हरीकिशन तलवार, पठानों की मौत का बदला लेने वाला महान क्रांतिकारी

 

हरीकिशन तलवार का जन्म सन 1909 में मरदान के सरहदी इलाक़े गल्ला ढेर में हुआ था, इस वजह कर हरिकिशन सरहदी के नाम से भी जाने गए. उनके वालिद का नाम गुरुदास मल था, जो ख़ुदाई ख़िदमतगार नामक संगठन के सदस्य थे. हरिकिशन सरहदी ने बचपन से अंग्रेज़ों के विरुद्ध आंदोलन में हिस्सा लेना शुरू कर दिया था, शुरुआत ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान के ख़ुदाई ख़िदमतगार से हुई, अहिंसा का रास्ता अपनाया. फिर हिंसा में यक़ीन रखने वाले नौजवान भारत सभा के सदस्य बन गए.

हुआ कुछ यूँ के 1930 के सविनय अवज्ञा आन्दोलन में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया. 30 अप्रैल 1930 को पेशावर के क़िस्साख़ानी बाज़ार में अंग्रज़ों ने मौलवी अब्दुर रहीम की क़यादत में आंदोलन कर रहे ख़ुदाई ख़िदमतगार के आंदोलनकारी पर गोली चलवा दी, सैंकड़ों मौक़े पर ही शहीद हो गए, और सैकड़ों को क़ैद कर लिया गया, गिरफ़्तार होने वालों में हरिकिशन सरहदी भी थे. कम उम्र के थे इसलिए अंग्रेज़ों ने माफ़ीनामा लिखवा कर छोड़ दिया. जब ये बात उनके वालिद को पता चली तो उन्हें गहरा सदमा पहुँचा के एक पठान का बच्चा अंग्रेज़ों से माफ़ी कैसे मांग सकता है? इस हादसे से हरिकिशन सरहदी पर गहरा प्रभाव छोड़ा, उन्होंने अपना खोया हुआ वक़ार वापस पाना था.

इसी बीच नौजवान भारत सभा के सदस्यों ने हरिकिशन से राब्ता क़ायम किया, और फिर वो इस संगठन के सदस्य हो गए. इंतेक़ाम की आग में जल रहे हरिकिशन के लिए एक अच्छा मौक़ा हाथ लगा, उन्हें संगठन द्वारा पंजाब के गवर्नर का क़त्ल करने का कार्य मिला, और वो इसे अंजाम देने को तैयार हो गए. जब ये बात उनके वालिद गुरुदास मल को पता चली तब उन्होंने अपने बेटे को बताया के वो जो करने जा रहे हैं, उसका सिर्फ़ एक ही अंजाम है, और वो है मौत….. और उन्हें जज़्बात में आये बग़ैर अपने फ़ैसले के बारे में सोचना चाहिए…. जिसके बाद हरिकिशन सरहदी ने बड़े ही मासूमियत से जवाब दिया के वो एक बहादुर पठान की औलाद हैं, वो किसी का भरोसा नहीं तोड़ सकते, और अब क़दम पीछे करना ना सिर्फ़ उनके बल्कि उनके पुरे ख़ानदान के लिए शर्म की बात होगी, और इस शर्म के साथ जीने से बेहतर मैं फ़ख्र के साथ मरना पसंद करूंगा. इसलिए आप मुझे अपनी दुवाओं से नवाज़ें के मैं अपने मक़सद में कामयाब हो जाऊं.

अपने बेटे हरिकिशन के जज़्बे को देख गुरुदास मल काफ़ी प्रभावित हुवे, और हथियार चलने की ट्रेनिंग ख़ुद देने का वादा किया, यहाँ तक के उन्होंने ख़ुद ही पिस्तौल का इंतज़ाम भी किया. वो अपने इलाक़े के मशहूर निशानेबाज़ थे. अपने वालिद और दीगर लोगों से ट्रेनिंग लेकर हरिकिशन सरहदी लाहौर के लिए निकल पड़े.

