मुशीर हुसैन किदवई का जन्म उत्तर प्रदेश के बाराबंकी ज़िला के गादिया क़स्बे 1878 में हुआ था, शुरुआती तालीम घर पर हासिल की, फिर लखनऊ गए, उसके बाद 1897 में बैरिस्टरी करने इंग्लैंड गए, लिंकन इन से बैरिस्टरी मुकम्मल की। यहीं उनके अंदर क्रांतिकारी भावना जागृत हुई। योरप के विभिन्न देशों का दौरा किया। इस्तांबुल गए। उनके इस दौरे ने भारत से आने वाले नए क्रांतिकारियों के लिए दरवाज़े खोल दिए। जिसका असर प्रथम विश्व युद्ध के दौरान साफ़ तौर पर देखने को मिला।
1904 से 1907 के दौरान लंदन में पैन-इस्लामिक सोसाइटी के सचिव रहे; जिसकी स्थापना 1903 में भारत के रहने वाले अब्दुल्ला मामून सोहरवर्दी ने की थी, जो ख़ुद पेशे से वकील और लेखक थे। 1905 में मुशीर हुसैन किदवई को उनके काम और जज़्बे की वजह कर तुर्की के सुल्तान, अब्दुल हमीद द्वारा निशान ए इम्तियाज़ से नवाज़ा गया; जो वहाँ का उस समय सबसे ऊँचा सम्मान था।
भारत लौट कर ना सिर्फ़ उन्होंने वकालत में हाथ आज़माया, बल्कि वो सियासत में भी हिस्सा लेने लगे। वो उस समय भारत के सबसे पढ़े लिखे सियासी लोगों में से थे। इस वजह कर लोगों से मिलना जुलना बढ़ता गया। मौलाना शिबलि नोमानी जैसे आलिम के नज़दीक आए, 1906 में क़िदवई साहब के लखनऊ स्थित आवास पर शिबली नोमानी की मुलाक़ात अतिया बेगम फ़ैज़ी से हुई। क़िदवई साहब लगातार बाअसर लोगों के नज़दीक रहे। और इसी नतीजे में 1907 में इन्होंने कांग्रेस की सदस्यता ले ली।
वैसे मुशीर हुसैन किदवई की सियासत में दिलचस्पी की शुरुआत तो लंदन में ही हो गई थी। पर अंजुमन ख़ुद्दाम ए काबा नाम के संगठन ने उन्हें पहचान दी। हुआ कुछ यूँ के इटली ने अपने साम्राज्य को बढ़ाने के लिए 1911 में लीबिया पर चढ़ाई कर और देखते ही देखते त्रिपोली को जीत लिया। इस बीच ये ख़बर आम हो गई के इटली का अगला निशाना हेजाज़ है, हेजाज़ अरब का वो इलाक़ा है, जहां मुसलमानो के दो पवित्र शहर मक्का और मदीना है।
उस समय हेजाज़ पर उस्मानी तुर्कों का अधिकार था, और उसके सुल्तान को मुसलमान अपना ख़लीफ़ा मानते थे। इसको लेकर भारतीय उपमहाद्वीप के मुसलमानो में बड़ी बेचैनी थी, और यहीं जनवरी 1913 में बैरिस्टर मुशीर हुसैन किदवई द्वारा अंजुमन ख़ुद्दाम ए काबा नामक संगठन की स्थापना लखनऊ में की जाती है, जिसका मुख्य उद्देश मक्का और मदीना की हिफ़ाज़त करना था।
बाद में इसी संगठन ने ख़िलाफ़त आंदोलन में जान डाल दी थी, क्यूँकि बाद में इस संगठन से मौलाना शौकत अली और मुहम्मद अली जुड़े और अधिकारिक तौर पर इस संगठन का एलान 31 मार्च 1913 को शौकत अली द्वारा किया गया। 9 अप्रिल 1913 को मुशीर हुसैन किदवई ने एक ख़त अल-हेलाल के एडिटर मौलाना आज़ाद को लिख कर उनसे अंजुमन ख़ुद्दाम ए काबा का ख़ाक़ा छापने की दरयाफ़्त की, और आख़िर 23 अप्रिल को वो छप गया। लगातार मीटिंग होती रही; लोगों को ज़िम्मेदारी दी गई।
जहां तुर्की के सुल्तान को ख़ादिम उल हरमैन माना गया, वहीं संगठन का अध्यक्ष मौलवी अब्दुल बारी को ख़ादिम उल ख़ुद्दाम के लक़ब से बनाया गया। मौलाना शौकत अली के साथ मुशीर हुसैन किदवई इस संगठन के सचिव बने। बड़े पैमाने पर चंदा जमा किया गया। आम लोगों तक इस संगठन को ले जाने के लिए यतीमख़ाना और स्कूल खोला गया। इसी संगठन से जुड़े लोगों की मदद से बॉल्कन जंग के दौरान एक मेडिकल मिशन तुर्की डॉक्टर मुख़्तार अंसारी की सरपरस्ती में भेजा गया।
