ऑस्ट्रेलिया में लगी आग ने करोड़ों जंगली जानवरों को मौत के घाट उतार दिया है. जानवरों को बचाने और आग पर क़ाबू पाने के लिए बड़े पैमाने पर रेस्क्यू ऑपरेशन चलाया जा रहा है. इससे जुड़े कई विडियोज़ और तस्वीरें सोशल मीडिया पर वायरल हो रही हैं. इसी बीच ऑस्ट्रेलिया से ही एक रिपोर्ट आई है, जिसमे ग्लोबल वार्मिंग का ज़िम्मेदार ठहराते हुवे और अधिक पानी पीने की वजह से 10 हज़ार से अधिक जंगली ऊंटों को मारने का आदेश दिया गया है. इसे सूखे की समस्या से निपटने कि तरकीब के तौर पर देखा जा रहा है.
इससे पहले भी प्रोफ़ेशनल शूटर हेलीकॉप्टर के ज़रिए बड़ी तादाद में कंगारूवों को मौत के घाट उतार चुके हैं, क्योंकि वो खेतो को नुक़सान पहुंचाते थे; ठीक वैसे ही जैसे भारत में नीलगाये खेतों में घुस जाते हैं. ये ह्यूमन नेचर है, हर चीज़ को अपने हिसाब से जस्टिफ़ाई कर जाते हैं, किसकी मौत मांगनी है, और किसके लिए मातम करना है. बहरहाल, ऊंट से याद आया के भारत का ऑस्ट्रेलिया से जो सम्बंध बना है, उसमे ऊंट का एक बड़ा रोल है. बात उस ज़माने कि है जब भारतीय उपमहाद्वीप अंग्रज़ों का ग़ुलाम था.
1606 में ऑस्ट्रेलिया पहुँचे डच नाविक विलेम जैन्सज़ून यहाँ निर्विरोध उतरने वाले योरप के पहले इंसान थे. इसके बाद यूरोपीय खोजकर्ता लगातार यहाँ आते रहे. 1770 में जेम्स कुक ने ऑस्ट्रेलिया की पूर्वी तट और न्यू साउथ वेल्स का नक़्शा खींच, इसे ब्रिटेन का उपनिवेश बनाने की पहल कि, जिसके बाद स्थाई रूप से उपनिवेश की स्थापना करने के लिए ब्रिटिश जहाज़ों का पहला बेड़ा जनवरी 1788 में सिडनी पहुँचा और उन्नीसवीं सदी के आख़िर तक उन्होंने यहाँ के अधिकतर हिस्सों पर कब्ज़ा कर लिया.
इसके बाद अंग्रेज़ों ने अपनी कॉलोनी बसाई, साथ ही ऑस्ट्रेलिया के अंदुरनी इलाक़े का पता करने के लिए उनके खोजकर्ता लगातार लगे रहे, जिनका सामान घोड़ा, गधा और खच्चर से ढोया जाता था, जो एक बहुत महंगा और मुश्किल सौदा था, ये जानवर ऑस्ट्रेलिया के जियोग्राफ़ीयाई कंडीशन में ख़ुद को सही नहीं ढाल पा रहे थे और मर जाते थे. इन जानवरों कि देख भाल के लिए भारतीय उपमहाद्वीप से लोगों को एक नौकर कि हैसियत से ऑस्ट्रेलिया लाया गया. 1838 में जॉन और जोसेफ़ अपने साथ 18 अफ़ग़ान ले कर आये थे, ये भारत के ऑस्ट्रेलिया के साथ रिश्ते कि शुरुआत थी.
जानवरों वाली ये परेशानी 1840 में उस समय दूर हुई जब ऑस्ट्रेलिया के इस खोज मुहिम में सामान ढोने के लिए घोड़े, गधे और खच्चर कि जगह ऊंट लाया गया. फ़िलिप्स भाइयों ने 1840 में मोरक्को के इलाक़े से ऊंट मंगवाया.
