कवि नज़रुल इस्लाम : मस्जिद में अज़ान देने वाला शख़्स जो बांग्लादेश का राष्ट्र कवि बना!

कवि नज़रुल इस्लाम, जिन्हें विद्रोही कवि भी कहा जाता है! बचपन में जब नज़रुल इस्लाम एक मस्जिद में अज़ान देते थे तो शायद ही किसी ने सोचा होगा कि एक दिन ये बांग्लादेश का राष्ट्र कवि बन जाएगा!

नज़रुल इस्लाम की यौम ए विलादत 28 मई 1899 है, प्रथम विश्व युद्ध में ब्रिटिश आर्मी की तरफ़ से लड़ने वाले नज़रुल कभी ब्रिटिश साम्राज्य के आलोचक भी बन जाएँगें ये भी शायद ही किसी ने सोचा होगा! जिस ब्रिटिश साम्राज्य के लिए उन्होंने वर्दी पहनी थी एक वक़्त ऐसा भी आया कि उसी साम्राज्य के ख़िलाफ़ कविता लिखने लगे! उनके इस काम ने उन्हें जेल भी पहुँचा दिया।

नज़रुल इस्लाम ने सिर्फ़ कविता ही नहीं लिखी, शार्ट स्टोरीज़, नॉवेल और अपने लेख के ज़रिए फ़ासीवाद, ज़ात पात, बेटा बेटी में भेदभाव जैसी हर कुरितीयों पर असरदार प्रहार किया ! बंगला ज़बान में ग़ज़ल लिखने वाले नज़रुल इस्लाम पहले कवि थे! नज़रुल इस्लाम अपने कविता में उर्दू फ़ारसी के शब्दों का भी खुब इस्तेमाल करते थे! नज़रुल इस्लाम की कविता ने जहाँ ब्रिटिश सरकार के ख़िलाफ़ लोगों के दिलों में ग़ुस्से की लहर को भरने का काम किया वहीं नज़रुल की कविता ने बांग्लादेश के निर्माण में भी अपनी भूमिका निभाता रहा!

नज़रुल ने फ़िल्मी दुनिया में भी काम किया और नवाब सिराज उददौला की बायोग्राफ़ी पर फ़िल्म भी बनाई, नज़रुल ने ब्रह्मा समाज से जुड़ी प्रमिला देवी से शादी की जिसके बाद दोनों तरफ़ नज़रुल को आलोचना सुनने के मिली! नज़रुल ने चार हज़ार से ज़्यादा गीत लिखे जो ‘नज़रुल गीत‘ नाम की किताब में जमा है।

रबिंद्र नाथ टाईगोर की मौत के बाद नज़रुल ने उनके बिछड़ जाने पर कविता लिखी, और बहुत जल्द एक एैसी बीमारी में मुबतला हो गए कि बाक़ी की जिंदगी उस बीमारी में ही काटनी पड़ी ! उनकी बिमारी ने उनसे बोलने की सलाहियत छीन ली! नज़रुल की बीमारी का असर उनके फ़ायनेंसियल कंडीशन पर भी पड़ा, उसके बाद नज़रुल का परिवार राँची आ गया।

होमियोपैथी और आयुर्वेद की अनथक कोशिश हुई मगर नज़रुल ठीक नहीं हो पाए, उन्हें इलाज के लिए लंदन भी भेजा गया लेकिन कोई कामयाबी हासिल नहीं हुई नज़रुल वापस कलकत्ता आ गये, 1962 में प्रमिला का देहांत हो गया, और नज़रुल बीमारी से जूझते रहे।

1971 में बांग्लादेश का वुजूद आया, बांग्लादेश की सरकार ने भारत की सरकार से आग्रह किया कि वो नज़रुल को बांग्लादेश शिफ़्ट कर दें, दोनों देश के समझौते के बाद नज़रुल बांग्लादेश चले गए! 1974 में नज़रुल ने अपने बेटे को भी खो दिया! फिर एक दिन एैसा भी आया कि तीस साल से ज़्यादा बीमारी से जुझने के बाद नज़रुल भी इस दुनिया को 29 अगस्त 1976 को अलविदा कह गए!

नज़रुल तीस साल बीमार रहे लेकिन उनकी लिखी हुई हर कविता, हर गीत उनकी आवाज़ बन कर गुंजती रही ! नज़रुल की मौत पर बांग्लादेश में जहाँ दो दिन का राष्ट्रीय शोक मनाया गया, वहीं हिन्दोस्तान की पार्लियामेंट में एक मिनट का मौन रखा गया, दुनिया में बहुत कम लोग एैसे हुए होगें जहाँ एक इंसान को दो मुल्कों का प्यार और सम्मान मिले, नज़रुल उन गिने चुने लोगों में से थे।