मौलाना शरफ़ुल्हक़ सिद्दीक़ी के घर 16 अक्तूबर 1914 को एक लड़का पैदा हुआ, जिसका नाम उन्होंने अपने उस्ताद हाजी इमदादुल्लाह मुहाजिर मक्की और रशीद अहमद गंगोही के नाम पर इमदाद उर रशीद रखा।
अक्सर लोग कहते हैं की इंसान की ज़िन्दगी में उसके नाम का असर पड़ता है, और कुछ वैसा ही असर इमदाद उर रशीद की ज़िन्दगी पर भी पड़ा। हाजी इमदादुल्लाह मुहाजिर मक्की और रशीद अहमद गंगोही ने जिस तरह 1857 और उसके बाद हिंदुस्तान में इंक़लाब बपा किया, ठीक उसी तरह इमदाद उर रशीद ने भी ख़ूब इंक़लाब बपा किया और हिंदुस्तान की आज़ादी की ख़ातिर कई बार जेल की सलाख़ों के पीछे गए। यही लड़का बाद में मौलाना इमदाद साबरी के नाम से दुनिया में मशहूर हुआ।
सियासत की शुरुआत दिल्ली की जामा मस्जिद के शाही इमाम के साथ झगड़े से हुई, 1936 में जब उन्होंने मस्जिद कमेटी के ख़िलाफ़ मोर्चा खोला, आप मस्जिद की सीढ़ियों पर उनके ख़िलाफ़ जलसा करने लगे। इस सिलसिले में 9 जुलाई 1937 को दफ़ा 107 के तहत शांति भंग करने के जुर्म में इमदाद साबरी गिरफ़्तार हुवे। हज़ार रुपय की ज़मानत पर बाहर आए।
इधर शाही इमाम को लेकर कुछ चीज़ों पर अख़बार बाज़ी हो गई, जिसके बाद शाही इमाम ने दफ़ा 500 के तहत मुक़दमा दर्ज करवा दिया, और ये मुक़दमा लम्बा चला। 2 जनवरी 1939 को इस केस से बरी हुवे। इधर 1937 में इमदाद साबरी कांग्रेस से जुड़े और दिल्ली कांग्रेस कमेटी के सचिव बने।
कांग्रेस से उनकी नज़दीकी की कहानी भी बड़ी अजीब है, इमदाद साबरी कोई 16 साल के रहे होंगे, उसी समय 1930 का नमक आंदोलन चल रहा था, पुरानी दिल्ली के कोतवाली के सामने से कांग्रेस का जुलूस जा रहा था, जिसे देखने इमदाद साबरी भी पहुँचे, इसी बीच कांग्रेस के रज़ाकारों का पुलिस से टकराव हो गया, पुलिस ने लाठी बरसाना शुरू कर दिया, इस में पुलिस के ज़ुल्म का शिकार इमदाद साबरी भी हो गए, पुलिस ने उनके सर पर लाठी से वार किया, वो काफ़ी देर तक सड़क पर बेहोश पड़े रहे। बाद में राहगीरों ने आपको आपके घर पहुँचाया।
इमदाद साबरी ने आलिम और फ़ाज़िल बन चुके थे, उनके वालिद उन्हें मिस्र के जामिया अज़हर भेजना चाहते थे, पर इसी बीच उनका इंतक़ाल 28 जनवरी 1936 को हो गया। जिसके बाद घर की सारी ज़िम्मेदारी इमदाद साबरी पर आ गई। पर आप लगातार समाजी और सियासी कामों में लगे रहे।
22 जुलाई 1938 को हड़ताल करवाने के जुर्म में गिरफ़्तार किए गए और पिछला जमा किया हुआ ज़मानत ज़ब्त कर लिया गया। इमदाद साबरी सुभाष चंद्रा बोस के सबसे वफ़ादार साथियों में से थे, और 1938-39 में नेताजी को वापस कांग्रेस का अध्यक्ष बनाने में बहुत ही अहम रोल अदा किया था। हरिपुरा सेशन में आपसे कई लोग बड़े कांग्रेसी नेता नाराज़ हो गए क्यूँकि आपने बड़ी बेबाकी से नेताजी का साथ दिया।
कांग्रेस से अलग होकर जब नेताजी ने फ़ॉर्वर्ड ब्लॉक बनाया तब आप मौलाना नूरउद्दीन बिहारी के साथ ख़सूसी तौर पर नेताजी से मिलने गए। आप को एक बार फिर से 5 अगस्त 1939 को फ़ॉर्वर्ड ब्लॉक का जलसा करने के जुर्म में गिरफ़्तार किया गया, ज़मानत देने से इंकार किया तो छः माह की क़ैद की सज़ा हो गई।
अप्रैल 1940 में इमदाद साबरी को दिल्ली में हुवे ऑल इंडिया आज़ाद मुस्लिम कॉन्फ़्रेन्स में इंक़लाबी पर्चे बाँटने के जुर्म में फिर से गिरफ़्तार किया गया, मुक़दमा लम्बा चला, पर कोई सज़ा नही हुई। इसके बाद सरकार के हुक्म पर दिल्ली मुंसिपेल्टी ने दिवार पर पोस्टर चिपकाने के लिए इमदाद साबरी पर मुक़दमा दायर करवा दिया, इस केस में भी बरी हुवे।
