इन दिनों पटना के गांधी मैदान के उत्तर ए.एन. सिन्हा इंस्टिट्यूट चर्चे में है, क्यूँकि अब तक बहुत कम लोगों को पता था कि उसी परिसर में पश्चिम की ओर एक जीर्ण-शीर्ण भवन में 1947 में करीब 40 दिनों तक महात्मा गांधी ठहरे थे। और अब कुछ गांधीवादी लोग उसमें गांधी शिविर का आयोजन करना चाहते हैं, पर इंस्टिट्यूट के अधिकारी इसकी अज्ञा नही दे रहे हैं। इसको लेकर सोशल मीडिया पर काफ़ी चर्चा भी हो रहा है। अधिकतर लोगों के लिए इस जगह गांधी जी का लम्बे समय तक ठहरना ही हैरतअंगेज़ है, आख़िर गांधी जी आए ही क्यूँ?
अब आते हैं मुद्दे पर की इस इमारत की ख़ूबी क्या है? गांधी यहाँ क्यूँ ठहरे? गांधी बिहार क्यूँ आए ? असल में बिहार में अक्तूबर 1946 के आख़िर में भयावह मुस्लिम विरोधी क़त्ल ए आम हुआ था, कई हज़ार लोग क़त्ल किए गए थे। लाखों बेघर हुवे थे। तक़ी रहीम अपनी किताब ‘तहरीक ए आज़ादी में बिहार के मुसलमानो का हिस्सा’ में लिखते हैं कि कांग्रेसी नेताओं ने ही आग लगाया था, केबी सहाय, मुरली मनोहर प्रासाद , जगत नारएण लाल जैसे लोगों ने 25 अक्तुबर 1946 को नोआखाली डे मनाने का एलान कर दिया; और इस दिन पटना की सड़को पर “ख़ून के बदले ख़ून से लेंगे” जैसे भड़काऊ नारे लगाते हुए बहुत सारे जुलूस गांधी मैदान जमा हुए और वहां केबी सहाय की अध्यक्षता मे आम जलसा हुआ।
जब गाँधी ने पुछा : क्या जामिया मिल्लिया इस्लामिया सुरक्षित है?
इसके बाद मामला बढ़ता गया, दंगे की शुरुआत 26 अक्तुबर 1946 को छपरा शहर में हुई, ख़बर सुनने के बाद डॉक्टर सैयद महमूद मुख्यमंत्री श्री कृष्णा सिंह के साथ वहां पहुंच गए, इस लिए सुरतहाल पर जल्द क़ाबु पा लिया गया। ये इलाक़ा तो शांत रहा पर मगध का इलाक़ा पुरी तरह जल उठा जिसमे पुरा पटना ज़िला, गया, जहानाबाद, नालंदा, नवादा, मुंगेर बर्बादी के दहाने पर खड़ा हो गया और 28 अक्तुबर तक तो ये आग पटना से होते हवे छपरा, भागलपुर, संथाल परगना पहुंच गई।
इसमें बिहार के सर्च लाईट, इंडयन नेशन जैसे अंग्रेज़ी अख़बार और हिन्दी मे आर्यावर्त व प्रादीप जैसे अख़बार ने एैसा आग लगाया के पुरे बिहार के हिंदुओं के दिलो मे मुसलमानो के ख़िलाफ़ आग सी लग गई. यहां पर बता दुं सर्च लाईट और प्रादीप कांग्रेसी अख़बार थे और उसके इडि्टर मुरली मनोहर प्रासाद जैसे पुराने कांग्रेसी लीडर थे.
