Shubhneet Kaushik
शहीद अशफ़ाक़उल्ला खाँ का जन्म 22 अक्तूबर, 1900 को शाहजहाँपुर में हुआ। स्कूली दिनों में जब अशफ़ाक़ ने वाल्टर स्कॉट की कविता ‘लव ऑफ कंट्री’ (देशप्रेम) पढ़ी, तो उस कविता ने अशफ़ाक़ के बालमन पर गहरी छाप छोड़ी। आगे चलकर ‘वारसी’ और ‘हसरत’ उपनाम से शायरी लिखने वाले अशफ़ाक़ ने अपने उत्कट देशप्रेम को अभिव्यक्त करते हुए लिखा:
कुछ आरज़ू नहीं है, है आरज़ू तो यह है
रख दे कोई जरा-सी ख़ाके वतन कफ़न में।
गुलामी की टीस अशफ़ाक़ के मन में कहीं गहरे चुभ रही थी, जैसा बाद में उन्होंने लिखा भी कि “किसी की हुकूमत अपने ऊपर कबूल करना हमारी पस्तहिम्मती और बदबख्ती है।” हिंदुस्तान के बारे में उनकी उम्मीद थी :
बहुत ही जल्द टूटेंगी गुलामी की ये ज़ंजीरें
किसी दिन देखना आज़ाद ये हिन्दोस्ताँ होगा।
पर सिर्फ हुकूमत में बदलाव करना अशफ़ाक़ का लक्ष्य नहीं था, उनके अनुसार “मैं विदेशी हुकूमत को बुरा समझता हूँ और साथ ही साथ हिंदुस्तान की ऐसी जम्हूरी सल्तनत को भी जिसमें कमजोरों का हक़ हक़ न समझा जाए, या हुकूमत जो सरमायादारों और जमींदारों के दिमागों का नतीजा हो, या जिसमें मसावी (बराबर) हिस्सा मजदूरों और काश्तकारों का न हो।” अंग्रेज़ों की “बाँटो और राज करो” की नीति और हिंदू-मुस्लिम सांप्रदायिक तनाव के प्रति चेताते हुए अशफ़ाक़ ने लिखा :
ये झगड़े और बखेड़े मेटकर आपस में मिल जाओ,
ये तफ़रीके अगस है, तुममें हिंदू और मुसलमाँ की।
आगे चलकर वे क्रांतिकारी रामप्रसाद बिस्मिल के संपर्क में आए, जो 1918 के प्रसिद्ध ‘मैनपुरी षड्यंत्र केस’ के प्रमुख अभियुक्त थे। बिस्मिल की सक्रियता से शाहजहाँपुर उन दिनों क्रांतिकारी गतिविधियों का केंद्र बन गया था।
बीस के दशक में संयुक्त प्रांत (यूपी) में क्रांतिकारी केंद्रों की स्थापना और उनके संगठन का काम योगेशचन्द्र चटर्जी शचीन्द्रनाथ सान्याल ने किया। इन दोनों ने ‘हिंदुस्तान प्रजातंत्र संघ’ की स्थापना की। उत्तर भारत में उस वक्त क्रांतिकारी संगठन आर्थिक संसाधनों के अभाव में बुरे दौर में थे। ऐसी स्थिति में बिस्मिल के नेतृत्व में क्रांतिकारियों ने रेल का खजाना लूटने की योजना बनाई।
9 अगस्त 1925 को 8 डाउन पैसेंजर गाड़ी जैसे ही काकोरी और आलमनगर स्टेशन के बीच पहुँची, पहले से सवार क्रांतिकारियों ने जंजीर खींचकर ट्रेन रोक दी और गार्ड के डिब्बे से खजाने का संदूक ले लिया। इसमें भाग लेने वाले क्रांतिकारी थे : अशफ़ाक़उल्ला, बिस्मिल, चंद्रशेखर आज़ाद, मन्मथनाथ गुप्त, शचीन्द्रनाथ बख्शी, राजेंद्रनाथ लाहिड़ी, केशव चक्रवर्ती, मुरारीलाल, मुकुंदीलाल।
‘Mauzar’ of #AshfaqullahKhan 'Hasrat warsi’ used during Kakori Action. Which got stolen from their house a few years ago 😢#AshfaqullaKhan #Kakori #KakoriAction
Via : Shah Alam (#ChamabalArchive) pic.twitter.com/kmYDaciWpF
— Heritage Times (@HeritageTimesIN) October 22, 2018
क्रांतिकारियों द्वारा खजाने की लूट को अंजाम दिये जाने पर अंग्रेज़ सरकार बुरी तरह बौखला गई। फिर शुरू हुआ गिरफ्तारियों और सजाओं का दौर। जेल में रहते हुए भी अशफ़ाक़, बिस्मिल सरीखे क्रांतिकारी तमाम झंझावातों को झेलते हुए न कभी निराश हुए न अपनी देशप्रेम की भावना से कभी डिगे। बल्कि अशफ़ाक़ ने तो लिखा है:
दहलता है कलेजा दुश्मनों का देखकर ‘हसरत’,
चला करते हो जब बेड़ी पहनकर शादमाँ होकर।
अंततः बिस्मिल, अशफ़ाक़, राजेंद्रनाथ लाहिड़ी और ठाकुर रोशन सिंह को फाँसी की सजा सुनाई गई और दूसरे साथियों को आजीवन कारावास की। 19 दिसंबर 1927 को फाँसी देने का दिन नियत किया गया। पर राजेंद्रनाथ लाहिड़ी को दो दिन पहले ही 17 दिसंबर को गोंडा जेल में फाँसी दे दी गई, जबकि बिस्मिल, अशफ़ाक़ और रोशन सिंह को 19 दिसंबर को क्रमशः गोरखपुर, फैज़ाबाद और इलाहाबाद की जेल में फाँसी दी गई। फाँसी के तख्ते पर जाने से पहले बिस्मिल ने कहा:
मालिक तेरी रजा रहे और तू ही तू रहे,
बाकी न मैं रहूँ, न मेरी आरजू रहे।
जब तक कि तन में जान और रगों में लहू रहे,
तेरा ही ज़िक्र या तेरी ही जुस्तजू रहे।
अशफ़ाक़ ने फैज़ाबाद जेल में कालकोठरी से निकलने से ठीक पहले यह शेर लिखा था :
तंग आकर हम भी उनके जुल्म के बेदाद से
चल दिए सूए-अदम ज़िंदाने-फैज़ाबाद से।