संस्कृत भाषा जिसपर हम गर्व करते हैं, की खोज विदेशियों ने ही की- चाहे वे इंग्लैण्ड के हों या जर्मनी के।

 

आज हम जिस संस्कृत भाषा और साहित्य की प्राचीनता पर गर्व करते हैं, उसकी खोज विदेशियों ने ही की- चाहे वे इंग्लैण्ड के हों या जर्मनी के। ‘दि सैक्रेड बुक्स ऑफ द ईस्ट’ श्रृंखला की किताबों को सम्पादित करने का काम जर्मनी के मैक्स मूलर ही ने तो किया। विदेशी के नाम पर अगर हम उनका चश्मा पहनने से इनकार कर दें तो अंधता के अभिशाप से हमें कौन बचा सकता है? तुलनात्मक भाषाशास्त्र (कंपैरेटिव फिलोलॉजी) पर काम करते हुए विदेशी विद्वानों ने ही साबित किया कि संस्कृत दुनिया की प्राचीनतम भाषाओँ में से एक है। विदेशी के नाम पर अगर उनके इस योगदान को स्वीकार करने से बचें तो हमारे पास गर्व करने लायक बचेगा क्या? संस्कृत भाषा और साहित्य की दुनिया में काम करनेवाले कोलब्रुक, ग्रिफिथ, मार्शल, स्मिथ, डिलन, मैक्स मूलर, मौरिस विन्तर्निज तथा आर पिशेल जैसे सैंकड़ों यूरोपीय विद्वानों को अगर भिन्न भौगोलिक सीमा के नाम पर छोड़ दें, स्वदेशी विद्वान हम लाएंगे कहाँ से? कोई हो तब तो? कुछ भारतीय विद्वान हुए भी हैं, तो वे इन्ही विदेशी विद्वानों के काम को आगे बढ़ाते रहे हैं। ये भारतीय विद्वान अपने पूर्ववर्ती विदेशी विद्वान के काम के आगे सिर झुकाकर ही आगे बढ़ते हैं। लेकिन जिन्हें संस्कृत और संस्कृति के नाम पर केवल वोट की राजनीति करनी है उन्हें इन विद्वानों के सम्मुख नतशिर होने की क्या जरुरत?

संस्कृत ही क्यों प्राकृत भाषा और साहित्य पर किसने काम किया? आर पिशेल ने जो ‘प्राकृत भाषाओँ का व्याकरण’ लिखा, उसकी तुलना में किस भारतीय भाषा वैज्ञानिक का नाम हम ले सकते हैं?

संकट है कि अभी तक बाजार में विदेशी चश्मा ही उपलब्ध है। अगर विदेशी न पहनने की अविवेकी जिद हम पाले बैठे हों तो हमें अँधा होने से कोई नहीं बचा सकता। एक सप्ताह पूर्व मैं आंख के डॉक्टर सुभाष प्रसाद के यहाँ गया था। डॉक्टर ने मोतियाबिंद के मरीज से पूछा, ‘कौन सा लेंस लगा दूँ-देशी या विदेशी?’ मरीज का जवाब था, ‘विदेशी, डॉक्टर साहब। मुझे अपनी आंखों की ज्यादा चिंता है।’

संस्कृत का माहात्म्य

हमारे बुद्धिजीवियों में एक विचित्र बीमारी है. आप संस्कृत भाषा की बात करेंगे तो वे आपकी ‘राजनीतिक समझ’ को कठघरे में खड़ा करेंगे.

बचपन में हमें समझा दिया गया कि संस्कृत का मतलब है कुत्ता-मैना की कहानी. पढ़ने की उम्र इसी गलत समझ के साथ निकल गई. जब चालीस के पास पहुंचने लगा तो इतिहास को जानने-समझने के लिए भाषाविज्ञान की किताबें उलटने-पलटने लगा. भाषाविज्ञान ने संस्कृत का द्वार दिखाया. पढ़ना शुरू किया तो संस्कृत के प्रति अनुराग जगा और उसकी वास्तविक औकात का पता चला. संस्कृत से इतिहास को समझना आसान होने लगा. फिर बेटा दसवीं (सी.बी.एस.ई.) की परीक्षा देने को हुआ तो हिन्दी की जगह संस्कृत रखवा दिया. बड़े भाई साहब ने मेरे इस निर्णय को गलत बताया. लेकिन मेरे पास तर्क था कि हिन्दी में बहुत अच्छी तैयारी के बाद भी 80-85 से ज्यादा अंक नहीं आते. संस्कृत में इतने अंक तो बगैर किसी तैयारी के आ सकते हैं. रिजल्ट निकला तो बीस दिन की तैयारी से बेटे को 97 अंक मिले. मेरे सारे विरोधियों का मुंह बंद. मैं संस्कृत का पक्षधर हूँ लेकिन किसी भाषा का विरोध करके नहीं. संस्कृत भारत की, और कुछ हद तक विश्व की अन्य कई भाषाओँ को समझने में मदद कर सकती है. दुनिया की किसी भी भाषा के साथ यही नियम लागू है. चूँकि हम भारत के हैं, इसलिए भारतीय सन्दर्भ में ही बात रखें. भारत की किसी भी भाषा को जानने के लिए संस्कृत एक जरूरी भाषा की तरह है. लेकिन इसे बाध्यकारी न बनाया जाए, इसकी राजनीति न की जाए.

