मोहसिन दरभंगवी, एक आदर्श शिक्षक के साथ एक संजीदा शायर

 

आम तौर से बिहार, और खास तौर से दरभंगा के अदबी हलकों (साहित्यक मंडलीयों) में मोहसिन दरभंगवी (1905–1992) का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं। उनकी पहचान एक आदर्श शिक्षक, एक क़ामयाब हेड मास्टर और एक संजीदा शायर के रूप में रही है। सैय्यद अताउर्रहमान अता काकवी (1904–1998) के समकालीन रहे मौलवी मोहम्मद मोहसिन का आबाई वतन गांव—बेलादम, ज़िला मुज़फ्फ़रपुर (अब वैशाली, जो 1972 में मुज़फ्फ़रपुर से अलग होकर एक नया ज़िला के रुप में बना) था। उनकी पैदाईश, उनके नानिहाली गांव शाहपुर बघौनी, ज़िला दरभंगा (अब समस्तीपुर,वास्तव में शम्सुद्दीनपुर, जिसे ग्यासुद्दीन तुगलक के एक गवर्नर हाज़ी शम्सुद्दीन इलियास (1345–58) ने बसाया था) में 31 जुलाई 1905 को हुआ था।

शादां फ़ारूकी (1925–2004) “तल्ख़–व–शिरीं” के प्रस्तावना में लिखते हैं– शाहजहां के समय में आपके ख़ानदान के लोग शाही फौज में ऊंचे ओहदों पर थे। औरंगजेब के समय में, आपके पूर्वजों को सरकार–ए–तिरहुत में एक बड़ी जागीर अता की गई, जिसकी वजह से उनके पूर्वज दिल्ली से आकर यहां आबाद हुए और यहीं के हो कर रह गए।

उनके वालिद (पिता) मौलवी महमूद आलम दरभंगा कोर्ट से मुंसलिक (जुड़े) थे। इसी लिए मोहम्मद मोहसिन को भी होश संभालते ही दरभंगा आना पड़ा। उनकी ज़िंदगी का एक बड़ा हिस्सा दरभंगा में गुज़रा और यही कारण है कि वे स्वयं को ‘मुज़फ्फ़रपुरी’ के बजाए ‘दरभंगवी’ लिखने में फ़ख्र महसूस किया करते थे। वालिदह (माता) के इंतक़ाल के बाद, उनकी बड़ी बहन सलमा खातून ने कभी भी आपको माँ की कमी महसूस नहीं होने दी।

अरबी, फ़ारसी, उर्दू की इब्तदाई ता’लीम (प्रारंभिक शिक्षा ) घर पर ही हासिल की, उसके बाद नार्थब्रुक स्कूल, दरभंगा में एडमिशन लिया और यहां से 1921 में मैट्रिक की परीक्षा पास की। इसके बाद बी. एन. कॉलेज, पटना में, आई. एस. सी. में एडमिशन लिया लेकिन अस्वस्थ रहने और साइंस में रुचि न होने के बाबत, बी. एन. कॉलेज छोड़ कर मुज़फ्फ़रपुर आ गये। फिर, जी. बी. बी. कॉलेज (अब, लंगट सिंह कॉलेज) मुज़फ्फ़रपुर में एडमिशन लिया और यहां से 1926 में, आई. ए. की परीक्षा पास की। लेकिन दो वर्ष बाद ही अर्थात् 1928 में उनके पिता का देहांत हो गया। अगले साल इसी कॉलेज से 1929 में बी. ए. की परीक्षा पास करने के बाद 1931 में टीचिंग में डिप्लोमा किया। यह वही समय था जब देश में राष्ट्रीयता की नई बयार बहने लगी थी। 1929 में, पंडित जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में कांग्रेस का लाहौर अधिवेशन हुआ, जिसमें ‘ पूर्ण स्वराज’ का प्रस्ताव पारित किया गया और 26 जनवरी 1930 को ‘स्वतंत्रता दिवस’ मनाने का आह्वान किया गया। बिहार में भी इसका असर हुआ। अतः मोहसिन दरभंगवी भी इससे अछूते नहीं रहे। इसके बाद उनकी कविताओं में देश प्रेम की भावना झलकने लगी।

