डॉक्टर मुहम्मद इसहाक़ आबाई तौर पर बिहार के आरा के रहने वाले थे। उनके वालिद का नाम अब्दुर रहीम था, जो तेजारत केसिलसिले में कलकत्ता गए और वहीं बस गए। यहीं 1 नवम्बर 1898 को मुहम्मद इसहाक़ पैदा हुए। शुरुआती तालीम के लिए आलिया मदरसा में दाख़िला करवाया गया। उर्दू, फ़ारसी, अरबी ज़ुबान सीखी। फिर कलकत्ता के मशहूर हीर से मैट्रिक का इम्तिहान पास किया। फिर 1921 में स्कॉटिश चर्च कॉलेज से बीएससी किया। 1923 में कलकत्ता यूनिवर्सिटी से अरबी में एमए किया। पढ़ाई के बाद ढाका जा कर वहाँ की यूनिवर्सिटी में अरबी और दीनयात पढ़ाने लगे।
कुछ दिन बाद वो कलकत्ता आकर इस्लामिया कॉलेज के अरबी विभाग में पढ़ाने लगे। इस दौरान 1927 में कलकत्ता यूनिवर्सिटी केअरबी और फ़ारसी विभाग में लेक्चरर की हैसियत से पढ़ाने का मौक़ा मिला। और वो यहीं जम गए। पढ़ाने के साथ ख़ुद भी पढ़ा।फ़ारसी ज़ुबान पर ऊबूर हासिल किया। इसी दौरान रिसर्च के सिलसिले में 1930 में ईरान गए। वहाँ की तहज़ीब और भारत से ईरान केइतिहासिक रिश्ते से बड़े मुतासिर हुए। उनके लेख लगातार भारत के विभिन्न जर्नल में छपते रहे, जिसमें लखनऊ से निकलने वाला“ज़माना” सबसे मशहूर है।
मुहम्मद इसहाक़ ने अपने रिसर्च की बुनियाद पर किताब “सुख़नवर ईरान दर अस्र ए हाज़िर” दो जिल्द में 1933 और 1937 में लिखी, जिसमें ईरान के कई शोरा का ज़िक्र किया है। ये किताब बहुत मशहूर और मक़बूल हुई। उनके काम की ताईद सर तेज बहादुर सपरुजैसे लोगों ने की। 1938 में मुहम्मद इसहाक़ फ़ेलोशिप पर मज़ीद पढ़ाई के लिए लंदन गए, और वहाँ से “मॉडर्न पर्शीयन पोयट्री” परपीएचडी किया।
इस दौरान लंदन की ईरान सॉसायटी में उनका अकसर आना जाना लगा रहा। वहाँ के काम से काफ़ी मुतास्सिर भी हुए। यहीं ईरान केबादशाह रज़ा शाह पहलवी के नज़दीक आए, और उनकी दावत पर कई बार ईरान भी गए। युरोप के कई मुल्कों का दौरा किया। औरवहाँ से लौट कर इन्होंने लंदन की ईरान सोसायटी के तर्ज़ पर 27 अगस्त 1944 को कलकत्ता में भारत और ईरान के रिश्ते को ज़ुबानऔर तहज़ीब की बुनियाद पर मज़ीद मज़बूत करने की नियत से ईरान सोसायटी बुनियाद डाली। बी एम बरुआ, काली दास नाग, डॉक्टरसुनीति कुमार चटर्जी, विनय कुमार सरकार, प्रोफ़ेसर महफ़ूज़ उल हक़ आदि को मिला कर 10 सितम्बर 1944 को एक समिति बनाईगई। डॉक्टर मुहम्मद इसहाक़ इसके सिक्रेटरी बने।
डॉक्टर मुहम्मद इसहाक़ की कोशिश से यहाँ रेगुलर फ़ारसी पर सेमिनार होते। एक भव्य लाइब्रेरी कि स्थापना की गई। देखते ही देखतेये सोसायटी बड़ी मशहूर और मक़बूल हो गई। दुनिया के अलग अलग मुल्क के राजदूत, प्रोफ़ेसर, अदीब, शायर, लेखक, फ़िल्मी सितारेजब कलकत्ता आते तब वक़्त निकाल कर यहाँ ज़रूर पहुँचते। डॉक्टर मुहम्मद इसहाक़ ने फ़ारसी ज़ुबान से जुड़े लोगों को इस संस्थान केज़रिया एक प्लाट्फ़ोर्म पर ला दिया था, जो भारत में ख़त्म हो रही फ़ारसी को बचाने के लिए एक बड़ी कोशिश थीं। इस सोसायटी से1946 में इंडो–इरानिका नाम का जर्नल भी फ़ारसी और अंग्रेज़ी भाषा में निकलना शुरू हुआ, जिसमें देश विदेश के विद्वान अपने लेखछपवाया करते थे। डॉक्टर मुहम्मद इसहाक़ इसके इडिटर थे।
डॉक्टर मुहम्मद इसहाक़ ने इस दौरान कई किताब फ़ारसी में लिखी, जिसका अंग्रेज़ी तर्जुमा भी हुआ। फ़ारसी के लिए उनके द्वारा किएगए काम की वजह कर 1959 में उस वक़्त की ईरान हुकूमत ने उन्हें वहाँ की एक बड़ी उपाधि से सम्मानित भी किया। उनके काम का उससमय के बड़े बड़े स्कॉलर ने बहुत तारीफ़ की।
डॉक्टर मुहम्मद इसहाक़ के बारे में ये कहा जा सकता है, उन्होंने उस समय फ़ारसी भाषा के लिए महत्वपूर्ण क़दम उठाए जब लोग उसभाषा से धीरे धीरे ख़ुद को दूर कर रहे थे। उनकी कोशिश भारत में फ़ारसी भाषा के लिए एक संजीवनी साबित हुई। इसी तरह फ़ारसी कीख़िदमत करते हुए डॉक्टर मुहम्मद इसहाक़ का इंतक़ाल 12 सितम्बर 1969 को 71 साल की उम्र में कलकत्ता में हुआ।