शब्दों में छिपा समाज

शब्द महज अभिव्यक्ति के माध्यम नहीं हैं। वे अपने में इतिहास छिपाये रहते हैं। एक भाषविद के लिए वे पुरातत्व के समान हैं।इनकी खुदाई से हम हजारों वर्षों का इतिहास किसी क्रमभंग के बगैर जान सकते हैं। आइए देखें कि संस्कृत के ये शब्द क्या हाल बयान करते हैं।

संस्कृत ‘अबल’ का अर्थ दुर्बल, बलहीन तथा अरक्षित है। इसी से बना अबला (नास्ति बलम् यस्या) शब्द है जो स्त्री, औरत को ‘अपेक्षाकृत बलहीन होने के कारण’ कहा गया। ‘नूनं हि ते कविवरा विपरीतबोधा ये नित्यमाहुर-बला इति कामिनीनाम्, याभिर्विलोलतरतारक-दृष्टिपातै: शक्रादयो$पि विजितास्त्वबला: कथंता: (भर्तृहरिशतकत्रयम्, 1/11; आप्टे, संस्कृत हिंदी शब्दकोश, पृष्ठ 81) स्त्री को असूर्यम्पश्या भी कहा गया।असूर्यम्पश्य का मतलब है सूर्य को भी न देखनेवाला (सूर्यमपि न पश्यति)। (आप्टे, पृष्ठ 151) प्राचीन काल की अंतःपुर की नारियों के बारे में कहा जाता है कि उन्हें सूर्य देखना भी दुर्लभ था ‘असूर्यमपश्या राजद्वारा:’। (वही, पृष्ठ 151 में उद्धृत) असूर्यम्पश्या का अर्थ हुआ पतिव्रता स्त्री अर्थात सती। सूर्य देखने मात्र से स्त्री का सतीत्व नष्ट हो सकता था। संभव है, सूर्य और कुंती की कहानी का असर हो।

संभवतः ऐसा माना जाता था कि कुल की मर्यादा का भार स्त्रियों के ऊपर है, इसलिए स्त्रियों के लिए बने कई शब्द कुल से निर्मित हैं। ‘आदरणीय तथा उच्च वंश की स्त्री’ ‘कुल अँगना’ कहलाती है, और उच्च कुल में उत्पन्न लड़की ‘कुलकन्या’। उच्चकुलोद्भव सती साध्वी स्त्री कुलनारी है जबकि कुलटा और व्यभिचारिणी स्त्री जो अपने कुल को कलंक लगावे, कुलपांसुका है। उच्चकुलोद्भूत सती स्त्री कुलपालि:, कुलपालिका तथा कुलपाली है। सती साध्वी पत्नी कुलभार्या और अच्छे कुल की सदाचारिणी स्त्री कुलयोषित्, कुलवधू। उच्च कुल की स्त्री कुलस्त्री तथा व्यभिचारिणी स्त्री कुलटा। (आप्टे, वही, पृष्ठ 331-332)

संस्कृत साहित्य में ग्राम्य को अश्लील कहा गया है। अश्लील अर्थ की अभिव्यक्ति करनेवाले कई शब्द इसी ग्राम्य से बने हैं। स्त्रीसंभोग अथवा मैथुन को ‘ग्राम्यधर्म’ कहा गया है, और वेश्या तथा रंडी को ‘ग्राम्यवल्लभा’। (आप्टे, वही, पृष्ठ 399)

आश्चर्य की बात है कि स्त्री की दुरवस्था के बावजूद माता का स्थान सम्मान का है। मां को अम्बा भी कहा जाता है। अम्बा का अर्थ है भद्र महिला या भद्र माता। स्नेह अथवा आदरपूर्ण संबोधन में भी इसका प्रयोग होता है। वैदिक संबोधन अंबे है, बाद की संस्कृत में अम्ब। ‘किमम्बाभि: प्रेषित:, अम्बानां कार्यं निर्वर्तय’ (शकुंतला, 2) कृतांजलिस्तत्र यदम्ब सत्यात् (रघुवंश, 14/16; आप्टे, पृष्ठ 101)

स्त्री की इस दुरवस्था के कई कारण हैं। एक कारण शिक्षा से उनकी दूरी भी है। स्त्री के लिए अमंत्रक शब्द का प्रयोग देखने को मिलता है, जिसका अर्थ है, ‘जो वेदपाठ से अनभिज्ञ हो’ या ‘जिसे वेद पढ़ने का अधिकार न हो’, जैसे शूद्र या स्त्री। (आप्टे, पृष्ठ 97)

