जिगर मुरादाबादी :- कहते हैं, सबब रुस्वाई का होती है मैकशी, जिगर को मैकशी ने मगर मुम्ताज़ कर दिया।

 

आलम क़ुरैशी

जिगर मुरादाबादी, एक एैसे शायर, जिन्होंने हुस्न को टूटकर चाहा, जी जोड़ मुहब्बत की और जब ख़ुद टूटे, तो इलाजे ग़म के लिए शराब के क़तरों में भी पनाह लेने से गुरेज़ नहीं किया। और शायरी में जो कमाल किया, उसके तो क्या कहने, जिस मंच पर चढ़े, अपना करके ही उतरे।

मुमकिन है मैनोशी की गुंजाइश नाकाम इश्क़ के बाद बनी हो, जबकि शायरी की ज़मीन, आशिक़ मिज़ाजी के चलते ग़ालिबन लड़कपन में ही तैयार हो चुकी थी। और इसमें ख़ास किरदार निभाया उनकी बीमारे इश्क़ तबीयत ने। और ये सारा तज़्किरा है अपने दौर के लासानी शायर जिगर मुरादाबादी का, जिनका अस्ल नाम अली सिकंदर था।

जिगर ने 6 अप्रैल 1890 को शायर पिता मौलाना अली ‘नज़र’ के घर जन्म लिया। इब्तिदाई तालीम तो हासिल कर ली लेकिन बेपरवाह तबीयत के अलावा कुछ घरेलू परेशानियों के चलते आगे की पढ़ाई न हो सकी। वैसे भी किताबी पढ़ाई को शायरी के लिए वो नुकसानदेह भी समझते थे। हालांकि अपने ज़ाती शौक़ की वजह से उन्होंने घर पर ही फ़ारसी सीख ली। इस वक़्त तक उनका नाम अली सिकंदर ही था।

एक बार आगरे की तवायफ़ वहीदन से इश्क़ कर बैठे, शादी की और जल्द ही बेमेल मिज़ाज के चलते तअल्लुक़ तर्क भी कर लिया। यहां से छूटे, तो मैनपुरी की एक गायिका शीरज़न से दिल लगा बैठे, आख़िर इस मोहब्बत का अंजाम भी पहले की दीगर मुहब्बतों जैसा हुआ। बारहा ठोकरों के बावजूद ये ‘जिगर’ का ही जिगर था, जो न इश्क़ से ग़ाफ़िल हुए, न हुस्न से बेपरवाह। एक बार मशहूर गायिका अख़्तरी बाई फैजाबादी (बेगम अख़्तर) के शादी के पैग़ाम को भी ‘जिगर’ ठुकरा चुके थे।

‘जिगर’ पीते ज़रूर थे, मगर थे बहुत नेक और सलीक़ेमंद इंसान। लोगों की मदद करके वो अक्सर भूल जाया करते थे। ‘जिगर’ इस बात के हामी थे कि, किसी की इम्दाद करने के बाद, उसके सामने जाने से बचना चाहिए, क्योंकि ऐसे में सामने वाले के शर्मसार होने का पूरा-पूरा अंदेशा होता है। बुज़ुर्ग होने पर भी अपने से काफी कम उम्र लोगों या नई नस्ल के शायरों के साथ ख़ूब लतीफ़ेबाज़ी किया करते। ख़ातिरदारी तो ख़ूब करते, मगर टांग खींचने के मौके भी ज़ाया नहीं करते।

इस पर भी दिलकश तरन्नुम में वो शायरी पढ़ते कि सुनने वाले दीवाना हुए बग़ैर नहीं रहते। और मुशायरा तमाम होते-होते महफ़िल भी अपने नाम कर जाते। जिस मंच पर ‘जिगर’ हों, वो मंच फिर उनका ही होता था, किसी और का नहीं।।

ये शेर कहने का जिगर, ‘जिगर’ के अलावा किसका हो सकता है कि-

मुझे उठाने को आया है वाइज़े-नादां,
जो उठ सके तो मेरा साग़रे-शराब उठा
किधर से बर्क़ चमकती है देखें ऐ वाइज़,
मैं अपना जाम उठाता हूं, तू किताब उठा।