पढ़ाई पूरी करने के बाद, उन्होंने, ज़िला स्कूल, मुज़फ्फ़रपुर, ज़िला स्कूल, गया, ट्रेनिंग स्कूल, पटना और ज़िला स्कूल, दरभंगा में एक शिक्षक के रूप में काम किया। 1934 में जब मुस्लिम इंग्लिश हाई स्कूल (अब, शफी मुस्लिम हाई स्कूल) लहेरिया सराय, दरभंगा की स्थापना हुई तो उन्होंने वहां हेड मास्टर के रूप में, 1934 से 1945 तक काम किया। एक माली की तरह उन्होंने इस नव–स्थापित स्कूल को अपने खून पसीने से सींचा। ऐसा सींचा कि उनके शागिर्द हर तरफ फूल ही फूल, खुशबू ही खुशबू बन कर महकने लगे। उन लोगों का ज़िक्र आगे आएगा। उनके समय में स्कूल ने खूब तरक्की की। लेकिन कुछ हालात ऐसे हुए कि अनको दो साल के लिए उस स्कूल को खैरबाद कहना (छोड़ना) पड़ा। उनको इस बात का बहुत अफ़सोस था। उन्होंने इस पर एक नज़्म ‘विदा’अ’ भी लिखी, जिसमें अफ़सोस और ग़म दिखाई पड़ता है। उस नज़्म का एक शेर देखें—

गुमां भी था किसी को अए सुखन संजान–ए–दरभंगा,
के मुझ से जीते जी छूट जायेंगे यारान–ए–दरभंगा।

दरभंगा से जाने के बाद, वह दो साल (1945–47) इस्लामिया स्कूल, कटिहार में हेड मास्टर रहे। 1947 में, जब लोगों ने उनकी कमी महसूस की तो उनको दुबारा वहां बुला लिया गया। अपने क़याम (प्रवास) के दौरान उन्होंने शिक्षा के जो दीप प्रज्वलित किए उसकी रौशनी से न सिर्फ दरभंगा बल्कि पूरा उत्तर बिहार जगमगा उठा। 1968 में वह शफी मुस्लिम हाई स्कूल से रिटायर हुए। उसके बाद, वह लगभग साढ़े चार साल तक दरभंगा की एक मशहूर बस्ती कमरौली (कुम्हरौली?) की मिल्ली दर्सगाह से मुंसलिक रहे और दर्स–ओ–तद्रीस (पठन–पाठन) का काम करते रहे। उसके बाद 1972–3 में सुग़रा गर्ल्स हाई स्कूल, दरभंगा से जुड़े और उसकी ख़िदमत करते रहे या यूं कहिए कि आप सुग़रा गर्ल्स स्कूल की स्थापना के एक आधार स्तंभ में से थे। यहां लड़कियों के लिए एक लाइब्रेरी भी खोला। इसके लिए चंदा भी इकठ्ठा किया। आखिरी दम तक अपनी अदबी खिदमात (साहित्यक सेवा) को अंजाम देते रहे। उनका इंतकाल (मृत्यु) 87 वर्ष की उम्र में, 5 दिसम्बर, 1992 को दरभंगा में हुआ।

डॉक्टर मोहम्मद मुस्तहसन (एम.बी.बी.एस., एम.डी., (मेडिसिन)), ये मोहसिन दरभंगवी के बेटे थे। मोहम्मद हामिद अली खां ने अपनी किताब ‘मुज़फ्फ़रपुर—इल्मी, अदबी और शकाफती मर्कज़’ (1988) में लिखा है— ‘डॉक्टर मोहम्मद मुस्तहसन श्री कृष्ण मेमोरियल कॉलेज हॉस्पिटल (एस.के.एम.सी.एच) मुज़फ्फरपुर में एक जनरल फ़िज़िशियन थे’। फिर 1990 से 1995 तक, सीनियर रेजिडेंट मेडिसिन, की हैसियत से पी.एम.सी.एच., पटना में रहे। उसके बाद सउदी अरब फिर रियाद (1995–2017) और आखिर में पारस हॉस्पिटल, पटना, में एक मुमताज़ जनरल फ़िज़िशियन की हैसियत से काम करते रहे। उनका इंतकाल 24 जून 2021 को लगभग 70 साल की उम्र में, पटना के पारस हॉस्पिटल में हुआ।