“नोआखाली और बंगाल का हत्याकांड देश के पुरुषत्व पर लांछन है.’’ कुछ ऐसा अख़बार का सार था. बता दुं के सर्च लाईट अख़बार को सैयद हसन ईमाम ने अपना ज़ाती पैसा ख़र्च कर निकाला था।
नोआखाली के क़त्लेआम का बदला तिलहाड़ा, मुबारकपुर, घोरहवां, मसौढ़ी, मसत्थू जैसे सैंकड़ों गांव से मुसलमानो का नामोनिशान मिटा लिया गया और ये वोह गांव थे जहां मुसलमान कई सौ साल से रहता आ रहा था।
क़त्ल ए आम में कोई कमी नही आई तो 3 नवम्बर 1946 को जवाहरलाल नेहरु, नवाब लयाक़त अली, सरदार अब्दुर रब नशतर सहीत कई बड़े नेता पटना पहुंच गए; पर फ़साद मे कोई कमी नही आई; तब राजेंद्र बाबू ने देखा की उन लोगों से कुछ नही हो पाएगा तो 5 नवम्बर को एक प्रेस कॉनफ़्रेंस कर के ये एलान किया के गांधी जी ने फ़ैसला किया है कि अगर बिहार मे फ़साद 24 घंटे मे नही रुका तो वो “मर्न बर्त” शुरु कर देंगे।
तुमने गांधी को भुला दिया, जैसे तुमने बुद्ध को भुला दिया था : बादशाह ख़ान
ज्ञात हो के इस प्रेस कानफ़्रेंस मे आचार्य कृपलानी भी मौजूद थे। जिनके बारे में तक़ी रहीम लिखते हैं कि सुचेता कृपलानी और आचार्य कृपलानी जैसे ज़िममेदार कांग्रेसी लीडरों ने नोआखाली क़त्ल ए आम के बाद कुछ एैसी मुबालग़ाआराई से काम लिया के पुरे मुल्क भर के हिन्दु मुसलमानो के ख़िलाफ़ हो गए।
इसके बाद 6 नवम्बर 1946 को गांधी जी ने बिहार को ख़िताब करते हुए एक बयान जारी किया जिसमे कहा के :- “प्रधानमंत्री (नेहरु) और उनके मंत्री की वहां मुसलसल मौजुदगी ही बिहार की कहानी बख़ूबी बयाँ कर रही है.
6 नवंबर को ही नोआखाली में गांधी ने घोषणा की के जब तक बिहार में पालगपन बंद नहीं होता, वे हर रोज़ आधे दिन का उपवास रखेंगे, तक़ी रहीम के अनुसार इस घोषणा के बाद बिहार की हिंसा में एकदम से कमी आ गई थी।
मुसलमानो का कांग्रेस पर यक़ीन बिलकुल ही उठ चुका था क्युंके बिहार मे हुए फ़साद की जड़ कांग्रेसी वर्कर ही थे। फिर भी मुसलमानो का हौसला इतना ज़रुर बरक़रार था के वो हालात का मुक़ाबला बिहार मे रह कर करना चाहते थे।
इसलिए जानलेवा बिमारी मे मुबतला होने को बाद भी सैयद अब्दुल अज़ीज़ ने दंगाग्रस्त इलाक़ो के मुसलमानो की पुनर्वास के लिए एक एैसी स्कीम पेश की जिसे लीग और कांग्रेस दोनो हलक़ो के मुसलमानो ने पसंद किया और इसपर हुकुमत से बाते भी कीं, मगर अभी ये बात चल ही रही थी के बंगाल के मुख्यमंत्री ‘सैयद शहीद सहरवर्दी’ ने यहां आकर ये एलान कर दिया के हम बंगाल मे पीड़ित मुससमानो को बसाने के लिए तैयार हैं और इस सिलसिले मे तबाहशुदा मुसलमानो के लिए उन्होने आसंनसोल मे रिलीफ़ कैंप खोला है, जिसके बाद तबाहशुदा मुसलमानो का रुख़ उस जानिब हो गया और आज भी आसनसोल में बड़ी तादाद मे बिहारी मुसलमान रहते हैं।
और इसी बीच कांग्रेस और लीग हिन्दुस्तान के बटवारे पर राज़ी हो गई इसलिए आम मुसलमान भी ज़मीन जायदाद बेच कर बंगाल मे बसने लगे और कुछ लोगों ने मिलकर कराची मे एक छोटी सी बिहार कॉलोनी बसाई।
बहुत कम दाम मे बनिये ने खेतों को ख़रिदा था,
हम उसके बावजुद उस पर बक़ाया छोड़ आए हैं.
