बाढ़ से विस्थापित हुवे लोगों के लिए नया शहर बसाने वाले शाह मोहम्मद उमैर

शाह मोहम्मद उमैर का जन्म 1903 में बिहार के अरवल ज़िले में हुआ था। पिता का नाम अशफाक शाह अश्फ़ाक हुसैन था, जो इलाक़े के एक बड़े जमींदार थे। साथ ही अंग्रेज़ों के मुलाज़िम भी थे, काफ़ी उंचे ओहदे पर थे, जहानाबाद में पोस्टेड थे।

चूँकि ख़ुद भी पढ़े लिखे थे, और उन्हें पढ़ाई लिखाई का बहुत शौक था। इसलिए उन्होंने अपने सभी बच्चों को उस समय पटना के सबसे अच्छे स्कूल टी.के.घोष अकेडमी में पढ़ने भेजा। बड़े बेटे शाह मोहम्मद ज़ुबैर को बैरिस्टरी करने के लिए इंग्लैंड भेजा।

शाह मुहम्मद उमैर ने शुरुआती तालामी घर पर हासिल कर टी.के.घोष अकेडमी पटना गए और वहाँ से उन्होने मैट्रिक पास किया। इसके बाद आगे की पढ़ाई पटना कॉलेज और बिहार नैशनल कॉलेज से किया।

1911 में बड़े भाई शाह मोहम्मद ज़ुबैर बैरिस्टरी कर बिहार लौटे और पटना में प्रैक्टिस करने लगे। उन्ही के साथ 1912 में बांकीपुर में हुवे कांग्रेस के सालाना अधिवेशन में एक छात्र के रूप में हिस्सा लिया। शाह मोहम्मद ज़ुबैर अधिवेशन के आयोजन समिति के हिस्सा थे। बड़े भाई की सरपरस्ती में यहीं से शाह मोहम्मद उमैर के अंदर राष्ट्रवादी भावना जागृत हुई।

अरवल के जिस इलाक़े में शाह मुहम्मद उमैर का जन्म हुआ वो 1857 की क्रांति का गढ़ था। बचपन से उस इंक़लाब की कहानियाँ सुनते आ रहे थे। ये तमाम कहानियाँ उन्हें बहुत रोमांचित किया करती थी। पहली बार 1919 में उस समय खुल कर आंदोलन में हिस्सा लेना शुरू किया, जब गांधीजी और अली बंधुओं ने असहयोग और ख़िलाफ़त आंदोलन की शुरुआत की। कांग्रेस की सदस्यता ली और अपनी मौत इसके सक्रिय सदस्य रहे। तिलक स्वराज और अंगोरा फ़ंड के बड़ी संख्या में राशि जुटाई; जिसमें आपके परिवार महिलाएँ भी आगे आगे थीं।

आप सक्रिय रूप से सियासत में हिस्सा लेने लगे। 1921 से 1929 तक जहानाबाद परिषद के उपाध्यक्ष रहे। फिर 1924 से 1929 तक गया ज़िला बोर्ड के सदस्य रहे। 1929-30 तक अरवल के युनियन बोर्ड के अध्यक्ष रहे और 1930 में सविनय अवज्ञा आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाते हुवे बिक्रम, खगौल, अमहरा और नौबतपुर जैसे कई इलाक़े का दौरा किया, लोगों आंदोलन में हिस्सा लेने के लिए प्रेरित किया, आंदोलन में तेज़ी आ गई, पर अंग्रेज़ों ने आपको गिरफ़्तार कर लिया, और आप लम्बे समय तक जेल में रहे; जब आप जेल में थे तब आपके राजनीतिक गुरु और बड़े भाई शाह मुहम्मद ज़ुबैर का इंतक़ाल मुंगेर में हुआ। जिसका ज़िक्र आपने अपनी किताब तलाश ए मंज़िल में बखूबी किया है।

जनवरी 1934 में भयानक भूकम्प बिहार में आया, हज़ारों लोगों की मौत हुई। तब डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद के साथ मिल कर भूकम्प प्रभावित लोगों भरपूर मदद की। पर आपने जो काम आपने अबाई वतन अरवल में की उसकी सराहना तो उस समय के गवर्नर सर एडवर्ड गेट से लेकर यूरोप और अमरीका तक के विद्वानो ने की।

