हाँ मेरे नूर ए नज़र, तू शहीद ए क़ौम हो और क़ौम की ख़ातिर मरे

 

अमेरिका में भारत की आज़ादी के लिए एक संगठन की बुनियाद डाली जाती है, जिसका मक़सद 1857 की तरह पुरे भारत में प्रथम विश्व युद्ध के दौरान ‘ग़दर’ बर्पा करना था, इसी वजह कर वो संगठन ‘ग़दर पार्टी’ के नाम से मशहूर हो गया.

इस संगठन के बैनर तले कई न्यूज़पेपर निकलने लगे, इस संगठन के लोगों ने जर्मनी, तुर्की की मदद से अपने आज़ादी के एजेंडे को पूरी दुनिया में फैलाते, न्यूज़पेपर इसमें अहम् किरदार अदा करता था.

जून 1917 में युगान्तर से एक नज़म “मां बेटे से” नामालूम क्रांतिकारी द्वारा लिखी गई, जिसे भारत में ब्रिटिश हुकूमत ने बाग़ियाना मान कर पाबंदी लगा दी थी.

हाँ मेरे नूर ए नज़र, मेरे दुलारे लाडले
बांध ले अपनी कमर, दूल्हा बनाऊं मैं तुझे

तेरे बालों को संवारुं, हाथ से कंघी करूं
फिर मुझे मौक़ा कोई शायद मुक़द्दर से मिले

नेक है तेरा इरादा, ऐ मुसाफ़िर अलविदा
मुन्तज़िर होंगी तेरी सीने पर, मैं पत्थर धरे

वह भी दिन हो मैं तेरी तलवार के जौहर सुनूं
ख़िरमने फ़ौजे अदु पर बर्क़ की सूरत गिरे

क़ौम के पौदे तेरे पहलू में हो नेज़ों के फल
तू शहीद ए क़ौम हो और क़ौम की ख़ातिर मरे

ज्ञात रहे के ग़दर पार्टी साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ हथियारबंद संघर्ष का ऐलान और भारत की पूरी आज़ादी की मांग करने वाली राजनैतिक पार्टी थी, जो कनाडा और अमरीका में प्रवासी भारतीयों ने 1913 में बनाई थी। इसके संस्थापक अध्यक्ष सरदार सोहन सिंह भाकना थे। ग़दर पार्टी का मुख्यालय सैन फ़्रांसिस्को में था, जिसे युगान्तर आश्रम के नाम से जाना जाता था।

इस पार्टी के अधिकतर सदस्य पंजाब के पूर्व सैनिक और किसान थे, जो बेहतर ज़िंदगी की तलाश में अमरीका गए थे।

Members Of Ghadar Movement

भारत को अंग्रेज़ी हुकूमत से आज़ाद कराने के लिए ग़दर पार्टी ने पहले 1 नवम्बर 1913 को उर्दू फिर 9 दिस्मबर 1913 को गुरुमुखी और फिर उसके बाद हिंदी गुजराती, पश्तो, बंगाली, इंग्लिश, जर्मन, फ़्रंच सहीत कई ज़ुबान में ‘हिंदुस्तान ग़दर’ नाम का अख़बार भी निकालना शुरु किया। वो इसे विदेश में रह रहे भारतीयों को भेजते थे। पहले ये हांथ से लिखा जाने वाला अख़बार हुआ करता था; बाद मे प्रेस से छपने लगा।

14 मई 1914 को ग़दर में प्रकाशित एक लेख में लाला हरदयाल ने लिखा : “प्रार्थनाओं का समय गया; अब तलवार उठाने का समय आ गया है । हमें पंडितों और काज़ियों की कोई ज़रुरत नहीं हैं।”

लाला हरदयाल ने, जो अपने आप जो अराजकतावादी कहा करते थे, एक बार कहा था कि स्वामी और सेवक के बीच कभी समानता नहीं हो सकती, भले ही वे दोनों मुसलमान हों, सिख हों, अथवा वैष्णव हों। अमीर हमेशा ग़रीब पर शासन करेगा… आर्थिक समानता के अभाव में भाईचारे की बात सिर्फ़ एक सपना है।