12 अक्तुबर 1840 को ऑस्ट्रेलिया कि साहिल पर सिर्फ़ एक ऊंट ही पहुंच सका, लम्बे सफ़र कि वजह कर बाक़ी 6 ऊंट रास्ते में ही मर गए. बचने वाले उस एक ऊंट को ऑस्ट्रेलिया कि धरती पर ‘हैरी’ के नाम से जाना गया. चुंकि ऊंट रेगिस्तान के इलाक़े में आसानी से रह लेता है, इसलिए 1846 तक कई मुहिम में इस ऊंट ने हिस्सा लिया. चुंकि ऊंट अफ़्रीकी इलाक़े से आ रहे थे इसलिए 1859 तक ऑस्ट्रेलिया में इस काम के लिए सिर्फ़ 7 ऊंट ही इम्पोर्ट किया जा सका. या ये कहये के लम्बे सफ़र को झेल कर सिर्फ़ इतने ही ऊंट ज़िंदा ऑस्ट्रेलिया पहुँच सके.
पर 1857 में भारत पर मुकम्मल कब्ज़े के बाद, जॉर्ज जेम्स जो कि भारत में घोड़े बेचने का काम करता था, को 1858 में विक्टोरियन खोज समिति द्वारा ऊंट ख़रीदने और ऊंटसवारों को ऑस्ट्रेलिया लाने का ठेका दिया गया. 6 जून 1860 को कराची से 3 ऊंटसवारों का एक जथ्था, जिसमे 2 मुसलमान और एक हिन्दू थे, 24 ऊंटों के साथ मेलबॉर्न पहुंचता है, जिन्हे विल्स और बुर्के के साथ एक मुहिम पर लगाया जाता है, इस मुहिम का बहुत ही बुरा अंजाम होता है, इसमे विल्स और बुर्के तक कि मौत हो जाती है, पर इसमें ऊंट और ऊंट सवारों ने ख़ुद को साबित किया के वो बुरे से बुरे हालात में भी ख़ुद को महफ़ूज़ रख सकते हैं. इसके बाद 1866 में सैमुएल स्टकि कराची से 100 ऊंट के साथ 31 ऊंटसवार ले कर ऑस्ट्रेलिया पहुंचते हैं. इसके बाद देखते ही देखते 10 साल के भीतर 3000 से अधिक ऊंटबान अपने ऊंट के साथ ऑस्ट्रेलिया पहुंच जाते हैं.
अगर्चे ऊंटसवारों में हर नस्ल के लोग थे, पर 19वीं सदी के आख़िर और 20वीं सदी के शुरुआत तक ऑस्ट्रेलिया में अधिकतर ऊंटबान को ‘अफ़ग़ान’ या ‘ख़ान’ के नाम से जाना था; जबकि 1860 से 1930 तक ऊंटसवार के रूप में पश्तून, पंजाबी, बलूची, सिंधी, कश्मीरी, राजिस्थानी के इलाव फ़ारस, मिस्त्र और तुर्की के लोगों ने भी अपनी सेवाएं दी थीं. 1860 के जून महीने में दोस्त मोहम्मद के साथ सबसे पहले अफ़ग़ान ऊंटसवारों एक जहाज़ पर दर्जनों ऊंट लेकर मेलबॉर्न पर उतरता है. और ये ऑस्ट्रेलिया में बसने वाले शुरुआती मुसलमानो में से हैं. इन लोगों ने कई मुहिम पर काम किया, जिसमे कई जानलेवा भी थे, दोस्त मोहम्मद भी ज़ख़्मी हुवे थे, जिनका इंतक़ाल 1885 में हुआ, और ऑस्ट्रेलिया कि ज़मीन के नीचे दफ़न कर दिया गया.