हुआ कुछ यूँ के 1934 में आया था भूकम्प, उससे जो नुक़सान होना था; सो हुआ ही पर असल दिक़्क़त ये हो गया के सोन नदी ने अपना रुख़ बदल लिया; जिससे पूरा जिससे सोन नदी के किनारे बसा अरवल बाढ़ की चपेट में आ गया। अधिकतर घर बह गए, हज़ारों लोग विस्थापित हुवे। उसके बाद शाह मुहम्मद उमैर ने अपने निजी ज़मीन पर नहर के उस पार विस्थापित लोगों को बसाया, वही इलाक़ा उमैराबाद, ताड़ीपर और न्यू अरवल कहलाया। शाह वजीहउद्दीन मिनहाजी ने अपनी डायरी ‘मेरी तमन्ना में’ लिखते हैं :- इस जगह का उद्घाटन करने बिहार के पहले मुख्यमंत्री श्रीबाबू ख़ुद अरवल आए थे। उनके ही सलाह पर वहाँ के मार्केट का नाम ज़ुबैर मार्केट रखा गया; जो ज़माने तक हाट के रूप में कार्य करता रहा। वो आगे लिखते हैं की उनके कहने पर ही सड़क किनारे के एक इलाक़े का नाम शाह मुहम्मद उमैर साहब के नाम पर उमैराबाद रखा गया।

ज्ञात हो के आज अरवल एक ज़िला है, पर पहले अरवल एक छोटा सा क़स्बा हुआ करता था, सोन नदी और नहर के बीच में। सिपाह से बैदराबाद तक। बिल्कुल ही छोटी सी आबादी हुआ करती थी। लोग पटना जाने के लिए नहर का उपयोग किया करते थे, नहर से खगौल उतर कर पटना पहुँचते थे। धीरे धीरे अरवल बड़ा हुआ, और उसके बड़े होने और फैलने के पीछे भी 1934 के भूकम्प और बाढ़ की दुःखदाई कहानी है।

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15 जनवरी 1934 को आए भूकम्प में बिहार की अधिकतर इमारत ढह गई थी, इसलिए आज के डेट में बिहार में जो भी कोलोनियल बिल्डिंग दिखती हैं, उनमें से अधिकतर 1934 के बाद बनी हैं। ठीक इसी तरह अरवल के साथ भी हुआ, के अगर अरवल बाढ़ की चपेट में नही आता तो शायद आज इतना बड़ा नही होता।

अपने कार्य से शाह मुहम्मद उमैर ने अपना सियासी क़द बढ़ा लिया। 1937 में बिहार में चुनाव हुआ, मुस्लिम लीग को मुँह की खानी पड़ी। 1937 में गया नगरपालिका के उपाध्यक्ष बने और 1939 तक इस पद पर रहे। ज्ञात रहे के उस समय जहानाबाद और अरवल गया ज़िले का हिस्सा था।

1939 में बिहार विधानपरिषद के सदस्य बने। और इस पद पर 1951 तक रहे और इस दरमियान 1946 से 1951 के अपने दल के फ़्लोर लीडर और संसदीय सचीव रहे। मार्च 1940 में जब मुस्लिम लीग के लाहौर अधिवेशन में पाकिस्तान की गई तो आपने इसका कड़ा विरोध किया। अपनी किताब तलाश ए मंज़िल में इसे ख़ौफ़नाक और गुस्ताख़ियाना क़दम क़रार दिया। मुसलमानो को कांग्रेस से जोड़ने के लिए पंडित नेहरू द्वारा चलाए जा रहे मुस्लिम मास कांटैक्ट कैम्पेन के आप बिहार हेड थे। पूरे बिहार में लगातार मीटिंग और डोर टू डोर कैम्पेन करते रहे।

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अगस्त का महीना था, सोन नदी अपने उफ़ान पर था। इधर गांधी के क़ौल पर अंग्रेज़ों भारत छोड़ो आंदोलन की शुरुआत हो चुकी थी; बिहार के अधिकतर बड़े नेता गिरफ़्तार किए जा चुके थे। 15 अगस्त 1942 को शाह मोहम्मद उमैर के नेतृत्व में क्रांतीकारीयों ने अरवल को अंग्रेज़ों से आज़ाद करवा लिया। तार और पोस्ट के परिचालन को ठप कर थाने को आग के हवाले कर दिया। और आस पास के तमाम सरकारी दफ़तर पर क़ब्ज़ा कर लिया। अरवल थाना पर क़ब्ज़ा कर झंडा फैराने ने के क्रम में राम कृत सिंह पुलिस की गोली का शिकार हो कर पालिगंज अस्पताल में 15 अगस्त 1942 को आख़री साँस ली।