पर इन तमाम हालात के बाद बहुते बड़ी तादाद मे वोह उजड़े हुए मुसलमान भी थे जो किसी भी हाल मे बिहार की सरज़मीन को छोड़ने को तैयार नही थे.. ये लोग अपने गांव तो वापस नही गए पर आस पड़ोस के बचे हुए मुस्लिम आबादी वाले गांव, क़सबे और शहर मे बस गए.. जैसे पटना, बाढ़, जहानाबाद, गया, शरीफ़, नवादा आदि।
ज़मीने मुंतक़िल करते हुए एक कोरे काग़ज़ पर,
अंगुठा कब लगाया था, अंगुठा छोड़ आए हैं..!
लेकिन ज़मीन बेचने वाले और ख़रीदने वालों के बीच की भगदड़ कम होने का नाम नही ले रही थी तो आख़िर मे तंग आकर डॉक्टर सैयद महमूद और दिगर मुस्लिम नेताओं ने गांधी जी से नोआखाली का दौरा रद कर बिहार आने की इलतेजा कर डाली।
आख़िर दंगे के चार महीने दस दिन बाद 5 मार्च, 1947 को गांधी जी बिहार पहुंच गए; और सैयद महमूद की कोठी में ठहरे। इसी मकान से गांधी जी रिलीफ़ कामों पर नज़र बनाए थे। यहीं से प्रेस कॉन्फ़्रेन्स किया, दंगा ग्रसित इलाक़ों का दौरा किया। अरुण सिंह अपनी किताब ‘पटना खोया हुआ शहर’ में लिखते हैं महात्मा गांधी अपने कुछ सहयोगियों निर्मल कुमार बोस, मनु गांधी, सैयद अहमद, देव प्रकाश नायर, सैयद मुज़्तबा के साथ 5 मार्च 1947 को पटना आकर सैयद महमूद के इसी घर में ठहरे। वस्तुतः यह मुख्य भवन के साथ जुड़ा हुआ उपभवन था। किन्तु गांधी जी ने यहीं ठहरना उपयुक्त समझा था। उनके बुलावे पर 8 मार्च को सीमांत गांधी भी चले आये और गांधी के साथ यहीं रुके।
गांधी ने यही रहकर डॉ राजेंद्र प्रसाद, डॉ अनुग्रह नारायण सिन्हा और ऐसे ही और गणमान्य नेताओं से बिहार की स्थिति की जानकारी ली। गांधी ने हिन्दू मुसलमानों के बीच शांति की स्थापना के लिए लगातार बैठकें कीं। अनेकों सभाएं और प्रार्थनाओं का दौर चलता रहा। महात्मा गांधी यहीं रहते हुए बिहार के सुदूर गांवों में भी गए। यहाँ प्रेस वार्ताएं, प्रमुख नेताओं से मुलाकात उनकी दिनचर्या में शामिल था।
30 मार्च 1947 को जब लार्ड माउन्टबेटेन का बुलावा आया, तो गांधी यही थे। माउन्टबेटेन के बुलावे पर वे दिल्ली गए।15 दिनों के बाद 14 अप्रैल 1947 को वे फिर पटना वापस आ गए। 24 मई 1947, वे जब तक यहाँ ठहरे निरंतर शांति स्थापना के प्रयासों में जुटे रहे।
असल ये मकान डॉक्टर सैयद महमूद का था। इसे उन्होंने खरीदा था, या बनवाया था ये बहस का मुद्दा हो सकता है, पर ये इमारत कहलाती थी सैयद महमूद की कोठी ही। सैयद महमूद अपने ज़माने के इंडियन नेशनल कांग्रेस के बड़े नेता थे।
अलीगढ़ से पढ़ाई की, बैरिस्टरी करने इंग्लैंड गए, 1912 में जर्मनी से पी.एच.डी किया और सैयद महमूद से डॉक्टर सैयद महमूद हो कर हिन्दुस्तान लौटे।