कुछ अन्य संस्कृत शब्दों के बारे में

दुहितृ/दुहिता

लड़की के लिए संस्कृत में दुहितृ शब्द का चलन है। प्रचलित है कि व्युत्पत्ति विज्ञान के मनीषी महर्षि यास्क ने इसकी तीन व्युत्पत्ति बताई है-(क) ‘दूरे हिता भवति’ अर्थात वह जिसके अधिक से अधिक दूर जाने में हित हो (ख) ‘दुहिता दुर्हिता’ अर्थात सुंदर एवं सुयोग्य वर खोजकर हितसाधन करना अत्यंत कठिन होता है (ग) ‘दोग्धेर्वादुहिता’ अर्थात कन्या सदैव पिता से कुछ न कुछ प्राप्त करती है, इसलिए दुहनेवाली होने से वह दुहिता कही जाती है। (ब्रजमोहन पांडेय ‘नलिन’, व्युत्पत्ति विज्ञान : सिद्धांत और विनियोग, जानकी प्रकाशन, 1986) ये तीनों व्युत्पत्ति मूल रूप से यास्क की न होकर भिन्न कालखंड की भौतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक दशा की उपज लगती हैं। यास्क इसके संकलनकर्ता हो सकते हैं।

तीसरी व्युत्पत्ति आर्यों के उस जमाने की याद दिलाती है जब समाज पूर्ण रूप से पितृसत्ता के अधीन न हुआ था। संपत्ति का हस्तांतरण पिता से पुत्र को न होकर माता से पुत्री को होता रहा होगा। पशु ही पशुचारी आर्यों की संपत्ति के एकमात्र रूप थे। निश्चित रूप से तब दूध दुहने का काम लड़कियां ही सम्पन्न करती रही होंगी। अकारण नहीं है कि वैदिक संस्कृत में दुहितृ शब्द का अर्थ दुहनेवाली है।

‘दूरे हिता भवति’ उस काल की व्युत्पत्ति जान पड़ती है जब समान गोत्र और समान कबीले के अंदर लड़की की शादी निषिद्ध हो चुकी थी। आर्यों की आरंभिक शादियां गोत्र और कबीले के अंदर तो क्या भाई-बहन के बीच होती रही थी। ऋग्वेद का यमी-यम प्रणय-संवाद इस बात को काफी हद तक पुष्ट करते नजर आते हैं।

अनुलोम/प्रतिलोम

वैदिक साहित्य में ‘अनुलोम’ एवं ‘प्रतिलोम’ शब्द विवाह के अर्थ में नहीं प्रयुक्त हुए हैं। बृहदारण्यकोपनिषद (2/1/15) एवं कौषीतकि ब्राह्मनोपनिषद (4/18) में ऐसा आया है कि यदि एक ब्राह्मण ब्रह्मज्ञान के लिए किसी क्षत्रिय के पास जाय तो वह ‘प्रतिलोम’ गति कही जायगी। संभवतः इसी अर्थ को कालांतर में विवाह के लिए भी प्रयुक्त कर दिया गया। (पी वी काणे, धर्मशास्त्र का इतिहास, प्रथम भाग, पृष्ठ 118)

स्नातक

आपस्तम्बगृह्यसूत्र (5/12-13), हिरण्यकेशिगृह्यसूत्र (1/9/1), याज्ञवल्क्य (1/51), पारस्करगृह्यसूत्र (2/6-7) ने स्नान शब्द को दोनों अर्थात छात्र-जीवन के उपरांत स्नान तथा गुरु-गृह से लौटने की क्रिया के अर्थ में प्रयुक्त किया है। (धर्मशास्त्र का इतिहास, प्रथम भाग, पृष्ठ 179) ज्ञान-जल से नहाये हुए को स्नातक कहा गया। सम्भवतः बाद में जब ज्ञान की नदी सूख चली तो पानी से नहाने को ही स्नान कहा जाने लगा।

उपेक्षित

‘उपेक्षितव्या:’ का मूल/पुराना अर्थ है ‘समीप जाकर देखना चाहिए’। बाद में इसका अर्थ तिरस्कार हो गया। निरुक्त में यह पुराने अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। ‘आंखों के अत्यंत निकट रहने से अनादर होता ही है’, इस प्रकार यह अर्थ आया। (सत्यव्रत, ‘सेमैंटिक्स इन संस्कृत’, पूना ओरिएंटलिस्ट, जनवरी, 1959)

उत्सर्या

शब्द कैसे अपना रूप बदलता है इसको जानना आसान नहीं हो सकता। किन्तु इस बदलाव को जाने बगैर न समाज समझा जा सकता है न ऐतिहासिक विकास। बचपन में एक शब्द अक्सर सुना करता था। ओसरी यानी ओसरी गाय। बहुत दिनों तक लगा कि गाय की कोई नस्ल होगी। दरअसल यह संस्कृत का उत्सर्या शब्द है। उत्सर्या से ओसरिया बना होगा और फिर ओसरी। बाछी जब समागम के लायक हो जाती है तो उत्सर्या कहलाती है।