बिहार के पटना के पास मौजूद सबलपुर के इस क़ब्र के बारे में वहाँ के लोग भी बहुत कम जानते हैं। ये क़ब्र अल्लाह जिलाई बाई की है, जिनके बारे ‘पटना’ खोया हुआ शहर के लेखक अरुण सिंह लिखते हैं :~
क्या किसी तवायफ़ की मौत शहर के लोगों को मर्माहत कर सकती है ? आज यह सोचते हुए विस्मय होता है। लेकिन यह सच है।1902 में इलाहाबाद से पटना आ बसी अल्लाजिलाई की मौत से शहर के रसिक और कलाप्रेमी बहुत मर्माहत हुए थे।
अल्लाजिलाई का बहुत कम उम्र में ही निधन हो गया था। वह 17 वर्ष की उम्र में इलाहाबाद से पटना आई। 20 की होते-होते वह पटना पर छा गई थी और 24 वर्ष की उम्र में उसका निधन हो गया। वह हुस्न और मौसिकी दोनों की मलिका थी। वह ठुमरी और दादरा की बेहतरीन अदाकारा थी।
अल्लाजिलाई का जिक्र करते हुए पटना सिटी के सदर गली निवासी बदरुद्दीन अहमद साहब ने लिखा है, ‘ये मेरे बचपन का जमाना था। लेकिन मुझे याद है कि किस तरह पटना के लोग इसकी मौत से मुतासिर हुए थे। उस वक़्त तो मुझे ताज्जुब होता था कि तवायफ़ की मौत का इस कदर चर्चा कैसा! मगर बाद में यह बात समझ में आई कि उस वक़्त लोगों में इस तरह की बात का चर्चा होना इनके मिज़ाजे-तबियत के मुआफ़िक था। क्योंकि हुस्नपरस्ती का शौक उस वक़्त तक आमतौर पर बुरी निगाहों से नहीं देखा जाता था।’
अल्लाजिलाई को पटना से पांच मील दूर गंगा नदी के किनारे दफ़नाया गया। पक्की दरगाह के घिरे हुए अहाते के दरवाजे के सामने की ओर अन्य कब्रों से अलग पत्थरों से बनी हुई ऊंची कुर्सी पर अल्लाजिलाई की मज़ार है। आसपास के लोग बताते हैं कि कभी यह बहुत खूबसूरत हुआ करता था। कब्र के चारो तरफ पत्थर के बेहतरीन जालीदार कठघरे लगे हुए थे। सिरहाने संगमरमर का शमादान भी था। अब वे सब मौजूद नहीं हैं लेकिन मज़ार पर खूबसूरत अक्षरों में लिखा एक कतबा (epitaph) अभी भी है।
अल्लाह जिलाई की क़ब्र पर उर्दु कतबा लगा हुआ है, जिस पर लिखा है (1337 हिजरी): जिसे उर्दू से हिंदी में सैयद फ़ैज़ान रज़ा ने कुछ इस तरह पेश किया है :-
अजब ये वाक़या है दर्दनाक अल्लाह जिलाई का
बग़ौर इसको जो देखो सब करिश्मे थे मोहब्बत के
इलाहाबाद से आ कर अज़ीमाबाद में रहना
वो तारीफ़ इसके गाने की वो चर्चे इसकी सूरत के
जवानी का ज़माना जोश पर हुस्न ए शबाब इसका
ज़ुबान ए खलक़ पर क़िस्से वो इसकी आदमियत के
अदा ओ नाज़ के साथ इसका हर दम मुस्कुरा उठना
करिश्मे इसके सारे दिलपसंद अंदाज़ आफ़त के
कहूं ये दास्तां कब तक ज़ुबां यारी नहीं देती
अलावा इसके और असबाब भी थे इसकी शोहरत के
बहुत कुछ इसने ख़ास कर लिया था अपने पेशे में
बहुत कुछ थे अभी सामान बाक़ी कस्ब ए दौलत के
कुछ ऐसा आर्ज़ा कलकत्ता जा कर साथ ले आई
यहां पहुंची तो थे मादूम सब आसार सेहत के
महीना था रजब का ग्यारहवीं थीं जुमा का दिन था
के आ पहुंची अजल ज़ाहिर हुए अंदाज़ रेहलत के
दग़ा की उम्र ने चौबीसवें साल इस परिवश से
ये मरने का ज़माना था के दिन थे ऐश ओ इशरत के
वो फूल इस बाग़ में खिलता हुआ मुरझा गया ऐसा
जो देखा कुछ न था बाक़ी बजुज़ अंदोह ओ हसरत के
नकुकारों को क्या सारे गुनहगारों को भी या रब
भरोसा है तेरा क़ुर्बान तेरी शान ए रहमत के
सर्द दिल से दुआ दे कर कही तारीख़ यूं मैं ने
जगह दिलवा दे या रब इसको एक गोशे में जन्नत के