जब तक ख़िलाफ़त मूव्मेंट और असहयोग आंदोलन चलता रहा देश में हिंदू मुस्लिम एकता के नारे लगते रहे; लेकिन जैसे ही ये दोनो तहरीक ने दम तोड़ा, आर्य समाज ने शुद्धी के नाम पर सर उठाया, शुद्धी की लहर में हिंदू मुस्लिम एकता जल कर ख़ाक हो गयी और कई जगह दंगे खड़े हो गए।
देश के इसी माहौल में कुछ बलवाई ने मुसलमानो को मंदिर तोड़ने के लिए उकसाया, जब लोग मंदिर तोड़ने के लिए जमा होने लगे तो एक नौजवान भीड़ के सामने खड़ा होता है, जेब से पिस्टल निकाल कर बुलंद आवाज़ में कहता है ‘तुम एक मंदिर पर हमला करने नही जा रहे बल्के हिंदुस्तान पर हमला करने जा रहे हो, तुम्हारे दुश्मन हिंदू नही है, तुम ख़ुद अपने साथ साथ तमाम मुसलमानो के साथ ग़द्दारी कर रहे हो, तुम ग़रीब और भोले भाले मुसलमानो को बहका रहे हो, अगर हिम्मत है तो सामने आओ‘ ?
बलवाई भीड़ में से कोई सामने नही आया और भीड़ तितर बितर हो गई। वो नौजवान कोई और नही था, इस मुल्क की आज़ादी के ख़ातिर मर मिटने वाला शाहजहाँपूर का अशफ़ाक़ुल्लाह ख़ान था।
अशफ़ाक़ुल्लाह ख़ान की पैदाईश 22 अक्तुबर 1900 को शाहजहाँपूर मे हुई, वालिद साहब पुलिस डिपार्टमेंट में थे, लेकिन अश्फ़ाक़उल्लाह ख़ान पर बहुत जल्द ही यतिमी का साया पड़ गया, उनकी माँ को अख़बार पढ़ने का बड़ा शौक़ था, जब फ़र्स्ट वर्ल्ड वार की लड़ाई शुरू हुई और जब ब्रिटिश और तुर्की आमने सामने आ गए तो हिंद के हर मुसलमान की दिली ख़्वाहिश थी के किसी तरह तुर्की ब्रिटिश को हरा दे लेकिन हुआ इसके उलट।
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अश्फ़ाक के अंदर हिब्बूल वतनी का ये जज़्बा माँ से विरासत में मिला यही वजह थी की ख़िलाफ़त आंदोलन से पहले अश्फ़ाक काबुल निकलना चाह रहे थे मगर किसी के समझाने पर नही गए।
अश्फ़ाक को शायरी का बहुत शौक़ था , वारसी और हसरत तख़ल्लुस के तौर पर इस्तेमाल करते थे। कहते हैं इसी शायरी ने अश्फ़ाक को बिस्मिल के क़रीब कर लेकर गया था लेकिन मंदिर वाली घटना ने बिस्मिल के दिल पर गहरी छाप छोड़ी थी।
हिंदुस्तान रिपब्लिक असोसीएशन का मक़सद मुल्क की आज़ादी थी, और गांधी जी अपने आंदोलन वापस लेने के बाद इस असोसीएशन ने फ़ैसला किया की आज़ादी हम बंदूक़ के दम पर लेंगे, बंदूक़ के लिए पैसे चाहिए थे; इसलिए इन्होंने ये भी फ़ैसला कर रखा था के हम हिंदुस्तान के किसी ज़मींदार या रईस को नही लूटेंगे।
जर्मनी से बंदूक़ आनी थी और उसके लिए पैसे हर हाल में चाहिए थे, फ़ैसला हुआ के अंग्रेज़ी माल लूटा जाए अश्फ़ाक इसके फ़ेवर में नही थे; वो नही चाहते थे कि इतनी जल्दी हम अंग्रेज़ो के नज़र पर आ जाएँ। लेकिन बाक़ी साथी ने इंकार कर दिया, ख़ैर जब ट्रेन से सरकारी ख़ज़ाने को लूटने पर ही आम सहमति बनी तो अश्फ़ाक शामिल हो गए।
‘Mauzar’ of #AshfaqullahKhan 'Hasrat warsi’ used during Kakori Action. Which got stolen from their house a few years ago 😢#AshfaqullaKhan #Kakori #KakoriAction
Via : Shah Alam (#ChamabalArchive) pic.twitter.com/kmYDaciWpF
— Heritage Times (@HeritageTimesIN) October 22, 2018
ककोरी से चली ट्रेन को लखनऊ पहुँचने से पहले लूटा गया, लेकिन जिसका डर अश्फ़ाक को था वही हुआ, पुलिस ने एक दो के इलावा सबको पकड़ लिया। अश्फ़ाक चौकन्ने थे पुलिस गाँव पहुँची उससे पहले निकल गए, अश्फ़ाक डॉल्टॉनगंज आ गए। वहाँ भेस बदल कर एक एंजिनीरिंग फ़र्म में नौकरी करने लगे बाक़ी साथियों से राबता टूट चुका था। लगभग एक साल तक अश्फ़ाक डॉल्टॉन गंज में रहे।