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1913 में एक बार फिर उनका इंग्लैंड जाना हुआ;उन्होंने अंजुमन ख़ुद्दाम ए काबा की एक शाख़ लंदन में भी स्थापित की। इसके इलावा वो लंदन के इस्लामिक सोसाइटी के मानक सचिव भी बने। उन्होंने इन प्लाट्फ़ोर्म का उपयोग लेख और तक़रीर छापने के साथ ही उसे लोगों तक पहुँचाने में किया, साथ ही इस संस्था की मदद से भारत की आज़ादी और ख़िलाफ़त की हिफ़ाज़त करने की भरपूर कोशिश करने लगे।
इनकी गतिविधि अंग्रेज़ों को संदिग्ध लगी; क्यूँकि मुशीर हुसैन किदवई ने एक तरफ़ योरप में दुनिया भर के क्रांतिकारियों से मुलाक़ात की; जो साम्राज्यवादी ताक़तों के विरुद्ध जद्दोजेहद कर रहे थे। वहीं उनकी मुलाक़ात लाला हरदयाल और कृष्णावर्मा जैसे भारतीय क्रांतिकारियों से भी हुई, इंडिया हाऊस में लगातार उठना बैठना रहा। बाद में इन्होंने ग़दर पार्टी से जुड़े लोगों से भी काफ़ी अच्छे सम्बंध बनाए। इस वजह कर अंग्रेज़ों ने उनके हिंदुस्तान आने पर पाबंदी लगा दी। 1913 से 1920 तक उन्हें इंग्लैंड में रहना पड़ा। इसी बीच ग़दर पार्टी के पूरे प्लॉट का भी पर्दा उठ गया; सैंकड़ों क्रांतिकारियों को अंग्रेज़ों ने फाँसी पर लटका दिया। मुशीर हुसैन किदवई भी काफ़ी परेशान हुवे; पर उन्होंने हौसला नही खोया और लगातार अपने काम में लगे रहे।
1916 में उन्होंने सेंट्रल इस्लामिक सोसाइटी की बुनियाद डाली और 1919 में इस्लामिक इंफ़ोरमेशन ब्युरो की बुनियाद लंदन और पेरिस में डाली; जहां से मुस्लिम आउट्लुक नाम का रेसाला निकलता था। इसी संस्था ने भारत से मुहम्मद अली जौहर की क़ियादत में लंदन पहुँचे ख़िलाफ़त डेलीगेशन की मेज़बानी की। मुशीर हुसैन किदवई के द्वारा स्थापित संस्था की मदद से मुहम्मद अली जौहर ने योरप भर का दौरा किया।
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मुशीर हुसैन किदवई को 1920 के आख़िर में भारत आने की इजाज़त मिल गई, उन्होंने भारत में बढ़ चढ़ कर ख़िलाफ़त और असहयोग तहरीक में हिस्सा लिया। मई 1920 में अवध ख़िलाफ़त कोंफ़्रेंस की अध्यक्षता की। अंगोरा और तिलक स्वराज फ़ंड में बड़े पैमाने पर सहयोग राशि जमा करवाई। पर गांधी के असहयोग आंदोलन वापस लेने और कमाल पाशा द्वारा ख़िलाफ़त के ख़ात्मे ने इन्हें काफ़ी सदमा पहुँचाया। उन्होंने अपने लेख में जमियत उलमा और कांग्रेस से जुड़े नेताओं की काफ़ी तनक़ीद की। मुशीर हुसैन किदवई बीमार रहने लगे। पर मुल्क को आज़ाद करने का जज़्बा कभी कम न हुआ, इसलिए 1931 ऑल इंडिया इंडिपेंडेंस लीग के अध्यक्ष बने।
एक क्रांतिकारी के इलावा मुशीर हुसैन किदवई एक लेखक भी थे; उर्दू, हिंदी के इलावा अंग्रेज़ी पर उनकी बहुत ही शानदार पकड़ थी। शेर ओ शायरी का भी शौक़ था, उर्दू और फ़ारसी में इनकी कई ग़ज़लें शाए हुईं। मज़हबी तालीम भी हासिल कर रखी थी। लंदन से निकलने वाले इस्लामिक रिव्यू में उनके लेख 1914 से लेकर उनकी मौत तक लगातार छपते रहे, मज़हबी मुद्दों के इलावा वो सियासत पर भी ख़ूब लिखते थे, विभिन्न मुद्दों पर अल-क़िदवई के नाम से उनकी दर्जनो दर्जन लेख छपे, जिसमें अधिकतर प्रथम विश्व युद्ध के दौरान के हैं।