मोटर गाड़ी से पहले इन ऊंटों का उपयोग सामान के साथ इंसान ढोने के लिए किया जाता था, ये बुरे से बुरे हालात में भी काम कर लेते थे. 1850 से 1900 तक ऑस्ट्रेलिया को मॉडर्न बनाने में जितने भी काम हुए उसमे ऊंटबानो का बड़ा रोल रहा है, टेलीग्राफ़ के तार बिछाने से ले कर रेलवे कि पटरी कर लगाने में एक बड़ा रोल अदा किया. कोयले कि ख़ान हो या बड़े लठ ढोने का काम ऊंटसवारों आसानी से कर लिया करते थे. इसके लिए इन्होंने अपने कारवांसराय डेवलप किए. पुलिस ने पेट्रोलिंग के लिए ऊंट का उपयोग शुरू किया.
ऑस्ट्रेलिया आने वाले अधिकतर ऊंटसवार 2-3 साल के कॉन्ट्रैक्ट पर अकेले आते थे, उनके बीवी बच्चे पीछे रह जाते थे, कॉन्ट्रैक्ट पूरा कर ये वापस अपने मुल्क लौट जाते थे. ऑस्ट्रेलिया में इन ऊंटसवारों के साथ योरप के लोग बहुत अच्छा बर्ताव नहीं करते थे, या तो इन्हे ऊंट को पालने वाली जगह पर रहने को कहा गया, या फिर शहर के सरहद पर. इस तरह शहर में तीन आबादी वाली इलाक़े हो गए, एक पॉश जो योरप वालों के लिए था, बाक़ी दो लोकल ऑस्ट्रेलिया के आदिवासी और ऊंटसवारों का था. ऊंटसवारों का इलाक़ा अफ़ग़ान या ख़ान टाउन के नाम से भी जाना गया, यही समाजी फ़र्क़ इनके क़ब्रिस्तान में भी था.
ऊंटसवारों ने ख़ान टाउन में मस्जिद भी आबाद कि, ये जगह न सिर्फ़ इबादत के लिए थी, बल्कि ये उनमे समाजिक भावना भी उत्पन्न करती थी, क्योंके ऑस्ट्रेलिया उनके लिए बिलकुल ही नई जगह थी. 1861 में पहली मस्जिद कि बुनियाद साउथ ऑस्ट्रेलिया के मर्री में डाली गई थी, उस समय मर्री ऑस्ट्रेलिया के सबसे अहम् इलाक़ा था जहाँ से ऊंट का गुज़र होता था. उस समय इस इलाक़े को लिटिल एशिया और अफ़ग़ानिस्तान के नाम से जाना जाता था.
इसी बीच ऑस्ट्रेलिया में कुछ ऊंटबानों ने अपनी ख़ुद कि ऊंट कि कंपनी खोल कर बहुत नाम कमाया; जिनमें अब्दुल वाहिद का नाम बड़े इज़्ज़त से लिया जाता है, वाहिद 1879 में फैज़ और तेग़ मोहम्मद के साथ ऑस्ट्रेलिया पहुंचें थे. वाहिद 1893 में न्यू साउथ वेल्स के बॉर्के में जा बसे और वहीं से ऊंट इम्पोर्टे करना शुरू किया और साथ ही बड़े पैमाने पर अपनी कंपनी के लिए अफ़ग़ान ऊंटबान को ऑस्ट्रेलिया बुलाया. इसके इलावा ऊंट को पालने का भी काम शुरू हुआ, बड़े बड़े फ़र्महॉउस खुलने लगे, जिसके बाद बाहर से आने वाले ऊंट कि मांग कम होने लगी.
वैसे भी 1901 में इमिग्रेशन रिस्ट्रिक्शन एक्ट के बाद ‘वाइट ऑस्ट्रेलियन पालिसी’ के तहत घर लौटे ऊंटसवारों को वापस ऑस्ट्रेलिया नहीं आने दिया गया. जो बचे थे उनके साथ भी अच्छा सलूक नहीं किया गया. 1903 में 500 भारतीय और अफ़ग़ानी लोगों कि तरफ़ से एक पेटिशन भारत के वाइसरॉय लार्ड कर्ज़न को दिया गया, पर कोई सुनवाई नहीं हुई.