मेरी महदूद जानकारी के मुताबिक़ (अनुसार) मोहसिन दरभंगवी के दो मजमू’ए कलाम शाय’अ (कविताओं का संग्रह, प्रकाशित) हो चुका है। पहला, तल्ख़–व–शिरीं (1959) और दूसरा नाल–व–नग़मा (1980)। बड़ी अच्छी नज्में भी कहीं हैं। ‘अलीगढ़’, ‘बरसात और बेतिया रोड’ (दरभंगा की एक मशहूर सड़क का नाम) उसी में से हैं। वह उर्दू, फ़ारसी, अरबी, अंग्रेजी भाषा में पारंगत थे। उर्दू के अलावा वह फ़ारसी में भी अश’आर लिखते थे। मिल्लत कॉलेज (1956 में स्थापित), दरभंगा, के एक अंग्रेजी साप्ताहिक पत्रिका ‘Machiavelli’ में बराबर कॉलम लिखते थे। पढ़ने का बहुत शौक़ था। इस संबंध में, प्रो. मन्नान तर्जी लिखते हैं कि– वह जिस भी किताब को पढ़ते, उसके पन्नों पर ऐसा नोट लिखते थे कि किसी लेख के लिए, एक खाका तैयार हो जाता था। ज़हीर नशाद दरभंगवी अपने एक लेख–‘मोहसिन दरभंगवी एक क़ीमती वर्सा’ (ज़बान–व–अदब, पटना, 1985) में लिखते हैं–मोहसिन दरभंगवी अपने दोस्तों, जो खाने के शौक़ीन थे, के लिए दरभंगा में एक ‘पेटू क्लब’ भी बनाया था। जिसकी कहानियां इतनी दिलचस्प होती थी कि आज भी वहां के लोग उसको याद कर, आनंदित हो उठते हैं। पान के भी शौक़ीन थे। ‘दरभंगा का अदबी मंज़र नामा’ (2016) में डॉक्टर सरवर करीम, लिखते हैं कि–अब्दुल क़य्यूम साकी, ने ‘मोहसिन दरभंगवी: हयात–व–शायरी’ पर 1988 में ललित नारायण मिथिला यूनिवर्सिटी से पी. एच. डी. (P.hd) किया है। शायद, इदारा–ए–तवाजुन, दरभंगा से, नजीब अख़्तर (जे.एन.यू.) ने भी मोहसिन ‘दरभंगवी–हयात–व–फ़न’ के नाम से एक किताब लिखी है। उनके कविताओं के संग्रह, तल्ख़–व–शिरीं का एक शेर देखें—

तल्ख़–व–शिरीं बे तकल्लुफ़ जिसको पीना आ गया,
मैकशों! पीना तो पीना, उसको जीना आ गया।


उनके शागिर्दों (छात्रों) की एक लंबी फेहरिस्त है और सब अपने फ़न में माहिर और कामयाब हैं। जिसमें शादां फारूकी, डॉक्टर मन्नान तर्ज़ी, डॉक्टर आग़ा एमादुद्दीन अहमद, ‘मज़हर’ इमाम, मुख़्तार अहमद अंसारी फैज़’, दामिक देवरवी, ओवैस अहमद ‘दिलकश’, डॉक्टर लूतफूर्रहमान, डॉक्टर क़मर आज़म हाशमी, मनीर फ़ारूकी वगैरह का नाम लिया जा सकता है। हालांकि, मुफ़्ती सनाउल होदा क़ासमी ने अपनी किताब, तज़केरा–ए–मुस्लिम मशाहिर वैशाली’ (2001) के प्रथम खण्ड में इनका ज़िक्र नहीं किया है। शायद, उनकी जानकारी में ये बात नहीं रही होगी या दूसरे खण्ड में आए। ऐसी उम्मीद है।

‘तज़केरा–ए–बज़्म–ए–शुमाल’ के मुसन्निफ़ शादां फ़ारूकी उनके अज़ीज़ शागिर्दों में से थे। शादां फ़ारूकी खुद लिखते हैं—
तलम्मुज़ है मुझे मोहसिन से शादां,
मेरा रुतबा किसी से कम नहीं।
वहीं दूसरी तरफ प्रो. मन्नान तर्ज़ी ने अपने उस्ताद के बारे में लिखा है—
“तल्ख़–व–शिरीं” वाले मोहसिन का भी गुलशन है यही
तू ज़ुबैर–ए–गोरगानी साहेब–ए–दीवान का भी ।
करम ये आप ही का मुझ पे है बेशक
मेरे फ़न में जो है थोड़ी जिला मोहसिन।

आज मोहसिन दरभंगवी हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनकी यादें और उनके द्वारा किया गया कार्य, आने वाले लोगों के लिए प्रेरणा का स्रोत ज़रूर होगा। उनकी शायरी, बहर व वज़न (कविता मापने की एक युक्ति) के इतर, एक आम आदमी की शायरी थी। शिक्षा के क्षेत्र में उनका जो योगदान है, उसे याद किया जाना समय की मांग है। कम से कम, उनके नाम पर, उनके पैतृक गांव में, एक लाइब्रेरी तो होनी ही चाहिए।

लेखक नूरूज़्ज़माँ अरशद, (एस.टी.एस.स्कूल (मिंटो सर्किल), ए.एम.यू.,अलीगढ़) से हैं।