1913 में डॉ सैयद महमूद ने पटना आ कर मौलाना मज़हरुल हक़ की ज़ेर ए निगरानी लीगल प्रैकटिस करने लगे। इधर कानपुर में मछली बाज़ार स्थित मस्जिद को भारी विरोध के बावजूद शहीद कर दिया गया, जिसके विरोध में जलसा हुआ ल। जलसे मे तक़रीबन पचास हज़ार लोग शरीक हुए थे; जिस पर अंग्रेज़ो ने गोली चलवा दी थी; जिससे मौक़ा ए वारदात पर 70 लोग शहीद हो गए। साथ ही दफ़ा 144, 333 ताज़ीरात ए हिन्द के तहत सैकड़ों लोग गिरफ़्तार भी कर लिए गए, जिसमें बच्चे भी थे। मामला काफ़ी नाज़ुक था; हुकुमत के ख़िलाफ़ कोई भी वकील केस लड़ने को आगे नही आया; तब मज़हरुल हक़ ने इस केस की पैरवी की और मौलाना मज़हरुल हक़ की हिम्मत को देख काफ़ी तादाद में वाकील उनकी मदद करने आगे आये जिनमे एक नाम सैयद महमूद का भी था जो बाद मे उनके दामाद भी बने! 1915 में मौलाना मज़हरुल हक़ की भतीजी से शादी हुई। आख़िरकार इस केस में जीत होती है, सारे लोग रिहा होते हैं, मस्जिद वापस तामीर होती है। मौलाना मग़फ़ूर अहमद ऐजाज़ी के हवाले से एक मशहूर क़िस्सा सुनने को मिलता है, जिसमे मछली बाज़ार मस्जिद गोलीकांड केस जीतने के बाद मौलाना मज़हरुल हक़ कानपूर आते हैं, बड़ी तादाद में लोग उनके इस्तक़बाल में मौजूद रहते हैं, वो रेलवे स्टेशन से बग्घी पर सवार होते हैं, पर जैसे ही बग्घी कुछ आगे बढ़ती है, कानपूर शहर के लोग उनके बग्घी को रोक देते हैं, और उससे जुड़े घोड़े को आज़ाद कर देते हैं, और ख़ुद ही बग्घी को ख़ैंच कर पुरे शहर मे घुमाते हैं! मौलाना ज़फ़र ने “ज़मीनदार” और मौलाना आज़ाद ने “अल हेलाल” में इस मछली बाज़ार मस्जिद गोलीकांड केस को बहुत सलीक़े से कवर किया है!
वैसे मज़ेदार चीज़ ये है की गांधी अपने पहले बिहार दौरे में मज़हर उल हक़ के घर 10 अप्रैल 1917 को ठहरे थे। और आख़री बिहार दौरे में सैयद महमूद की कोठी में। कुल मिला कर सैयद महमूद का दंगे से पुराना रिश्ता रहा है, अपने केरियर की शुरुआत उन्होंने मछली बाज़ार मस्जिद गोलीकांड केस से की, वहीं अपने सियासत के उरूज पर उन्होंने बिहार मुस्लिम विरोधी दंगे देखे। पर इस दौरान उन पर कुछ इल्ज़ाम भी लगे।
प्रोफ़ेसर इक़बाल हुसैन अपनी ख़ुद-नविश्त दास्तान मेरी में लिखते हैं कि ख़ान बहादुर नवाब शाह वाजिद हुसैन जो ख़ुसरुपुर के ज़मींदार थे; वो उनके बंगले में बहैसियत किरायेदार रहते थे। और फ़साद के दौरान उनके कुछ रिश्तेदार उनके यहाँ आ कर रुके थे।
प्रोफ़ेसर इक़बाल हुसैन लिखते हैं के 30 अक्तूबर को ये अफ़वाह उड़ा के पटना में फ़साद और हंगामा होने वाला है, शहर में अंग्रेज़ी फ़ौज के आ जाने की वजह कर कुछ नही हुआ, और रात यूँ ही जाग कर गुज़री।
