सच्चिदानंद सिन्हा : एक जन्मजात चक्रवर्ती

दसवीं की हिंदी की किताब में जगदीश चंद्र माथुर का एक पाठ पढ़ना होता था। शीर्षक था-‘एक जन्मजात चक्रवर्ती’। इस शीर्षक से किसी को एतराज नहीं हो सकता। सच्चिदानंद सिन्हा के पूर्वज के नामों में ‘बख्शी’ लिखे होने का मतलब है कि वे मुग़लों के बड़े ओहदे वाले मुलाजिम रहते आये थे। सच्चिदानंद का जन्म तो बिहार के आरा के पास मुरार गांव में हुआ था किन्तु उनके पूर्वज लखनऊ के आसपास के रहे होंगे। अकारण नहीं है कि मुरार गांव का इनका टोला ‘लखनौआ टोला’ के नाम से जाना जाता है। कायस्थ तो वे थे ही। अब बख्शी, लखनऊ और कायस्थ को मिला दीजिए तो चक्रवर्ती से कम क्या बनेगा भला!

कायस्थों की पढ़ाई अरबी-फ़ारसी से शुरू होती और विलायत की बैरिस्टरी पर खत्म होती। डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद हों या प्रेमचंद-सब मकतब और मदरसा के विद्यार्थी थे। हमलोग बचपन में एक कहावत सुनते थे-पढ़े फ़ारसी बेचे तेल, देखो रे किस्मत का खेल! मर्म है कि कहावत बनने से पहले फारसीदाँ ही को नौकरी मिलती थी। अरबी-फ़ारसी-अंग्रेजी से पढ़ाई आरम्भ कर सच्चिदानंद विलायत पढ़ने गये। बैरिस्टरी की पढ़ाई कर चुकने के बाद तक वे अपना नाम अशुद्ध लिखा करते थे। 1890 में उनकी मुलाकात मैक्समूलर से हुई। मैक्समूलर को भारतविद और संस्कृतज्ञ दिखने की इतनी प्रबल चाह थी कि वह ‘मोक्षमूल’ कहलवाना ज्यादा पसंद करता था। उसी मोक्षमूल ने सच्चिदानंद को बताया कि आप अपना नाम गलत लिखते हो और शुद्ध रूप से परिचय कराया।

सिन्हा साहब जब विलायत से पढ़कर लौटे तो उनके चचेरे बड़े भाई ने उन्हें इलाहाबाद ठहरकर पाप का प्रायश्चित करने को कहा। तब का यही लोकाचार था। गांधीजी के प्रायश्चित भोज के बारे में हम सब जानते हैं। बिहार में डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद के एक रिश्तेदार अभी-अभी पढ़कर लौटे थे। किशोरवयप्राप्त राजेन्द्र ने उस घटना से उत्पन्न विवाद को नजदीक से देखा था। के पी जायसवाल जब विलायत पढ़ने गये थे तो इनकी रसोई का सारा सामान भारत से गया था। अलग से क्या कहना कि इसमें ईंधन का कोयला तक शामिल था। सिन्हा साहब ने इस सामाजिक माहौल में प्रायश्चित करने और भोज करने से बड़े भाई को साफ मना कर दिया। किन्तु वे अपनी ताबीज लाना न भूले थे। तथ्य है कि बालक सच्चिदानंद का जब जन्म हुआ तो उन्हें एक मुसलमान संत के पास ले जाया गया। उस संत ने अपनी मूंछ के बाल उखाड़े और सच्चिदानंद के चाचा को इस हिदायत के साथ दिये कि इसे ताबीज बनाकर वह आजन्म साथ रखे। इस हिदायत का सच्चिदानंद ने आजन्म पालन किया।

1893 में जब वे स्वदेश लौटे तो देखे कि नौकरियों पर बंगाली कुंडली मारे बैठे हैं। महेशनारायण के बड़े भाई गोविंदनारायण बिहार के पहले ग्रेजुएट थे लेकिन बंगालियों के आगे इनकी एक न चल रही थी फलतः बेरोजगार थे। इससे महेशनारायण काफी क्षुब्ध और व्यथित थे। बंगालियों से लड़ने के लिए इन्होंने अखबार की आवश्यकता समझी। बिहार में बंगाली हितों का प्रवक्ता गुरुप्रसाद सेन का ‘बिहार हेरल्ड’ तब मौजूद था। साल भर के अंदर सच्चिदानंद सिन्हा ने ‘बिहारी टाइम्स’ अखबार शुरू किया और महेशनारायण को संपादक बनाया। 1906 में इन दोनों ने मिलकर बंगाल से बिहार के पृथक्करण पर एक पुस्तिका जारी की। इसी वर्ष अखबार का नाम बदलकर ‘बिहारी’ कर दिया गया किन्तु 1907 में महेश बाबू का निधन हो गया और वे अकेले पड़ गये। बंगाल से बिहार को पृथक किये जाने की इस लड़ाई में उन्होंने कायस्थ बुद्धिजीवियों को एक मंच पर ला दिया। अंग्रेजों के प्रति ‘राजभक्ति’ और राष्ट्रीय आंदोलन से ‘विरक्ति’ ने 1912 में बिहार को बंगाल से पृथक होना संभव बनाया।

सच्चिदानंद सिन्हा ने अपने समकालीन नेताओं और बुद्धिजीवियों की जीवनी लिखी है। वे पुस्तकाकार प्रकाशित हैं।अखिल भारतीय स्तर के नेताओं और बद्धिजीवियों वाली किताब जानकी प्रकाशन, पटना से प्रकाशित है तो बिहार वाली किताब हिमालय प्रेस, पटना से। आज किताब का ‘ब्लर्ब’ या ‘आमुख’ किसी वरिष्ठ लेखक से लिखाने का चलन है, किन्तु सच्चिदानंद सिन्हा ने अपनी किताब ‘सम एमिनेंट बिहार कंटेम्प्रेरीज’ का ‘आमुख’ उम्र में काफी छोटे किन्तु उद्भट विद्वान अमरनाथ झा से लिखवाया था! अमरनाथ झा के बारे में कहा जाता है कि अगर शेक्सपियर का सम्पूर्ण साहित्य भी खो जाय तो उनकी सहायता से एक-एक बात फिर से लिख ली जा सकती है। अमरनाथ झा के पिता सर गंगानाथ झा उनके गहरे मित्र थे और इस किताब में उनकी जीवनी भी संकलित है।