिखते हैं : ‘अंग्रेज़ लोग परिषदें न रहने पर, बिना ही परिषदों के शासन का काम चलाते रहेंगे और दोष हमें देते रहेंगे। आह ..!! हमारे दल में विभाजन निहायत ही दुखद है, और मुझे दुख है के मै इस सब से अलग हो जाऊंगा। … मै पुरी तरह शांत रहना चाहता हुं और यह तमाशा देखना चाहता हूं जिसकी समाप्ति निश्चय ही पीड़ा और विनाश में होगी।

इसी मानसिक स्तिथी में मौलाना मज़हरुल हक़ ने 1922 के बाद ख़ुद को सक्रिय राजनीति से लगभग अलग कर लिया और साथ ही अख़बार ‘दी मदरलैंड’ के प्रबंध एवं संपादक पद से भी ख़ुद को अलग कर लिया। और इसके बाद उन्होने पटना हमेशा के लिए छोड़ दिया और स्थायी निवास के लिए फ़रीदपुर(सारन) चले गए।

नये अधिनियम के अनुसार, बिहार में म्युनिसिपेलिटी के चुनाव अक्तुबर 1923 में हुए, कांग्रेस ने चुनाव में हिस्सा लिया और जीत हासिल की, मौलाना मज़हरुल हक़ 28 जून 1924 को सारन ज़िला बोर्ड के पहले निर्वाचित अध्यक्ष बने। इस पद पर वो 27 जुलाई 1927 तक रहे और इसी दौरान उन्होने नि:शुल्क प्राथमिक शिक्षा के लिए एक योजना तैयार की। इस योजना को बोर्ड से पास करवाया और सरकार से भी मोहर मरवाया, पर पैसे की कमी की वजह कर ये काम मुकम्मल नही हो सका। फिर भी सारन भारत का पहला ज़िला बना जहां के बहुत से इलाक़े में नि:शुल्क प्राथमिक शिक्षा दी जाती थी। इसके इलावा मौलाना मज़हरुल हक़ ने सारन ज़िला में एक छोटी रेल चलाने के लिए भी “मैसर्स मार्टिन एंड बर्न” से भी समझौता किया पर ये योजना भी पैसा की कमी की वजह कर कामयाब नही हो सकी।

नवम्बर 1926 में मौलाना मज़हरुल हक़ बिहार विधान परिषद के चुनाव में खड़े हुए, पर हिन्दु और मुसलमानो ने मिल कर उनका विरोध किया और वो हार गए। हिन्दुओं ने उन्हे अपना नेता ही नही माना और मुसलमानो ने उनका इसलिए विरोध किया के उनके विचार हिन्दु समर्थक बताए जाते थे। जिस इंसान ने अपना जीवन हिन्दु मुस्लिम एकता के नाम पर खपा दिया उसके लिए इससे बड़ा आघात और क्या हो सकता था ? इसी बीच उनके बेटे ‘हसन’ का एक हादसे में इंतक़ाल हो गया, जिससे उनका दुख और भी बढ़ गया। इन दोनो घटनाओं ने उन्हे तोड़ दिया और उन्होने सक्रिय राजनीति तो दूर ख़ुद को हर तरह की राजनीति से अलग कर लिया। जिसका अंदाज़ा आप इसी बात से लगा सकते हैं के 1927 में कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशन की अध्यक्षता के लिए मौलाना मज़हरुल हक़ का नाम सबसे आगे रखा गया, तब हक़ ने एक नोटिस निकाल कर इलतेजा की के उनका नाम आगे नही किया जाए। मौलाना आज़ाद सहीत तमाम बड़े नेताओं ने उनसे अधिवेशन की अध्यक्षता करने की इलतेजा की पर वो कहां मानने वाले थे।

1908 में सारन से पटना लौटे और 1922 में पटना से वापस सारन लौटे ने फ़रीदपुर को अपना ठिकाना बनाया और अपने जीवन के अंतिम समय उन्होने उसी “आशियाना” में गुज़ार दिया जिसे उन्होने 1897 में अपनी इकलौती बहन के साथ रहने के लिए सारन आने के बाद बनवाया था। चुंके उनकी बहन के पति अब्दुल हक़ के इंतक़ाल 1896 में हो गया था जो के सारन ज़िला के अंदार के ज़मीनदार थे। अंदार और फ़रीदपुर पास में ही था।

