सुभाष चंद्र बोस ने देश की आजादी में बहुत बड़ी भूमिका निभाई है। आजादी के लिए उन्होंने अपनी फौज बनाई, जिसका नाम ‘आजाद हिंद फौज’ रखा। इस संगठन के सदस्य और नेताजी के ड्राइवर कर्नल निजामुद्दीन यूपी के आजमगढ़ जिले के रहने वाले थे। 116 साल की उम्र में पिछले वर्ष बीबीसी हिंदी से हुई विशेष बातचीत में ‘कर्नल’ निजामुद्दीन ने दावा किया था कि जब वे बर्मा में सुभाष चंद्र बोस के ड्राइवर थे तब नेताजी पर जानलेवा हमला हुआ था.
उनका दावा है कि किसी ने नताजी पर गोलियां चलाई थीं जिसमे से एक निजामुद्दीन की पीठ पर लगी थी और उसे आज़ाद हिंद फ़ौज में बतौर डॉक्टर काम करने वाली ‘कैप्टन’ लक्ष्मी सहगल ने निकाला था. उस समय कर्नल निजामुद्दीन ने बताया था कि आज भी उन्हें वर्मा का 1944 का युद्ध याद है, जब अंग्रेजों ने उन्हें नेताजी के साथ जंगल में घेर लिया था। कीचड़ के दलदल से एक अंग्रेज सिपाही ने नेताजी पर पीछे से तीन गोलियां चलाई थी, लेकिन उन्होंने नेताजी को छुपाते हुए अपनी पीठ पर गोली खा ली थी। इन गोलियों के निशान आज भी उनकी पीठ पर मौजूद हैं। ऐसी ही एक घटना को याद करते हुए उन्होंने बताया था कि आजाद हिंद फौज की मदद के लिए जुलाई 1943 में बर्मा, सिंगापुर और रंगून के प्रवासी भारतीयों ने उन्हें सोने, चांदी, हीरे-जवाहरात और नकदी से भरे 26 बोरों के साथ तौल दिया था.
कर्नल के बेटे मोहम्मद शेख अकरम ने अपने पिता के बारे में विस्तार से बताया। मोहम्मद शेख अकरम ने बताया कि बाबूजी और नेताजी वर्मा युद्ध के दौरान जंगलों में घिर गए थे। उस समय अंग्रेज लगातार फायरिंग कर रहे थे। बाबूजी और नेताजी जी झाड़ियों में छिपकर दुश्मनों से लोहा ले रहे थे। कुछ दूरी पर कैप्टन लक्ष्मी सहगल भी अंग्रेजों को जबाब दे रही थी। तभी एक अंग्रेज सिपाही ने कीचड़ से लथपथ होकर दलदल के बाहरी हिस्से से नेताजी पर निशाना साधते हुए फायरिंग कर दिया। कर्नल निजामुद्दीन की नजर उस पर पड़ी। उन्होंने नेताजी को कस कर पकड़ लिया और तीनों गोली अपनी पीठ पर खा ली.
मोहम्मद शेख अकरम ने बताया कि इसके बाद बाबू जी के द्वारा चलाई गई एक गोली अंग्रेज के माथे पर लगी। अंग्रेज इंग्लिश में गाली देते हुए वहीं गिर पड़ा। उन्होंने बताया, ‘बाबू जी बताते हैं कि नेता जी के मुंह से उस समय एक बात निकली थी कि भारत के आजादी के लिए सुभाष का दूसरा जन्म हुआ है। पिछले वर्ष चंद्र बोस की प्रपौत्री राज्यश्री चौधरी भी निजामुद्दीन से मिलने आजमगढ़ गई थीं. 2014 के आम चुनावों के दौरान वाराणसी में अपने प्रचार के दौरान भाजपा उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने भी निजामुद्दीन को स्टेज पर बुलाकर उनका सार्वजनिक अभिनन्दन किया था.
इनका असली नाम सैफ़ुद्दीन था और का जन्म 1 जनवरी 1900 को हुआ था और इनकी मृत्यु आजमगढ़ के मुबारकपुर इलाके में अपने घर पर हुई. ‘कर्नल’ निजामुद्दीन के बेटे शेख अकरम ने बीबीसी को बताया, “रात को बाबूजी ने दाल, देसी घी और एक रोटी भी खाई थी.” निजामुद्दीन के परिवार में पत्नी अजबुनिशा के अलावा तीन बेटे हैं। गांव में वो अपनी पत्नी और छोटे बेटे शेख अकरम के साथ रहते थे। उनका एक बेटा सऊदी अरब में और दूसरा मुंबई में रहता है। उनकी दो बेटियां भी हैं जिनका शादी हो चुकी है और अपने परिवार के साथ रहती हैं। निजामुद्दीन के छोटे बेटे ने अपने पिता को स्वतंत्रता सेनानी का दर्जा दिलाने की बहुत कोशिश की मगर उसे सफलता हाथ नहीं लगी.
दिलचस्प बात ये है कि कर्नल निजामुद्दीन नेताजी के उन करीबी लोगों में से एक थे जिन्होंने ताइहोकू विमान हादसे उनके मारे जाने की खबर को कभी भी सच नहीं माना. इसके पीछे उनके पास कई दलीलें थीं. उनमें से एक यह कि अगस्त 1945 को जिस समय नेताजी की मौत की खबर रेडियो पर प्रसारित हो रही थी, उसे वह नेताजी के साथ बर्मा के जंगलों में बैठे सुन रहे थे. सबसे ज्यादा अचरज वाली बात उन्होंने ये बताई कि आखिरी बार उन्होंने नेताजी को 20 अगस्त 1947 में बर्मा की सितांग नदी पर छोड़ा था. यानी ये भारत को स्वतंत्रता मिलने के बाद की बात थी.
जमा-पूंजी के नाम पर उनके पास आजाद हिंद फौज की टोपी, उसका शिनाख्ती कार्ड और नेताजी की गाड़ी का ड्राइविंग लाइसेंस जैसे कागजात थे. उनमें कुछ कागजात बिलकुल पीले पड़ चुके थे और परत-दर-परत फट चुके थे. हां! कहीं पुराने टाइप-राइटर और कहीं हैंड-राइटिंग के सबब उनके मौलिक होने और नेताजी से जुड़े होने का आभास जरूर होता था. अजीब बात है कि इन साक्ष्यों और उनके दावों के बावजूद कभी किसी सरकार ने ना तो ये माना कि वह नेताजी के करीबी थे और ना ही कभी इसकी सत्यता को जांचने की जहमत गवारा की.