शायरी का शौक़ था इसलिए हज़ारीबाग़ और प्लामु में होने वाले मशायरे में भी जाते रहे, एक साल बाद तंग आकर उन्होंने मुल्क छोड़ कर अफ़ग़ान निकलना चाहा ताकि वहाँ से कुछ हथियार मिल सके।
अश्फ़ाक इसके लिए दिल्ली गए और वहाँ एंजिनीरिंग की पढ़ाई करने के बहाने मुल्क से बाहर निकलने का इंतेज़ाम करने लगे।
अश्फ़ाक वहाँ अपने स्कूल के दोस्त से मिलते हैं, अश्फ़ाक के सर पर दो हज़ार का ईनाम था उस दोस्त ने ग़द्दारी की और अश्फ़ाक पकड़े गए, अश्फ़ाक की ग़ैरत ने कभी ये गावारा नही किया के अपने उस स्कूल के दोस्त का नाम दुनिया में लाए, इसलिए लोग आजतक नही जानते की अश्फ़ाक की मुख़बरी करने वाले का नाम क्या था।
अंग्रेज़ों को हिला देने वाले काकोरी षड्यंत्र के नाम से प्रसिद्द इस कांड में गिरफ़्तारी के बादल अश्फ़ाक पर जेल की चार दिवारी के अंदर ज़ुल्म के पहाड़ तोड़े गए ताकि वो अपने जुर्म को क़बूल कर ले मगर अंग्रेज़ी पुलिस नाकाम रही, फिर मज़हब का हवाला देकर उन्हें सरकारी गवाह बनाने की कोशिशें हुईं। अधिकारियों ने उनसे यह तक कहा कि हिन्दुस्तान आज़ाद हो भी गया तो उस पर मुस्लिमों का नहीं, हिन्दुओं का राज होगा। इसके जवाब में अशफ़ाक़ ने कहा था – ‘तुम लोग हिन्दू-मुस्लिमों में फूट डालकर आज़ादी की लड़ाई को अब नहीं दबा सकते। हिन्दुस्तान आज़ाद होकर रहेगा। मैं अपने दोस्तों के ख़िलाफ़ सरकारी गवाह नहीं बनूंगा।’
ख़ैर मुक़दमा चलाया गया , बिस्मिल को पहले ही फाँसी की सज़ा सुनाई जा चुकी थी। वक़्त गुज़रा अश्फ़ाक के लिए भी अदालत ने फाँसी का फ़रमान सुनाया, 19 दिसम्बर 1927 की सुबह अश्फ़ाक को फैज़ाबाद जेल में फाँसी की सज़ा दे दी गयी।
Dead body of Shheed Ashfaqulla Khan.#Ashfaqullahkhan #Ashfaqullakhan #Kakori #AshfaqueUllahKhan pic.twitter.com/BVOIs6ysQ6
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ये अश्फ़ाक की ही फाँसी थी की मौलाना आज़ाद को अपने अख़बार ‘हिलाल’ में “इंसानियत मौत के दरवाज़े पर” नाम से मज़मून लिखना पड़ा, जिसमें उन्होंने शायद स्याही नही अपने ख़ून का इस्तेमाल किया था, अश्फ़ाक के जनाज़े में दस हज़ार से ज़्यादा लोग मौजूद थे।
अश्फ़ाक की शायरी के दो शेर हैं :—
सुनाए किसे अपने ग़म की कहानी
हमें तो अपने सता रहे हैं
हमेशा वो सुबह शाम दिल पर
सितम के ख़ंजर चला रहे हैं।
ना कोई इंग्लिश, ना कोई राशियन,
ना कोई जर्मन, ना कोई तुर्की
मिटाने वाले है अपने हिंदी
जो आज हमको मिटा रहे हैं।
आप ये जानकार हैरान हो जाएँगे की मुल्क की ख़ातिर ख़ुद को क़ुर्बान कर देने वाले अश्फ़ाक के नाम पर उनके मुल्क में कुछ भी नही है। अगर आप ग़ौर करें तो एक बात आपको सोचने पर मजबूर कर देगी की इस देश में अश्फ़ाक उल्लाह खान के नाम पर कोई शोध संस्थान नही है, शोध संस्थान छोड़ीए कोई सड़क, पार्क, पुल नदी कुछ भी नही है।
A commemorative postage stamp on the 70th death anniversary of #RamPrasadBismil and #AshfaqullaKhan, members of revolutionary organisation, Hindustan Republican Association, famous for #KakoriConspiracy case.
Issued on December 19, 1997. pic.twitter.com/1OAR6g0eLW
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अश्फ़ाक के नाम पर पहली डाक टिकट भी आज़ादी के पचास साल बाद अश्फ़ाक के 70वें शहादत दिवस के मौक़े पर 19 दिस्मबर 1997 को जारी की गयी थी, अभी तो सत्तर साल हुए, देखिए इंतेज़ार कीजिए, इस मुल्क की हुकूमत कब अश्फ़ाक को याद करती है, कब उनके साथ इंसाफ़ करती है।