वारिस अली ही नाम है उस अज़ीम इंक़लाबी रहनुमा का जिसे उसके शहादत के 160 साल बाद भी आज़ाद हिन्दुस्तान में शहीद का दर्जा नही मिला। पहल हुई, मांग हुई! पर अब तक कोई ठोस नतीजा सामने नही आया।
तिरहुत के मजिस्ट्रेट को वारिस अली पर बहुत दिनों से शक था कि वह बाग़ियों से मिले हुये हैं। नील की कोठी वाले अंग्रेज़ भी वारिस अली से नाराज़ थे और इस वजह कर बहुत दिनों से उनकी मुखबिरी की जा रही थी। वारिस अली पर यह आरोप था कि 1857 में मुजफ़्फ़रपुर जेल तोड़ने की घटना और क़ैदियों की बगावत में उनका हाथ था। उन्होंने पुलिस की नौकरी में रहकर निलहों की मर्ज़ी का काम नहीं किया और उनकी नाराज़गी मोल ली थी।
On the day #23June1857 Great Freedom Fighter #WarisAli was arrested, & later on #23July1857 he was Hanged till death.
Photo – @MdUmarAshraf pic.twitter.com/W3gbc9ToaS
— Muslims of India (@WeIndianMuslims) June 23, 2017
14 मई 1855 को मुजफ्फरपुर जेल में बंद क़ैदी उस समय लड़ने के लिए उठ खड़े हुए जब कैदियों से धातु का लोटा और बर्तन छीनकर उन्हें मिट्टी का बर्तन पकड़ाया गया। मिट्टी का बर्तन एक बार शौच के लिए इस्तेमाल हो जाए तो अपवित्र माना जाता है और अंग्रेज़ ये बात समझने को तैयार नहीं थे; उनको डर था कि धातु के लोटे और बर्तन को गलाकर हथियार और जेल तोड़ने का सामान बनाया जा सकता है।
क़ैदी बहुत नाराज़ हो गए तो मजिस्ट्रेट ने डरकर गोली चलवाई तो बात और बढ़ गई। जेल के कै़दी अधिकतर गांव के किसान थे। जेल के पास अफ़ीम वालों का एक गोदाम था, जहां 12 हज़ार किसान अपने-अपने काम से आए हुए थे। जेल में हो रही कार्यवाही की ख़बर फैली, तो वे तमाम किसान जेल की ओर दौड़े। उनके आने से क़ैदियों का हौसला भी बढ़ गया। हालांकि इस पूरे वाक़िये में कैदी और किसानों का बड़ा नुकसान हुआ, लेकिन आग अन्दर ही अन्दर सुलगती रही। इस पूरे वाक़िये को ‘लोटा तहरीक’ के नाम से जाना जाता है। इस पूरे घटनाक्रम के लिए वारिस अली को ज़िम्मेदार ठहराया गया। उनपर ये आरोप था के उन्होने हज़ारो किसानों को जेल का घेराव करने मे सहयोग किया था।
‘तारीख़ ए बिहार’ और ‘नक़्श ए पैदार’ जैसी किताबें लिखने वाले उर्दु के मशहूर शायर और लेखक शाद अज़ीमाबादी ने भी ‘लोटा विद्रोह’ को वारिस अली की ही दिमाग़ी उपज बताया है, जो ख़ुद को मुग़ल ख़ानदान के फ़र्द मानते थे। जो बरुराज पुलिस चौकी में जामदार की हैसियत से तैनात थे।
एक सरकारी अफ़सर का विद्रोहियों का साथ देना सरकार की नज़र में बग़ावत था, इस लिए सरकारी आदेश पर उनके मकान को घेर लिया गया, उस समय वे गया के “अली करीम” नाम के एक अज़ीम क्रांतिकारी को ख़त लिख रहे थे। इस छापे में उनके घर से बहुत आपत्तिजनक पत्र प्राप्त हुए। पर ट्रायल के दौरान एैसा कोई भी पत्र पेश नही किया जा सका।
Tribute to Great Freedom Fighter of India #HeroOf1857, #WarisAli on his Death Anniversary.