23 दिसम्बर, 1930 को पंजाब यूनिवर्सिटी, लाहौर के दीक्षांत समारोह हो रहा था, इस समारोह के अध्यक्ष पंजाब के गवर्नर ज्योफ़्रे डी मोरमोरेंसी थे. और मुख्य वक्ता सर्वपल्ली राधाकृष्णन थे. अपनी पूरी तैयारी के साथ हरिकिशन भी सूट-बूट पहन कर दीक्षांत भवन में उपस्थित थे. डिक्शनरी के बीच के हिस्से को काटकर उसमे रिवाल्वर रखकर समारोह की समाप्ति का इंतज़ार करने लगे. समारोह समाप्त होते ही लोग निकलने लगे. हरिकिशन एक कुर्सी पर खड़े हो कर गोली चला दी, एक गोली गवर्नर की बांह और दूसरी पीठ को छिलती हुई निकल गयी. तब तक डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन गवर्नर को बचाने के लिए उनके सामने आ गये. अब हरिकिशन ने गोली नहीं चलायी और सभा भवन से निकल कर बाहर आ गये. दरोग़ा चानन सिंह पीछे से लपके और वो हरिकिशन की गोली का शिकार बन गये, एक और दरोग़ा बुद्ध सिंह वधावन ज़ख़्मी होकर गिर पड़ा. कुल छः राउंड गोली चला कर हरिकिशन अपना रिवाल्वर वापस भरने लगे; पर इसी दौरान पुलिस ने उन्हें धर दबोचा.

इसके बाद हरिकिशन सरहदी पर दरोग़ा चानन सिंह के क़त्ल का मुक़दमा चला और अदालत की करवाई में हरिकिशन ने बहादुरी का मुज़ाहरा किया, और अंग्रेज़ी ज़ुल्म की दास्तां बयां की, उन्होंने अपनी करवाई को क़िस्साख़ानी बाज़ार क़त्लएआम, मरदान के मिरवास डेहरी क़त्लएआम और हबीब नूर नाम के क्रन्तिकारी के मौत का बदला बताया. अपने तरफ़ से कोई सफ़ाई पेश नहीं की, ये कह कर ‘इंक़लाब ज़िंदाबाद’ कहा के अगर अंग्रेज़ी ज़ुल्म नहीं बंद हुवे तो मेरे जैसे हज़ारों हरिकिशन पैदा होंगे, जो अंग्रेज़ों से अपने मुल्क हिंदुस्तान को आज़ाद करवा लेंगे. आख़िर लाहौर के सेशन जज ने 26 जनवरी 1931 को उन्हें सज़ाये मौत सुना दी. बाद में हाई कोर्ट ने भी सज़ा पर मोहर लगा दी. आख़िर 9 जून, 1931 को मात्र 22 साल की उम्र में लाहौर के मियां वाली जेल मे हरी किशन सरहदी को फांसी के फंदे पर लटका दिया गया.

अगले रोज़ फांसी की ख़बर पेशावर पहुंची, नौजवान सभा ने इसका विरोध में प्रदर्शन किया, पुरे शहर में धारा 144 लगा दिया गया. 11 जून को एक श्रद्धांजलि सभा पेशावर के शाही बाग़ में संयोजित किया गया, मौलवी अब्दुर रहीम और अब्दुल ग़फ़ूर भी उसमे शामिल हुवे, उन्होंने भगत सिंह और हरी किशन सरहदी सहित तमाम शोहदा को श्रद्धांजलि देते हुवे तक़रीर की, जिसे अंग्रेज़ों ने बाग़ियाना माना और इन दोनों को जेल की सलाख़ों के पीछे डाल दिया.

हरिकिशन के वालिद गुरुदास मल को भी गिरफ़्तार कर लिया गया, क़ैदख़ाने के अंदर उन पर हर तरह के ज़ुल्म ढाये गए, पर उन्होंने अंग्रज़ों के सामने झुकने से इंकार कर दिया, यहाँ तक के ज़मानत राशि दे कर उन्हें क़ैद से बाहर आने का मौक़ा भी दिया गया, पर उन्होंने इंकार कर दिया, आख़िर बेटे की शहादत के 27 दिन के बाद क़ैदख़ाने में गुरुदास माल का भी इंतक़ाल हो गया.

वैसे हरिकिशन के छोटे भाई भगतराम तलवार ने 1941 में नेताजी सुभाष चंद्र बोस को ब्रिटिश हुकूमत के सख़्त पहरे के बीच से निकलकर काबुल पहुंचने में मदद की थी.

Md Umar Ashraf

Md. Umar Ashraf is a Delhi based Researcher, who after pursuing a B.Tech (Civil Engineering) started heritagetimes.in to explore, and bring to the world, the less known historical accounts. Mr. Ashraf has been associated with the museums at Red Fort & National Library as a researcher. With a keen interest in Bihar and Muslim politics, Mr. Ashraf has brought out legacies of people like Hakim Kabeeruddin (in whose honour the government recently issued a stamp). Presently, he is pursuing a Masters from AJK Mass Communication Research Centre, JMI & manages heritagetimes.in.