उधर नवाब शाह वाजिद हुसैन के साथ सैयद हुसैन इमाम ठहरे हुवे थे, जो मुस्लिम लीग के बड़े नेता थे। 31 अक्तूबर 1946 की रात मसौढ़ी के मुसलमानो के लिए क़यामत की रात थी। बड़ी तादाद में वहाँ के मुसलमानो को जाल में फँसा कर रेलवे स्टेशन पर क़त्ल किया गया था।
इधर मुसीबत की इस रात को डॉक्टर सैयद महमूद जो इस समय बिहार के शिक्षा मंत्री के साथ कई बड़ी मंत्रालय का बोझ अपने काँधे पर ले रखा था; सैयद हुसैन इमाम के साथ एक दावत में शरीक हुवे। ये दावत मिस्टर बख़्शी जो कमिश्नर थे, ने अपने रिहाइशगाह पर दिया था।
मिस्टर बख़्शी अपनी मोटर कार पर डॉक्टर सैयद महमूद को बैठा कर नवाब शाह वाजिद हुसैन के आवास पर सैयद हुसैन इमाम को लेने ख़ुद आए। इधर दावत में शरीक होने के लिए सैयद हुसैन इमाम अच्छे लिबास पहन कर बख़्शी साहब का इंतेज़ार कर रहे थे।
उस समय प्रोफ़ेसर इक़बाल हुसैन के वालिद अहमद हुसैन साहब जो ख़ुद एक रिटायर्ड आइसीएस ओफ़िसर थे, नवाब साहब के आवास पर मौजूद थे। जैसे ही मोटरगाड़ी आ कर रुकी ने सैयद महमूद जो अलीगढ़ में उनके साथी थे; को मोटर गाड़ी से उतार कर अपने साथ लाए और कहा आप तो मसौढ़ी के मज़लूम मुसलमानो की जान तो बचा न सके मगर अब उनकी लाशों को दफ़न करवा दें। और ज़ख़्मियों के इलाज का जल्द बंदोबस्त कराएँ। कमिश्नर के घर जा कर दावत खाने का ये कौन सा मौक़ा है? इसके बाद डॉक्टर सैयद महमूद थोड़ी देर ख़ामोश रहे फिर बोले के मै अभी रेलवे स्टेशन जा कर चीज़ों का जायज़ा लूँगा और जो चीज़ मुझ से मुमकिन हो सकेगा करूँगा। और उसके बाद डॉक्टर सैयद महमूद और सैयद हुसैन इमाम गाड़ी पर बैठ कर दावत खाने चले गए।
मैं जिनको हाल उनका आज रो रो कर सुनाता हूँ
किसी सूरत नही सुनते वो ग़ाफ़िल बदगुमाँ मेरी
दंगो में अपना सब कुछ लुटा चुका एक मुसलमान जब 11 साल बाद पहुँचा अपने गाँव
डॉक्टर कलीम आजिज़ ने अपनी किताब “वो जो शायरी का सबब हुआ” में लिखते हैं : 4 नवंबर 1946 को मैने ख़बर सुनी के तिल्हाड़ा पिछले एक दिन से महासरे पर है, लोग क़त्ल किये जा रहे हैं…. मै अपने 4-5 दोस्तों के साथ लगातार मदद की गुहार लगाते रहे, यहाँ तक के 5 नवंबर हो गया, दोपहर गुज़र गया, बिना भूख प्यास की परवाह किये 5 की सुबह से ही वो लॉन (गांधी मैदान) के पास मौजूद डॉक्टर सैयद महमूद की कोठी पर पहुँच कर उनसे मदद तलब की, सैयद महमूद उस समय बिहार के बड़े मंत्री थे, पर वो अपने दवात में मसरूफ़ थे, कलीम की कहां सुन रहे थे! उनके यहां मेहमान आ रहे थे, दावत चल रही थी, बिरयानी और मुर्ग़-मसल्लम के रौग़न को रुमाल में पोछा जा रहा था…… आख़िर दोपहर 3 बजे काफ़ी इल्तेजा करने के बाद आई.