गंगा किनारे बसा हुआ बिहार का तारीख़ी शहर मुंगेर कई कारणों से अहम है। शहर के किनारे पर क़िला है, क़िला के दक्षिण दरवाज़े से बिल्कुल सटा हुआ एक मज़ार है। ये मज़ार हज़रत पीर शाह नाफ़ा का है।
1926 ई० में छपे गैज़ेट में शाह नाफ़ा का ज़िक्र मिलता है। 1176ई० में ख़्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती रह० के कहने पर पीर साहब मुंगेर में आ बसे थे। ये ख़्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती के उन ख़लीफ़ाओं में से थे जिनको देश के कोने कोने में समाज सुधार और इस्लाम के प्रचार प्रसार के लिए भेजा गया था।
मुंगेर पहुंचने के एक साल बाद वफ़ात पा गए। एक लंबे अरसे के बाद जब बंगाल के सूबेदार नवाब दानियाल ने क़िले की मरम्मत के लिए तामिरी काम शुरू करवाया तो दक्षिण दीवार का एक हिस्सा बार बार ढह जाता। फिर एक दिन उन्हें ख़्वाब में ज़ियारत नसीब हुई।
खुदाई के बाद एक क़ब्र मिली, जिसमे से नाफ़ा (कस्तूरी) की ख़ुशबू आ रही थी। यह कब्र उन्ही शाह नाफ़ा की थी जिनका असल नाम अबू उबैद था। ये दरअसल फ़ारस से सफ़र करते हुए हिंदुस्तान आए थे। आज भी देश के कोने कोने से हर धर्म के लोग इस मज़ार पर अक़ीदत के फूल चढ़ाने आते हैं। मुंगेर शहर की पहचान में इसका बड़ा दख़ल है।
इस मज़ार के लिए शाही फ़रमान अरबी में लिखा हुआ है और उस पर शाही मुहर लगी हुई है। इस मज़ार की देखभाल भी शाही ख़ज़ाने से होती थी। मज़ार पर अरबी कतबा आज भी नसब है जिसे ज़ायरीन आराम से देख सकते हैं।