16 अगस्त को केश्वर राम भी अंग्रेज़ी गोली का शिकार हो कर शहीद हो गए। कई लोग गिरफ़्तार हुवे। जिन पर ख़ूब ज़ुल्म ढाया गया। हवालात में पुलिस के अत्याचार से केश्वर पासवान की मौत 22 अगस्त को हो गई।

पुलिस की दबिश के कारण दर्जनो क्रांतिकारी सोन नदी पार कर छपरा जा निकले। कई गिरफ़्तार हुवे तो कई भूमिगत हो गए।

शाह मोहम्मद उमैर के सबसे क़रीबी साथी रहे शाह वजिहउद्दीन मिनहाजी अपनी डायरी में लिखते हैं कि जैसे ही पता चला की पुलिस गिरफ़्तार करने आ रही है, सोन नदी से नाव के सहारे भुखे प्यासे छपरा जा निकले और वहां कई दिनो तक छुपे रहे।

काफ़ी दबिश होने के शाह मोहम्मद उमैर ने ख़ुद को गया मे सरेंडर कर दिया। फिर उन्हें हज़ारीबाग़ जेल में शिफ़्ट कर दिया गया। लेकिन इधर क्रांति कम होने का नाम नही ले रही थी। कुर्था के रहने वाले श्याम बिहारी लाल 25 अगस्त को वापस झंडा फहराने के क्रम में शहीद हुवे, वहीं वैज़उल हक़ घायल हुवे और कुछ दिन बाद वो भी शहीद हो गए।

1944 में जेल से छूटने के बाद शाह मुहम्मद उमैर लगातार सक्रिय रहे। उन्होंने जेल में किताब लिखी जो ‘तलाश ए मंज़िल’ के नाम से मशहूर हुई। इसके इलावा उन्होंने और भी कई किताब लिखी, जिसमें ‘दीन ए मुहम्मदी’ प्रमुख है।

सितम्बर 1946 में मगध के इलाक़े में बहुत की ख़ूँख़ार मुस्लिम विरोधी दंगा हुआ, मसौढ़ी से लेकर जहानाबाद और कुर्था तक इसका असर हुआ, पर शाह मुहम्मद उमैर का अरवल के इलाक़े में इतना असर था कि उनकी बात हिंदू और मुसलमान दोनो सुना करते थे; इसलिए अरवल में कोई भी फ़साद नही हुआ। पूरी तरह शांति क़ायम रही। दंगे और फ़साद से पीड़ित लोगों की उन्होंने भरपूर मदद की। मार्च 1947 में जब महात्मा गांधी दंगा ग्रसित इलाक़े का दौरा करने निकले तो उनके साथ शाह मुहम्मद उमैर हमेशा रहे।

1954 में भारतीय सांस्कृतिक शिष्टमंडल के सदस्य के रूप में सोवियत संघ का दौरा किया। 3 अप्रैल 1956 को राजसभा सांसद चूने गए और 2 अप्रैल 1962 तक इस पद पर रहे। 9 मई 1970 से लेकर अपनी आख़री साँस तक बिहार विधान परिषद के दो टर्म सदस्य रहे। पहली बार 3 अप्रैल 1970 और दूसरी बार 7 मई 1976 को मनोनीत हुवे।

8 जनवरी 1978 को 75 साल की उम्र में आपका इंतक़ाल हुआ, आपको अरवल में सोन नदी के किनारे आपके आबाई क़ब्रिस्तान में दफ़न कर दिया गया।

Md Umar Ashraf

Md. Umar Ashraf is a Delhi based Researcher, who after pursuing a B.Tech (Civil Engineering) started heritagetimes.in to explore, and bring to the world, the less known historical accounts. Mr. Ashraf has been associated with the museums at Red Fort & National Library as a researcher. With a keen interest in Bihar and Muslim politics, Mr. Ashraf has brought out legacies of people like Hakim Kabeeruddin (in whose honour the government recently issued a stamp). Presently, he is pursuing a Masters from AJK Mass Communication Research Centre, JMI & manages heritagetimes.in.