सिवान से 13 की.मी. दुर फ़रीदपुर में उन्होने ज़मीन का एक बड़ा हिस्सा ख़रीदा उस पर उन्होने एक बग़ीचा लगया और बंगला बनवाया जिसका नाम “आशियाना” रखा, उन्हे बाग़बानी का बहुत शौक था। उन्होने कई क़िस्म के गुलाब लगाए। 1926 के बाद तीन साल के लिए आए सूखे के बाद जब बारिश हुई तो उन्होने काको (जहानाबाद) में रह रहे अपने दोस्त “फ़ख़्रुद्दीन काकवी” को 8 अगस्त 1929 को ख़त लिखा जिसमें उन्होने आशियाना की ख़ुबसुरती और बाग़ का ज़िक्र करते हुए उन्हे फ़रीदपुर आने की दावत दी।

चुंके एक फ़रीदपुर बंगाल में भी था इस लिए अकसर उनके लिए आने वाला ख़त बंगाल पहुंच जाया करता था। जिसका ज़िक्र करते हुए वो 5 अक्तुबर 1929 को अपने एक दोस्त को एक ख़त में लिखते हैं के मैने अपने पते से गांव का नाम निकाल दिया है। इस लिए आप उस पते पर भेजा करें जो लेटर पैड के उपर लिखा है “आशियाना, डाकख़ाना अंदार, ज़िला सारन”. 27 दिस्मबर 1929 को मौलाना मज़हरुल हक़ को दिल का दौरा पड़ा और उनका इंतक़ाल 2 जनवरी 1930 को हो गया। उन्हे “अाशियाना” के अहाते में दफ़न कर दिया गया।

महात्मा गांधी ने मज़हरूल हक़ के इंतक़ाल के बाद हक़ की पत्नी से संवेदना व्यक्त करते हुए 9 जनवरी 1930 को यंग इन्डिया में एक संवेदना संदेश लिखा : ‘मज़हरूल हक़ एक निष्ठावान देशभक्त, अच्छे मुसलमान और दार्शनिक थे. बड़ी ऐश व आराम की ज़िन्दगी बिताते थे, पर जब असहयोग का अवसर आया तो पुराने किंचली की तरह सब आडम्बरों का त्याग कर दिया. राजकुमारों जैसी ठाठबाट वाली ज़िन्दगी को छोड़ अब एक सूफ़ी दरवेश की ज़िन्दगी गुज़ारने लगे. वह अपनी कथनी और करनी में निडर और निष्कपट थे, बेबाक थे. पटना के नज़दीक सदाक़त आश्रम उनकी निष्ठा, सेवा और करमठता का ही नतीजा है. अपनी इच्छा के अनुसार ज़्यादा दिन वह वहां नहीं रहे, उनके आश्रम की कल्पना ने विद्यापीठ के लिए एक स्थान उपलब्ध करा दिया. उनकी यह कोशिश दोनों समुदाय को एकता के सूत्र में बांधने वाला सीमेंट सिद्ध होगी. ऐसे कर्मठ व्यक्ति का अभाव हमेशा खटकेगा और ख़ासतौर पर आज जबकि देश अपने एक ऐतिहासिक मोड़ पर है, उनकी कमी का शिद्दत से अहसास होगा.’

वहीं भारत के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने अपनी आत्मकथा में लिखा था : ‘मज़हरूल हक़ के चले जाने से हिन्दू-मुस्लिम एकता और समझौते का एक बड़ा स्तंभ टूट गया. इस विषय में हम निराधार हो गए.’

 

Md Umar Ashraf

Md. Umar Ashraf is a Delhi based Researcher, who after pursuing a B.Tech (Civil Engineering) started heritagetimes.in to explore, and bring to the world, the less known historical accounts. Mr. Ashraf has been associated with the museums at Red Fort & National Library as a researcher. With a keen interest in Bihar and Muslim politics, Mr. Ashraf has brought out legacies of people like Hakim Kabeeruddin (in whose honour the government recently issued a stamp). Presently, he is pursuing a Masters from AJK Mass Communication Research Centre, JMI & manages heritagetimes.in.