सूफ़ियाना मिजाज़ के मालिक थे, और अपने वक़्त में वह भारतीय उपमहाद्वीप में वारसी सिलसिला शुरू करने वाले बुज़ुर्ग हाजी वारिस अली शाह के ख़ास मुरीदों में गिने जाते थे। चाहने वालों ने आपको शेख़ का लक़ब दिया और फिर आप शेख़ मुशीर हुस्सैन किदवई कहलाने लगे। ख़िलाफ़त आंदोलन में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेने वाले बैरिस्टर मुशीर हुसैन किदवई ने “इस्लाम और सोशलिज़म” नाम की एक किताब भी लिखी।
Islam and Socialism के इलावा उन्होंने कई किताब लिखी जिसमें उन्होंने महिलाओं के मुद्दे पर खुल कर चर्चा की है, कुछ किताब का नाम है Woman under Judaism and Buddhism, Woman under Christianity, Woman under Islam, Woman under different social and religious laws हैं। 1909 में महिलाओं की तालीम के लिए ‘तालीम ए निसवां’ नाम से एक किताब भी लिखा; जिसमें उन्होंने एक बेसिक सेलेबस बना कर एक मॉडल पेश किया; ताके भारतीय उपमहाद्वीप के लोग युरोप का मुक़ाबला कर सकें। इसमें उन्होंने साईंस, मैथ, तिब, जोग्राफ़ी के साथ अंग्रेज़ी पढ़ने पर भी ज़ोर दिया।
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इसके इलावा मुस्लिम सियासत पर उनकी क़लम चली और Muslim interests in Palestine, The Future of the muslim Empire – Turkey, The Sword against Islam or a Defence of Islam’s Standard Bearers, The war and God जैसी किताब लिखी।
मज़हबी आदमी के साथ साथ फ़लसफ़े पर अच्छी पकड़ थी, इतिहास की अच्छी जानकारी थी; जिस नतीजे में The Philosophy of Love, Mohammad the Sign of God, Three Great Martyrs – Socrates, Jesus and Hosain, Miraculous Fish, Sister Religions, Maulud un Nabi, जैसी किताब सामने आई। इसके इलावा मज़हबी और समाजी पसमंज़र को सामने रखते हुवे Polygamy, Divorce, Harem Purdah & seclusion जैसी किताब भी किदवई साहब क़लम से मंज़र ए आम पर आईं।
जब स्वराज पार्टी का क़याम हुआ तब आप 1923 में उसके सदस्य बन गए।आप लम्बे समय तक उत्तर प्रदेश कि असेम्बली के सदस्य रहे; मार्च 1924 में आपको असेम्बली के अंदर सोशलिस्ट ग्रूप का अध्यक्ष चुना गया। 1925 में नामा ए मुशीर नाम से बैरिस्टर मुशीर हुसैन किदवई ने एक ख़ुदनविश्त लिखी, जिसमें उन्होंने अपनी बिमारी का ज़िक्र करते हुवे लिखा है के अब क़लबी हालत ने मजबूर कर दिया है, वर्ना मैं वतन और इस्लाम की मुहब्बत और ख़िदमत में योरप वग़ैरा की ख़ाक़ छान रहा होता। मुस्लिम लीग एक इजलास के लिए लाहौर और असंबली में शिरकत के लिए शिमला जाता; मगर मजबूर हूँ। वो आगे अपनी बात लिखते हैं के वो आठ बरस जिला वतन रहे।
आपका इंतक़ाल 23 दिसम्बर 1937 को 59 साल की उम्र में हुआ। वकालत और सहाफ़त के इलावा शेख़ मुशीर हुस्सैन किदवई की दिलचस्पी जिस चीज़ में सबसे अधिक थी; वो थी बाग़बानी। बाग़ और बग़ीचे का बहुत शौक़ था, आपके इंतक़ाल के बाद बार्नेट डौचेट नाम के एक फ़्रांसीसी बोटनिस्ट ने पीले रंग का एक गुलाब विकसित किया और उसका नाम शेख़ मुशीर हुस्सैन किदवई के सम्मान में किदवई गुलाब रखा।
बैरिस्टर, पत्रकार, लेखक, लीडर के इलावा शेख़ मुशीर हुस्सैन किदवई शायर भी थे। आपने कई नज़्म और ग़ज़ल लिखे। आपकी शायरी आपके मिज़ाज़ की तर्जुमानी करते दिखती है, आपने नबी मुहम्मद (स) और अपने पीर वारिस अली शाह के शान में कई कलाम कहे। नामा ए मुशीर नामक किताब में आपकी ग़ज़ल को पढ़ा जा सकता है।