मोईनउद्दीन अहमद की पैदाइश 30 शाबान 1339 हिजरी यानी 1921 को बिहार के अरवल क़स्बे में हुआ था, उस समय अरवल गया ज़िला का हिस्सा था। उन्होंने शुरुआती तालीम क़स्बे के ही प्राइमरी और मिडिल स्कूल में हासिल की, फिर 1935 में आगे की पढ़ाई के लिए कलकत्ता गए, इस्लामिया हाई स्कूल से 1939 में मैट्रिक का इम्तेहान पास किया। और इस्लामिया कॉलेज कलकत्ता में दाख़िला लिया। 1941 में उनके हालात कुछ ऐसे हो गए के मजबूरन पढ़ाई छोड़ कर कलकत्ता में ही नौकरी करनी पड़ी।
कलकत्ता में क़याम के दौरान अल्लामा ज़मील मज़हरी की सरपरस्ती में रहने का मौक़ा मिला; ये वो दौर था जब अल्लामा मज़हरी का मकान इल्म ओ अदब और शेर ओ शायरी का मरकज़ हुआ करता था। उसका असर मोईनउद्दीन अहमद पर भी हुआ था, वो भी शेर ओ शायरी करने लगे थे। नौकरी के दौरान अपने कलीग तौहीद अज़ीमाबादी की सोहबत में रहने के बाद, शेर ओ शायरी और निखार आया। मोईन तख़ल्लुस रखा और अपने नाम के साथ अपने वतन का नाम जोड़ा और दुनिया में “मोईन अरवली” के नाम से जाने गए।
1942 में उनका दफ़्तर कलकत्ता से दिल्ली शिफ़्ट हो गया, तो आप भी दिल्ली चले गए। सितम्बर 1946 में बिहार भयानक फ़साद हुआ, लाखो लोग बेघर हुवे; और इसी बीच मुल्क का बँटवारा हो गया। फ़साद से पीड़ित लोग बड़ी तेज़ी से बंगाल और कराची की तरफ़ बसने लगे; अफ़रा तफ़री के आलम में 18 अगस्त 1947 को मोईनउद्दीन अहमद भी कराची पहुँच गए। यहाँ बस जाने की काफ़ी दिन बाद आपको आगे पढ़ाई करने का मौक़ा मिला और आपने अपनी अधूरी पढ़ाई मुकम्मल की। 1958 में इस्लामिया कॉलेज कराची से बीए किया; और यहीं की लॉ फ़ैकल्टी से 1964 में वकालत का इम्तहान पास किया।
वतन से दूर होने के बाद भी कभी वतन को नही भूले; चाहे कलकत्ता हो, या दिल्ली वतन को याद रखा और कराची में तो वतन के नाम से ही जाने गए। मोईन अरवली ने वतन की याद में एक नज़्म ‘अरवल’ के नाम से लिखा, जिसमें उन्होंने अपने दिल के दर्द का बयान कुछ इस तरह किया :
अरवल वोह एक क़स्बा जो क़ुर्ब ए गया में है
ख़ुशबू गुल ए बेहिश्त की जिसकी फ़िज़ा में है
मग़रिब में उसके सोन तो मशरिक़ में नहर भी
आब ए हयात यानी, जहां का है ज़हर भी
है जिसकी सुबह, सुब्ह बनारस से ख़ुशनुमा
वह शाम उसकी, शाम ए अवध जिस पे है फ़िदा
शर्मिंदा जिससे हुस्न भी है काशमीर का
था रहने वाला मैं उस जन्नत ए नज़ीर का
तक़दीर खींच लाई कहां से कहां मुझे
शायद मेरा ख़मीर ही लाया यहां मुझे
बाद अज़ क़याम ए पाक कराची में हूं मुक़ीम
अब तक न मिल सकी है, दिले राह ए मुस्तक़ीम