नादिर ने शाह बनने के बाद ईरान से अफ़गानों के प्रभुत्व को कम किया पर उसके बाद क़ज़ार वंश का शासन आया जिसके काल में यूरोपीय प्रभुत्व बढ़ गया। उत्तर से रूस, पश्चिम से फ़्रांस तथा पूरब से ब्रिटेन की निगाहें ईरान पर पड़ गईं.
20वीं सदी के शुरुआत में यूरोपीय प्रभाव बढ़ जाने और शाह की निष्क्रियता के ख़िलाफ़ 1905 और 1911 के बीच ईरान में दो जनान्दोलन हुआ.
चूंकि ईरान के शाह ने ब्रिटेन और रूस पर अपनी निर्भरता को काफ़ी बढ़ा दिया था, इस लिए 1905 में, ईरान के राष्ट्रवादियों ने व्यापारियों, उलमा, शहरी लोगों के साथ मिल कर बड़े पैमाने पर विद्रोह किया, ख़ुद से नेशनल असेंबली और संविधान की स्थापना कर दी. साथ ही विदेशी ताक़तों की ग़ुलामी बंद करने की अपील की गई.
12 जनवरी 1906 में, ईरान के शाह मुज़फ़्फ़र को लोगों के दबाव में झुकना पड़ा, वो अपने प्रधानमंत्री को हटाने पर राज़ी हो गए, पर बीच में ख़ून ख़राबा हो गया, दर्जनों लोग मरे और सैंकड़ों ज़ख़्मी हुवे, आख़िर अगस्त 1906 में ईरान के शाह मुज़फ़्फ़र ने ईरान की पहली संसद और संवैधानिक प्रतिष्ठान की स्थापना को मंज़ूरी दे दी, चुनाव हुवे, 156 नुमाइंदे चुने गए. अक्तुबर 1906 में सदन की पहली मीटिंग होती है, ये लोग संविधान बनाने की समिति गठित करते हैं, संसद का उद्घाटन करने बूढ़े और बीमार शाह मुज़फ़्फ़र ख़ुद आते हैं. शाह मुज़फ़्फ़र के बेटे मुहम्मद अली संविधानवाद और उसके समर्थकों के ख़िलाफ़ थे, इसलिए जल्द से जल्द संविधान का ख़ाका तैयार करने की कोशिश की गई, और आख़िर शाह मुज़फ़्फ़र ने 31 दिसम्बर 1906 को संविधान पर दस्तख़त कर दिया.
3 जनवरी 1907 को ईरान के शाह मुज़फ़्फ़र का इंतेक़ाल हो गया, उसके बाद उसका बेटा मोहम्मद अली ईरान का शाह बना. और उसने अपने पिछले शाह के फ़ैसले को ना सिर्फ़ पलट दिया बल्के 23 जून 1908 को रूसी और ब्रिटिश फ़ौज की मदद से तेहरान स्थित संसद जिसे मजलिस भी कहा जाता था, पर हमला भी करवा दिया.
ज्ञात रहे के रूस और ब्रिटेन के बीच तुर्की और जर्मनी के ख़िलाफ़ 31 अगस्त 1907 को ईरान, अफ़ग़ानिस्तान और तिब्बत को लेकर एक समझौता होता है, जिसमे ब्रिटेन और रूस ने मोहम्मद अली शाह को अपने पाले में लेकर ईरान के इलाक़े को आपस में बांट लिया था, उत्तर ईरान का भाग रूस ने लिया, क्युंकि वो उसके नज़दीक था और दक्षिण ईरान ब्रिटेन ने, क्युंकि वो ब्रिटिश इंडिया के सरहद पर था, बीच का इलाक़ा बफ़र ज़ोन बना दिया. पर इन सब चीज़ में क्रन्तिकारीयों की संसद और संवैधानिक संस्था रुकावट डाल रही थी. ब्रिटेन और रूस इन्हे रोकना चाहते थे, मोहम्मद अली शाह भी इन्हे ब्रिटेन और रूस की मदद से वश में करने और उन्हें निकालने फ़िराक में था. 23 जून 1908 को रूसी और ब्रिटिश फ़ौज मजलिस में दाख़िल होती है, कई लीडर मौत के घाट उतार दिए गए. पुरे तेहरान पर फ़ौज की हुकूमत थी.