वाइट् ऑस्ट्रेलिया पालिसी कि वजह कर अब इन ऊंटसवारों को ऑस्ट्रेलिया कि नागरिकता नहीं मिल सकी; उनके कई हक़ छीने गए, हलाल गोश्त पर पाबंदी लगा दी गई. मुल्ला अब्दुल्लाह जो ऊंट सवार के साथ इमाम भी था, ने कई बार इसके ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई और हलाल गोश्त के लिए भेड़ ज़बह किया, जिस वजह कर उस पर कई जुर्माना किया गया. क़साइयों को लोकल लॉबी और यूनियन से झगड़े शुरू हो गए. इस बीच 1914 में पहली जंग ए आज़ीम भी शुरू हो गई, मुल्ला अब्दुल्लाह ने गुल बादशाह मोहम्मद नाम के एक अफ़रीदी ऊंट सवार के साथ मिल कर उस जर्मन प्रोपगैंडा का हिस्सा बने जिसमे तुर्की के सुल्तान के लिए लड़ने हर मुसलमान फर्ज़ क़रार दिया गया. मुल्ला अब्दुल्लाह और गुल बादशाह मोहम्मद ने 1 जनवरी 1915 को ब्रोकेन हिल नाम कि जगह पर आइसक्रीम कि गाड़ी कि मदद से एक ट्रैन पर हमला कर दिया, इसमें ट्रैन के 4 सवार मारे गए और 7 घायल हुवे, पुलिस ने इन दोनों को भी मौत के घाट उतार दिया, इस वाक़िये ने 15 फ़रवरी 1915 को सिंगापूर में हुवे ग़दर पार्टी के उस कारनामे को हवा दी जिसके बाद अंगेज़ों कि तरफ़ से लड़ने वाले भारतीय सिपाहियों ने बग़ावत कर दी.
वाइट् ऑस्ट्रेलिया पालिसी कि वजह कर 1920 के बाद मुस्लिम के रूप में अल्बानिया के लोग ही ऑस्ट्रेलिया में नागरिकता पा सके थे. 1952 में, जब एक सर्वे हो रहा था तब एडिलेड कि मस्जिद के आस पास अलबेनियन मुस्लिमों कि मदद से वो पुराने लोग मिले जिन्होंने पगड़ी पहन रखी थी, जिनकी उमर 87 से 117 साल तक थी. ये लोग 1890 के आस पास ऑस्ट्रेलिया ऊंटसवार कि हैसयत से आये थे. आम तौर ऊंटसवार अपने ट्रेडिशनल ड्रेस में रहते थे, सिख भी पगड़ी पहनते थे और पठान भी. ज्ञात रहे के 11 मार्च 1848 को क्रुप सिंह नाम का एक अफ़ग़ान चरवाहा सेविंग बैंक ऑफ़ ऑस्ट्रेलिया में 29 पौंड जमा करने वाला पहला व्यक्ति था. 1929 में एडिलेड से डार्विन तक के बीच शुरू हुई 1,851 मील लम्बी रेलवे लाइन का नाम ‘ग़ान रेलवे’ इन ऊंटसवारों जिनको ऑस्ट्रेलिया में अफ़ग़ान या ख़ान के नाम से जाना जाता था, के सम्मान में रखा गया. ट्रैन को अफ़ग़ान एक्सप्रेस और ग़ान एक्सप्रेस के नाम से भी जाना गया. शुरू शुरू में इंजन कि जगह ऊंट का उपयोग डब्बे को खींचने के लिए हुआ.
1930-40 के आस पास अधिकतर ऊंटसवार उस रेलवे सिस्टम कि वजह कर बेरोज़गार हो गए थे, जिसे इन्होने ख़ुद बनाया था, इनमे से कुछ ऊंटसवार वापस अपने मुल्क लौट गए और जो रहे उन्होंने दूसरा धंदा शुरू कर दिया. इन लोगों ने अपने ऊंटों को आज़ाद कर दिया, उन्ही ऊंट कि नस्ल आज ऑस्ट्रेलिया में जंगली ऊंट बन कर घूम रही, जिन्हे मारने का हुक्म दिया गया है. अब इनकी तादाद लाखो मे हैं.