जी. से फ़ोन पर बात कर एक ट्रक और 6 मलेट्री वाले का इंतज़ाम हुआ, कलीम कोठी से निकल पर ट्रक पर सवार होने ही वाले थे के कुछ गाड़ी आ कर रुकी, उसमे से कुछ लोग उतरे… कलीम के एक साथी ने उनमे से एक शख़्स से मुख़ातिब हो कर पूछा “कहां से आ रहे हो महबूब साहब?” हम लोग तो तिल्हाड़ा जा रहे हैं, एक ट्रक और छ मलेट्री वालों का इंतज़ाम हुआ है…. ये सुनते ही महबूब साहब के मुंह से एक आह निकली “आह,… अब तिल्हाड़ा में क्या रखा है? वहीं से आ रहा हूँ, मेरा और मेरे साथियों के कपड़े देखो, ख़ून से सने लाशों को ठिकाना लगा कर आ रहा हूँ,…. बस्ती ख़त्म हो गई… तमाम मकान जल गए… सब लोग शहीद हो गए….. ” महबूब आज़ाद हिन्द फ़ौज के कर्नल महबूब अहमद थे.
ये सुनते ही कलीम बेहाल हो चुके थे, वो चीख़ते हुवे वापस कोठी की तरफ़ पलटे…. डॉक्टर साहब!.. डॉक्टर साहब!!.. डॉक्टर साहब!!!…. आइये….. अपने मेहमानों को भी साथ लाइए, उनके रुमाल का रौग़न देखा….. इनके दामनों का भी रौग़न देखिए….. कुछ और लोग भी दावत से आये हैं….. डॉक्टर साहब! इस दावत में शरीक न होने का आपको उम्र भर अफ़सोस रहेगा, क्या दस्तरख़्वान था डॉक्टर साहब….. इतना वसी दस्तरख़्वान कहां बिछ सकता है डॉक्टर साहब…. सैंकड़ों मुर्ग़-मसल्लम डॉक्टर साहब!… अरे डॉक्टर साहब आपकी अदाओं पर तो बारात की बारात क़ुर्बान हो गईं……
तेरा दर्द इतना बड़ा हादसा है
के हर हादसा भूल जाना पड़े है…
कलीम बदहवास थे, अगले दिन बचे खुचे ज़ख़्मी लोगों का क़ाफ़ला मलेट्री ट्रक से आया. चंद ज़ख़्मी बुज़ुर्ग और जवान, दो एक बच्चियां…. और लोग?….
महफ़िल महफ़िल ढूंढ रहे हैं टूटे हुवे पैमाने हम
कलीम अस्पताल में मारे मारे फिरते रहे, ज़ख़्मीयों को देखते रहे, दौड़ते रहे… आवाज़ देते रहे………. “अम्माँ !…. अम्माँ !!.. बुन्नी !…… रशीदह!!” कहीं कहीं कोई पहचानी सूरत नज़र आ जाती….. “कौन दरगाहन ख़ाला?”…… ख़ून से नहाई हुईं… “हाँ कलीम मैं हूँ”… “और हुस्ना ख़ाला?.. चंदा नानी?… क़सीमन नानी?…. और बताओ दरगाहन ख़ाला… मेरी अम्माँ? …. और बुन्नी?…. रशीदह?….. कोई नहीं?…. कोई नहीं?….. कोई नहीं?”….
कलीम बेहोश हो चुके थे, उन्हें अस्पताल से घर पहुंचा दिया गया, वो दो दिन तक लगातार बेहोश रहे, तीसरे दिन अपने रिश्तेदार के साथ एक ट्रक पर सवार हो कर कुछ मद्रासी के साथ तिल्हाड़ा गये.
कलेजा थाम लो, रुदाद ए ग़म हमको सुनाने दो,
तुम्हे दुखा हुआ दिल हम दिखाते हैं, दिखाने दो।