इमदाद साबरी लगातार अपनी मुहीम में लगे रहे। भारत छोड़ो आंदोलन के समय 15 अगस्त 1942 को इमदाद साबरी डिफ़ेंस ऑफ़ इंडिया ऐक्ट के तहत गिरफ़्तार कर लिए गए और 15 माह क़ैद रहने के बाद 30 नवम्बर 1943 को दिल्ली जेल से रिहा हुवे। पर आप पर कई तरह की पाबंदी आयद कर दी गई।
आपको नोटिस दिया गया के आप किसी भी सियासी जलसे में शामिल नही हो सकते हैं। न ही आप दस आदमी से ज़ियादा वाले मजमे में शरीक हो सकते हैं, कुल मिला कर एक मख़सूस इलाक़े में आपको नज़रबंद किया गया। आपको इस से कारोबार में काफ़ी नुक़सान हुआ। फ़रवरी 1945 में इमदाद साबरी को नज़रबंदी तोड़ने के जुर्म में गिरफ़्तार किया गया।
इधर दिल्ली में आज़ाद हिंद फ़ौज के सिपाही आ चुके थे, अगस्त 1945 के आख़िर में मौलाना इमदाद साबरी को एक बार फिर से गिरफ़्तार किया गया। उनपर इल्ज़ाम था के उन्होंने सुभाष चंद्रा बोस के जापानी साथियों कि मदद की और उनकी अपने घर पर मेज़बानी की और उनको स्टेशन पहुँचाने का इंतज़ाम किया। चूँकि लाहौर हाई कोर्ट में दिल्ली हुकूमत के ख़िलाफ़ इस गिरफ़्तारी को चैलेंज किया गया, जिसके बाद मजबूरन आपको रिहा किया गया। केस चलता रहा और नज़रबंदी 1947 तक मुल्क की आज़ादी तक लगातार क़ायम रही।
इस दौरान जब वो दिल्ली जेल में क़ैद थे, उसी वक़्त पाँच आज़ाद हिंद फ़ौज के सिपाही भी जेल में क़ैद थे, जिन्हें मौत की सज़ा हुई थी, जिनका नाम कनौल सिंह, सुजीत राय, सरदार करतार सिंह, श्रीभागवत गौतम उपाध्याय और राम दुलारे था। इनको अपनी दफ़ा करने के लिए वकील तक करने की इजाज़त नही थी। उन लोगों से जेल में इमदाद साबरी मिले, इसके बाद इमदाद साबरी ने इस मामले को मंज़र ए आम पर लाया, जिसके बाद बाहर से लोगों ने हुकूमत पर दबाव डाला और इन लोगों की फाँसी कि सज़ा टली। 1947 में मिली आज़ादी के बाद ये पाँचो क़ैदी जेल से छूट कर सबसे पहले इमदाद साबरी से मिले।
नज़रबंदी के दौरान भी मौलाना इमदाद साबरी ख़ामोश नही रहे, आपने किताब लिखना शुरू किया। आपने “सुभाष बाबू के साथी” नाम से एक किताब दिसंबर 1946 में लिखा, जिसे उन्होंने महान क्रांतिकारी लाला हनुमंत सहाय और उनके उन शहीद साथियों के नज़र किया, जिन्हें 1915 में फाँसी पर लटका दिया गया था, ये नाम अवध बिहारी, मास्टर अमीर चंद, बाल मुकुंद और बसंत कुमार बिस्वास है। इसके इलावा आपने नेताजी सुभाष चंद्रा बोस की तक़रीर को एक जगह जमा कर किताब की शल्क दी।
तारीख़ ए आज़ाद हिंद फ़ौज, मुक़दमा आज़ाद हिंद फ़ौज, आज़ाद हिंद फ़ौज का अल्बम, सुभाष बाबू की तक़रीरें, सुभाष बाबू जापान किस तरह गए जैसी किताबें लिख कर नेताजी सुभाष चंद्र बोस और आज़ाद हिंद फ़ौज के कारनामों को आम करने की कोशिश की। इमदाद साबरी ने नेताजी की हवाई यात्रा में मौत के वाक़िये पर कभी यक़ीन नही किया, हसरत मोहानी से बात चीत में इस बात का ज़िक्र अक्सर होता था।
मौलाना इमदाद साबरी का इंतक़ाल 1 अक्तूबर 1988 को 74 साल की उम्र में दिल्ली में हुआ।
नोट ~ मौलाना इमदाद साबरी के जीवन के कई आयाम हैं, उन्होंने बहुत से कारनामों को अंजाम दिया, कई मौज़ु पर किताबें लिखीं, सियासत में हिस्सा लिया, कई तहरीक में शामिल रहे, उनकी शख़्सियत को एक लेख में समेटना नामुमकिन है। यहाँ उनकी आज़ादी की लड़ाई में जद्दोजहद पर रौशनी डालने की कोशिश की गई है।