Waris Ali was:
Arrested on 23 June 1857 from #MuzaffarPur
Sentenced guilty on 6 July
Hanged till death on 23 July.#WilliamTaylor, the then Commissioner, Patna, enters the dates like this. pic.twitter.com/qC8TiALPUS— Muslims of India (@WeIndianMuslims) July 23, 2018
पुस्तक Contesting Colonialism and Separatism: Muslims of Muzaffarpur Since 1857 के अनुसार वारिस अली ख़ुद को मुग़ल ख़ानदान का फ़र्द मानते थे और बिहार के मोतीपुर के बरुराज पुलिस चौकी में जमादार की हैसियत से तैनात थे।
किताब के अनुसार, बरुराज पुलिस चौकी के पास उनके निवास से अंग्रेजों ने उन्हें गिरफ़्तार कर लिया था। तिरुहुत के मजिस्ट्रेट एएच रिचर्डसन को नीलहों से शिकायत मिली थी कि वारिस अली विद्रोहियों की मदद कर रहे हैं। गिरफ़्तारी के बाद वारिस अली को मुजफ़्फ़पुर के पुरानी बाज़ार नाका में तीन दिनों तक रखा गया था और उसके बाद उन्हें सुगौली(चम्पारण) मेजर की अदालत में पेश किया गया। मेजर ने इस आधार पर कार्रवाई करने से इनकार किया कि इनके ख़िलाफ़ सबूत अपर्याप्त हैं। इसके बाद उन्हें पटना के तत्कालीन कमिश्नर विलियम टेलर की अदालत में पेश किया गया। 6 जुलाई 1857 को इन्हें दोषी करार दिया गया और 23 जुलाई 1857 को गांधी मैदान में फांसी दे दी गयी।
पटना के तत्कालीन कमीश्नर वीलियम टेलर का हवाले से लेखक किताब मे लिखते हैं की बग़ावत के जुर्म में 23 जून 1857 को वारिस अली गिरफ़्तार कर लिए जाते हैं, 6 जुलाई 1857 को उन्हे बग़ावत के जुर्म मे फांसी की सज़ा दी जाती है, और 23 जुलाई 1857 को उन्हे फांसी पर लटका दिया जाता है।
ज्ञात रहे के कई लोग 6 जुलाई 1857 को भी वारिस अली की शहादत दिवस के रूप में याद करते हैं। असल में 6 जुलाई 1857 को वारिस अली को फांसी की सज़ा सुनाई जाती है, जिसे लोग आम तौर पर शहादत दिवस समझ लेते हैं।
वारिस अली की शहादत के बाद कई ट्रायल हुआ जिसमे अगस्त 1857 में ग़ाज़ी ख़ान, ख़ैराती ख़ान, मीर हिदायत ख़ान, वज़ीर ख़ान, कल्लु ख़ान सहीत कई पुलिसकर्मी को गिरफ़्तार कर उन्हे पुलिस की नौकरी से बर्ख़ास्त कर उनकी सारी जायदाद को ज़ब्त कर लिया जाता है। साथ ही इन सभों को उमर क़ैद की सज़ा होती है। इसके इलावा शेख़ कुर्बान अली को भी पुलिस की नौकरी से बर्ख़ास्त कर दिया जाता है। और उनकी सारी जायदाद को ज़ब्त कर उन्हे तीन साल क़ैद की सज़ा सुनाई जाती है।
यहां पर एक बात क़ाबिल ए ज़िक्र है के इन बग़ावत को कुचलने में मोतीपूर और आसपास के ज़मीनदारों ने अंग्रेज़ों की भरपूर मदद की थी।
आज़ादी के काफ़ी बाद मुज़फ़्फ़रपूर मुंसपल कार्पोरेशन ने मोती झील से रेल गोदाम वाली सड़क का नाम वारिस अली की याद में बदल कर वारिस अली रोड कर दिया था जो समय के साथ बदर कर पहले वरसल्ली रोड और फिर स्टेशन रोड में बदल गया।