पंजाब युनिवर्सिटी लाहौर में अल्लामा इक़बाल प्रोफ़ेसर थे जो वहाँ दर्शनशास्त्र पढ़ाते थे। उसी समय लाला हरदयाल वहां से संस्कृत में एम.ए. कर रहे थे। उन दिनों लाहौर में नौजवानो के तफ़रीह (मनोरंजन) के लिये एक ही क्लब हुआ करता था जिसका नाम था “यंग मैन क्रिश्चयन एसोसियेशन” जिसे ‘वाई एम् सी ए’ के नाम से भी जाना जाता था। किसी बात को लेकर लाला हरदयाल की क्लब के सचिव से बहस हो गई। बात हिन्दुस्तान के इज़्ज़त की थी; लाला जी ने आव देखा न ताव, फ़ौरन ही ‘वाई एम् सी ए’ के समानान्तर “यंग मैन इण्डिया एसोसियेशन” यानी ‘वाई एम् आई ए’ की स्थापना कर डाली।
जब लाला जी ने अपने प्रोफ़ेसर इक़बाल को सारा माजरा बताया और उनसे एसोसियेशन के उद्घाटन समारोह की अध्यक्षता करने को कहा तो वोह फ़ौरन तैयार हो गये। इस समारोह में इक़बाल ने अपनी प्रसिद्ध रचना “सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा” तरन्नुम में सुनाई। एैसा शायद पहली बार हुआ कि किसी समारोह के अध्यक्ष ने अपने अध्यक्षीय भाषण के स्थान पर कोई तराना गाया हो। इसमें छोटी लेकिन जोश भरी रचना का श्रोताओं पर इतना गहरा प्रभाव हुआ कि इक़बाल को समारोह के आरम्भ और समापन दोनों ही अवसरों पर ये गीत सुनाना पड़ा।
सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोसिताँ हमारा
हम बुलबुलें हैं इसकी यह गुलसिताँ हमारा
ग़ुर्बत में हों अगर हम, रहता है दिल वतन में
समझो वहीं हमें भी दिल हो जहाँ हमारा
परबत वह सबसे ऊँचा, हम्साया आसमाँ का
वह संतरी हमारा, वह पासबाँ हमारा
गोदी में खेलती हैं इसकी हज़ारों नदियाँ
गुल्शन है जिनके दम से रश्क-ए-जनाँ हमारा
ऐ आब-ए-रूद-ए-गंगा! वह दिन हैं याद तुझको?
उतरा तिरे किनारे जब कारवाँ हमारा
मज़्हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना
हिंदी हैं हम, वतन है हिन्दोसिताँ हमारा
यूनान-ओ-मिस्र-ओ-रूमा सब मिट गए जहाँ से
अब तक मगर है बाक़ी नाम-ओ-निशाँ हमारा
कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी
सदियों रहा है दुश्मन दौर-ए-ज़माँ हमारा
इक़्बाल! कोई महरम अपना नहीं जहाँ में
मालूम क्या किसी को दर्द-ए-निहाँ हमारा !