इधर 23 जून 1908 को ही क़त्ल ए आम की ख़बर सुनने के बाद तबरीज़ में बग़ावत शुरू होती है, संवैधानिक गुट के समर्थकों का तबरीज़ पर क़ब्ज़ा हो जाता है, इन लोगों से शहर वापस लेने के लिए सरकरी फ़ौज फ़रवरी 1909 के शुरुआत में शहर का घेराव कर लेती है, पर कोई ख़ास फ़ायदा नहीं होता है, इसके बाद ब्रिटेन की मदद से 30 अप्रैल 1909 को रूस की फ़ौज शहर पर क़ब्ज़ा कर माहौल को अपने फ़ेवर में करने की कोशिश करती है. लगातार बात चीत के ज़रिये तबरीज़ से रुसी फ़ौज निकालने की पहल की जाती है, पर 1911 तक कोई फ़ायदा नहीं होता है, इधर 1909 के शुरूआत में ईरान के दूसरे इलाक़े में संवैधानिक गुटों का वापस से उदय हुआ, क्रन्तिकारी अज़रबैजान, इस्फ़हान और गिलान के इलाक़े में शाह मोहम्मद अली को सत्ता से बेदख़ल करने के लिए जमा होने लगे. 23 जनवरी 1909 को इन्होने संवैधानिक गुट के लोगों पर ज़ुल्म कर रहे गिलान के गवर्नर को मार दिया. फिर ये लोग तेहरान की तरफ़ कूच करने लगे, 13 जुलाई 1909, को 5 दिन के जद्दोजहद के बाद ये लोग राजधानी पर क़ाबिज़ हो जाते हैं, 13 जुलाई 1909, को मोहम्मद अली शाह को सत्ता से बेदख़ल कर उसके 11 साल के नाबालिग़ बेटे अहमद शाह को तख़्त ए ख़ुर्शीद पर बैठा देते हैं, इस काम लिए अलग अलग बैकग्राउंड के लोगों को जोड़ कर संसद की स्थापना की जाती है. इसके बाद वहां काफ़ी कुछ होता है.
29 नवंबर 1911, को रूस की सरकार ने ईरान को फ़ौज निकालने के लिए अल्टीमेटम दिया, जिसमे कई मांग थी, जिसमे सबसे महत्वपूर्ण अमरिकी वकील मॉर्गन शूस्टर को हटाने की मांग थी, वकील मॉर्गन को मजलिस यानी संसद द्वारा ईरान के वित्त मंत्रालय के सहायक के तौर पर रखा गया था. मजलिस ने वकील मॉर्गन शूस्टर को हटाने की मांग को ख़ारिज कर दिया, तब शाह ने रूस की सरकार के अल्टीमेटम को मानते हुवे मजलिस को ही भंग कर दिया. इसके बाद पुरे तबरीज़ के इलाक़े में उथल पुथल मच जाता है.
21 दिसम्बर 1911, को फ़िदाईन द्वारा रुसी फ़ौज पर हमला किया जाता है, कई रुसी मारे जाते हैं, जिसके जवाब ने रूस ने अपनी पूरी फ़ौज उतार दी. ईरान के तीन बड़े शहर रश्त, तबरीज़ और अंज़ाली को क़ब्ज़े में ले लिए जाते हैं, तबरीज़ पर क़ब्ज़े के लिए रुसी फ़ौज को काफ़ी जद्दोजहद करनी पड़ती है, 3 दिन बाद 31 दिसम्बर 1911, को रुसी फ़ौज शहर में दाख़िल होती है, संविधान के समर्थक और उनके परिवार वालों को चुन चुन कर मारती है. कोर्ट मार्शल द्वारा फ़िदाईन को सज़ा दी जाती है, 1318 में बने ऐतिहासिक अर्ग को आग के हवाले कर दिया जाता है. आलिम से लेकर आम लोगों तक मौत के घाट उतार दिया गया, जिनकी तादाद हज़ारों में थी.
