24 दिसंबर 1880 को बिहार के जहानाबाद ज़िले के पाली गांव मे पैदा हुए सर सैयद सुलतान अहमद भारत के उन चुनिन्दा वकीलों मे से हैं जिन्होने अपने वक़्त के तमाम बड़े वकीलों को हरा दिया और इनसे वकालत मे हारने वालों में “प. मोती लाल नेहरु, सरत चंद्रा बोस, तेज बहादुर सपरु” जैसे कुछ बड़े नाम हैं। वे सैयद ख़ैरात अहमद और बीबी कनीज़ क़ुब्रा की दूसरी संतान थे। 1897 में गया ज़िला स्कूल से पढाई पूरी करने के बाद उन्होंने पटना कॉलेज में दाख़िला लिया। दो वर्ष की पढाई के बाद ही वे इंग्लैंड चले गए। इंग्लैंड से वे एक सफल बैरिस्टर के रूप में 1905 में लौटे। कलकत्ता (अब कोलकाता) हाईकोर्ट में उन्होंने वकालत की शुरुआत की।
सर सैयद को बिहार सरकार का उप विधि परामर्शी नियुक्त किया गया ताकि वे कलकत्ता में वकालत करते हुए बिहार सरकार का भी काम देख सकें। 1916 में उन्होंने सहायक सरकारी वकील के तौर पर पटना हाई कोर्ट में वकालत शुरू की। अगले वर्ष ही सरकार ने उन्हें सरकारी वकील बना दिया गया। 1919 में वे अवर जज बना दिए गए। पर अगले ही साल उन्होंने वह ओहदा छोड़ दिया क्योंकि वहां मिल रही तनख़्वाह से ज्यादा वे वकालत से ही कमा रहे थे।
1916 मे बड़ी तादाद मे तालिब ए इल्म किसी वजह कर पटना मे यूनिवर्सिटी बनाने का विरोध कर रहे थे तब सर सुलतान ने छात्रों से बात की और उन्हे मुतमईन किया और इस तरह वो पटना यूनिवर्सिटी के बानी बने और वोह उसके पहले वाईस चांसलर भी थे और इस ओहदे पर वो 1923 से लेकर 1930 तक बने रहे। उनके दौर में ही पटना यूनिवर्सिटी में साइंस कॉलेज, मेडिकल कॉलेज और इंजीनियरिंग कॉलेज वजुद मे आ सका, जो उनकी एक बज़ी उप्लब्धी थी। वे 1930–1931 में लंदन में हुए गोल मेज़ सम्मलेन में शामिल हुए जिसमे गांधी जी भी गए थे। 1937 में बिहार में मुहम्मद युनुस के क़ियादत मे बनी पहली सरकार में उन्हें एडवोकेट जनरल का ओहदा दिया गया पर कांग्रेस पार्टी के विरोध के वजह कर वे उसे ज्वाइन नहीं कर सके। इसके बदले उन्हें 1937 में ही वाइसराय के एग्जीक्यूटिव कौंसिल में रेलवे और कॉमर्स के सदस्य के तौर पर नियुक्त किया गया।
सर सैयद को हेग के इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ़ जस्टिस के लिए भी चुना गया था, पर दूसरे जंग ए अज़ीम के शुरू हो जाने से वे वहां नहीं जा सके। वे वाइसराय के एग्जीक्यूटिव कौंसिल में बने रहे। बहुतों को इसकी जानकारी नहीं होगी कि नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के साथ उनके रिश्ते बहुत अच्छे थे। बोस जब गंभीर रूप से बीमार पड़े तो वे चुपचाप कलकत्ता जा कर उनकी अयादत कर आये। जबकि तब तक उन्हें ‘सर’ का लक़ब मिल चुका था और इस वजह कर उन्हे ‘मुसलिम लीग’ से निकाल भी दिया गया था जबके कई लीगी नेता थे जिनके पास सर का लक़ब था। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस से मिलने की जानकारी अगर ब्रिटिश सरकार को मिलती तो उनसे ‘सर’ का लक़ब छीन लिया जा सकता था।
1941 में सर सैयद मेंबर इन चार्ज लॉ बनाये गए। इस अवधि में कई महत्वपूर्ण बिल पारित किये गए। हिन्दू इंटेस्टेट सक्सेशन बिल, हिन्दू अंतर – जातीय विवाह बिल इन्ही दिनों पारित हुए। सर सैयद के प्रयासों से ही हिन्दू परित्यक्ता महिला को आवास और गुजारा भत्ता दिए जाने को लेकर संशोधन किया गया। बिल को पारित करवाने के लिए जो बहस सर सैयद ने किया उससे प्रभावित होकर सेंट्रल लेजिस्लेचर के जॉइंट कमिटी के एक हिन्दू सदस्य ने कहा कि सर सैयद तो हिन्दू पंडित हैं।
1943 में सर सैयद इनफार्मेशन एंड ब्राडकास्टिंग के सदस्य बनाये गए। आखिर में वे चैम्बर ऑफ़ प्रिंसेस के सलाहकार बने। वे सिंधया राज घराने के वकील भी रहे और बिहार को एक अलग राज्य बनाने मे इनका एक अहम योगदान है. देश की आजादी के बाद 1948 में वे पटना लौट आये। उन्होंने वकालत को फिर से जमाने की कोशिश की, लेकिन वे सफ़ल नहीं हो सके। बढ़ते ख़र्च ने उन्हें सुल्तान पैलेस छोड़ने को मजबूर किया। वे वापस अपने पुश्तैनी घर पाली चले गए। वहीं 27 फ़रवरी 1963 को उनका इंतक़ाल हो गया।
पटना के वीरचंद पटेल पथ (पहले का गार्डिनर रोड) से गुज़रते हुए लोगों की नजरें ख़ुद बख़ुद ही 1922 में 20 लाख की लागत से बने सुल्तान पैलेस पर ठहर जाती हैं। इंडो – सारसेनिक शैली में बनी यह इमारत अब परिवहन भवन कहलाती है। इसके निर्माता सर सैयद सुल्तान अहमद ने अपने मुल्क की तहज़ीब का का ख़्याल रखते हुए इसके तामीर में मुग़ल – राजपूत शैली को ख़ास जगह दी।