सन् 1857 ई. की क्रांति अंग्रेज़ी सत्ता को एक महान चुनौती थी। जिसने ब्रिटिश सरकार को झकझोर दिया। अंग्रेज़ों की दासता के जुए को कांधे से उतार फेंकने के लिए भारतीय वीर बांकुरों ने प्राणों की आहूति दे दी। हंसते-हंसते फांसी के फंदे पर झूल गए। कहीं-कहीं पेड़ों की डालियों में लटकाकर उन्हें फांसी दे दी गई। यद्यपि क्रांति की निश्चत तिथि 21 मई 1857 थी। किंतु इसका विस्फोट दो माह पूर्व 29 मार्च 1857 को हो गया था। इसकी लपटें मेरठ, दिल्ली, लखनऊ, कानपुर, झांसी, बिहार आदि में फैल गई। 13 जुलाई 1857 को दानापुर छावनी पटना में क्रांति हुई तथा 7 जुलाई को पीर अली सहित 36 व्यक्तियों को फांसी दी गई। यह समाचार दावानल की तरह फैल गया। 30 जुलाई 1857 को हज़ारीबाग़ स्थित रामगढ़ बटालियन के आठवें नेटिभ कान्फैंट के दो दस्तों ने दिन के एक बजे क्रांति कर दी। उस समय छोटानागुपर का कमीशनर ई. टी. डाल्टन था। उसने क्रांति को दबाने के लिए लेफ्टिनेंट ग्रहम के नेतृत्व में रांची स्थित रामगढ़ बटालियन की दो टुकड़ियां भेज दी। इसमें 25 इररेगुलर घुड़सवार एवं दो छह पौंड वाले बंदूकधारी भी सम्मिलित थे। रामगढ़ पहुंचने पर इस दस्ते ने भी बगावत कर दी। जिसका नेतृत्व जमादार माधव सिंह कर रहा था। शीघ्रता से रांची की ओर प्रस्थान कर गया। वहां बुड़मू के क्रांतिकारियों से उनकी भेंट हो गई। उसी दिन डोरंडा (रांची) की बटालियन ने विद्रोह कर दिया। इस प्रकार छोटानागपुर कमिश्नरी में क्रांति की लपेटें तेज हो गईं और अंग्रेजों के छक्के छूट रहे थे।
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30 सितंबर 1857 को डोरंडा से स्वतंत्रता सेनानी बिहार के बाबू कुंवर सिंह की सहायता के लिए कूच कर गए। रास्ते में चुटिया के जमींदार भोला सिंह उनके साथ हो गए। तब वे कुरू, चंदवा, बालूमाथ होते हुए चतरा की ऐतिहासिक स्थली पहुंचे। उस समय चतरा का तत्कालीन डिप्टी कमीशनर सिम्पसन था। उसे तार द्वारा यह सूचना मिली कि क्रांतिकारी सेनानी भोजपुर जा रहे हैं। इस सैनिक टुकड़ी का नेतृत्व जयमंगल पांडेय और नादिर अली खां कर रहे थे। इस क्रांतिकारी दस्ते में ठाकुर विश्वनाथ शहदेव (बड़कागढ़) तथा उनके दीवान पांडेय गणपत राय सम्मिलित थे। मार्ग में सलगी के जगन्नाथ शाही जो कल्पनाथ शाही के पुत्र तथा बाबू कुंवर सिंह के भाई दयाल सिंह के दामाद थे, ने भी सहयोग किया। इसमें शेख भिखारी, टिकैत उमराव सिंह, चमा सिंह, जमींदार माधव सिंह तथा भोला सिंह भी सम्मिलित थे। कमीशनर डाल्टन ने इस स्वतंत्रता संग्राम की धधकती ज्वाला को बड़ी कठिनाइयों से 23 सितंबर को हजारीबाग में शांत करने में तो सफलता पा ली, किंतु चतरा का युद्ध डिप्टी कमीशनर सिम्पसन को काफी मंहगा पड़ा। चतरा का युद्ध 1857 ई. के बिहार का एक निर्णायक युद्ध था एक घंटा तक लगातार चल रहा था। इस खूनी संघर्ष में 56 सरकारी सैनिक मारे गए। इसमें 46 यूरोपीय सैनिक तथा 10 सिख सैनिक थे। अनेक ब्रिटिश सैनिक घायल हुए। इनमें चार सैनिक इतने गंभीर रूप से घायल हुए कि उनके अंग भंग करने पड़े। 100 से अधिक घायल सैनिकों को अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा। चतरा शहर के पश्चिमी छोर पर चतरा गया मार्ग के उत्तर में वन प्रमंडल कार्यालय चतरा के पीछे कैथोलिक आश्रम के निकट अंग्रेज एवं सिख सैनिकों को एक ही कुएं में डाल दिया गया था।
#JaimangalPandey & #NadirAli were two Rebellion Subadars of the Ramgarh battalion.
They led the assault at Chatra, and were caught and brought before simpson on 3rd October 1857 and were sentenced to death on 4th October 1857.
They wer hanged near 'Phansi Talaab'. #HeroOf1857 pic.twitter.com/DaB6Cw7OYj
— Heritage Times (@HeritageTimesIN) October 4, 2018
150 सैनिकों को जहां आम के पेड़ों पर लटका कर फांसी दी गई वह स्थल फांसीहारी तालाब मंगल तालाब, भूतहा तालाब, हरजीवन तालाब आदि नामों से इस क्षेत्र में जाना जाता है। वास्तव में यह एक ही तालाब है जो अभी स्टेट बैंक ऑफ इंडिया चतरा शाखा के पीछे जेल और अंचल कार्यालय के बीच पड़ता है। उसी तालाब के पास स्वतंत्रता के अनेक पूजारियों ने स्वतंत्रता की बलि बेदी पर अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दिया था।
#JaimangalPandey & #NadirAli were two Rebellion Subadars of the Ramgarh battalion.
They led the assault at Chatra, and were caught and brought before simpson on 3rd October 1857 and were sentenced to death on 4th October 1857.
They wer hanged near 'Phansi Talaab'. #HeroOf1857 pic.twitter.com/uVmveRWijn
— Muslims of India (@WeIndianMuslims) October 4, 2018
तालाब के आसपास के क्षेत्र लाशों में पटा गए थे और लाखों की संडाध यूरोपीय बर्दाश्त नहीं कर सके। अत: उनलोगों ने अपना खेमा काली पहाड़ी में लगाया। 3 अक्टूबर को सूबेदार जयमंडल पांडेय और सूबेदार नादिर अली खां सिम्पसन के सामने पेश किए गए। 1857 की गदर की धारा 17 के अनुसार उन्हें फांसी दी गई। जहां दो दिन पूर्व 2 अक्टूबर को उन लोगों ने शौर्य का परिचय दिया था। उनकी स्मृति में लोक गीत क्षेत्र में प्रचलित है।
वाया : दैनिक भास्कर