इस घटना को ले कर जगह जगह बेचैनी देखी गई, इसका असर भारत में भी दिखा, ब्रिटिश का क़ब्ज़ा झेल रहे भारतीयों ने इसके ख़िलाफ़ जम कर लिखा, कई नज़्म और लेख लिखे गए, कई पर अंग्रेज़ों ने पाबंदी लगा दी, इसी में से एक नज़्म है मौलवी वजाहत हुसैन ‘वजाहत’ सिद्दीक़ी की, जिस पर ब्रिटिश सरकार ने पाबन्दी लगा दी थी, इस नज़्म में ईरान से ना सिर्फ़ धार्मिक आधार पर जुड़ाव दिख रहा; बल्कि इलाक़ाई मुहब्बत का भी इज़हार किया गया है, जापान का उदहारण दे कर ईरान को एशिया और रूस को योरप का दिखाया गया है.
रूस ने हमला किया ईरान पर
बन गई इस्लामियों की जान पर
कट गया धड़ से गला इंसाफ़ का
कुंद छुरियां चल गई ईमान पर
गिर पड़ी बिजली कड़क कर बेदरेग़
अम्नो इत्मिनान के खलियान पर
आ गई तब्रेज़ में रुसी सिपाह
कर लिया क़ब्ज़ा हर इक ईवान पर
भेज कर अपना सिपाही ज़ार ने
मुहर कर दी जंग के ऐलान पर
रूस को है मुल्कगीरी की हवस
रह नहीं सकता यह घोड़ा थान पर
की थी उसने अबसे पहले चंद साल
धूम से लश्करकशी जापान पर
जब वहां बे भाव की पड़ने लगीं
फ़ैसला करना पड़ा तावान पर
एशिया का था यही उज़्वे ज़ईफ़
इसलिए नज़ला गिरा तेहरान पर
तोड़ दी रीजेंट ने मज्लिस भी हैफ़
सर झुकाया रूस के फ़रमान पर
कट के मर जाते फ़िदाई मुल्क के
आन को तरजीह देते जान पर
कुंद तेग़ ए इस्फ़िहानी हो गई
काश उसे फिर कोई रख दे सान पर
रूस ने ईरां में जो छेड़ा है राग
लूट है युरोप भी उसकी तान पर
बादशाहों में कोई क़ायम नहीं
क़ौल पर, इक़रार पर, पैमान पर
सैकड़ो सर कट गए तलवार से
जूं नहीं चलती किसी के कान पर
लुक़्म ए तर जान कर ईरान को
मक्खियां गिरने लगी हैं रव्वान पर
उसने भी चुप साध ली वा हसरता
उंगलियां उठती थीं इंग्लिस्तान पर
सब मुसलमानो की है यह आरज़ू
रूस का क़ब्ज़ा न हो ईरान पर
प्रथम विश्व युद्ध के दौरान उस्मानी फ़ौज ने क़फ़्क़ाज़ के इलाक़े में फ़ौजी करवाई शुरू की, ये रूस के लिए ख़तरे की घंटी थी, 17 दिसंबर 1914 और 6 जनवरी 1915 के बीच तबरीज़ से रुसी फ़ौज पीछे हट जाती है, 8 जनवरी को उस्मानी फ़ौज ने कुर्दो की मदद से तबरीज़ पर क़ब्ज़ा कर लिया, पर सरिकामिश की जंग में उस्मानीयों की रुसी फ़ौज से हार के बाद 31 जनवरी 1915 को रूस की फ़ौज ने तबरीज़ पर वापस क़ब्ज़ा कर लिया, और नवंबर 1917 में हुई रुसी क्रांति तक इस क़ब्ज़े को बरक़रार रखा. 1918 के शुरुआत में रुसी फ़ौज ने शहर छोड़ना शुरू किया और 28 फ़रवरी को आख़री रुसी सिपाही ने तबरीज़ शहर ख़ाली कर दिया और 18 जून 1918 को तबरीज़ शहर पर वापस उस्मानी फ़ौज ने क़ब्ज़ा कर लिया, और ये क़ब्ज़ा प्रथम विश्व युद्ध ख़त्म होने तक बरक़रार रहा.