लाल बहादुर शास्त्री : समारोह से ज़रूरी ज़िंदगी

 

वीर विनोद छाबड़ा

लाल बहादुर शास्त्री। जब भी यह नाम ज़बान ज़ुबां पर आता है तो दिल असीम श्रद्धा से भर उठता है। सर नमन करने को झुक जाता है। छोटे सी कद-काठी, दुबला पतला जिस्म और मज़बूत इरादों वाला यह शख़्स अपनी सादगी, सामाजिक समता और ईमानदारी के लिए कटिबद्ध था। और इसीलिये प्रसिद्ध भी।

इसी प्रतिबद्धता के बूते शास्त्रीजी कांग्रेस पार्टी में मामूली कार्यकर्ता से उभर कर पंडित नेहरू के बहुत करीब आये। भारत सरकार के रेल मंत्री बने और फिर नेहरूजी के देहांत के बाद प्रधानमंत्री।
शास्त्रीजी अपनी उदारता के लिए भी बहुत प्रसिद्ध थे। इस संबंध में उन दिनों एक वाक्या बड़ा चर्चित हुआ करता था।

यह उन दिनों की बात है जब शास्त्री जी रेलमंत्री हुआ करते थे। उत्तर प्रदेश के सरदार नगर में पार्टी का कोई समारोह था। शास्त्री जी की उसमें शिरक़त ज़रूरी थी।

रास्ते में एक घना जंगल पड़ा। चोर-डकैतों के लिए मशहूर। उन दिनों मंत्रीगण के साथ कोई भारी लाव-लश्कर का प्राविधान नहीं था। प्रोटोकॉल के अनुसार छोटा सा पुलिस दस्ता साथ था। किसी की क्या मज़ाल कि उन्हें रोके।
लेकिन अचानक उनका कारवां रुक गया। बीच सड़क पर कुछ लोग खड़े थे।

शास्त्रीजी का अंगरक्षक कार से उतरा। कड़क कर पूछा – कौन हो तुम लोग? और इस तरह रोकने का सबब?

उनमें से एक आदमी आगे आया – साहब, हम पास के गांव के हैं। बहुत गरींब किसान हैं। पत्नी प्रसव पीड़ा से तड़प रही है। आप उसे सरदार नगर के अस्पताल पहुंचा दें। बड़ी कृपा होगी।

शास्त्रीजी के मित्र ने घोर आपत्ति की। वो प्रदेश सरकार में मंत्री थे। उन्हें शास्त्री जी का उदारता का अच्छी तरह भान था। अगर हुआ तो विलंब हो जाएगा।

लेकिन शास्त्रीजी अड़ गए – समारोह में देर-सवेर पहुंचने से अधिक महत्वपूर्ण है प्रसूति के लिए तड़पती यह बहन। ज़िंदगी समारोह से ज्यादा ज़रूरी है। ले आओ उस बहन को। हम सरदार नगर ही जा रहे हैं।

और उस प्रसूता की ज़िंदगी बच गयी।

कुछ दिनों बाद एक बहुत बड़ा ट्रेन हादसा हुआ। शास्त्रीजी बहुत आहत हुए। नैतिक ज़िम्मेदारी लेते हुए उन्होंने फ़ौरन इस्तीफ़ा दे दिया। नेहरूजी ने उनका इस्तीफ़ा स्वीकार करते हुए पार्लियामेंट में कहा – शास्त्रीजी इस दुर्घटना के लिए ज़िम्मेदार नहीं हैं। उनकी सत्यनिष्ठा और ईमानदारी पर मुझे कतई संदेह नहीं है। लेकिन इसके बावजूद मैं इसलिए स्वीकार कर रहा हूं ताकि दूसरों के लिए वो आदर्श और उदाहरण बनें।

कैबिनेट में न होते हुए शास्त्रीजी पार्टी संग़ठन के अनेक महत्वपूर्ण कार्य देखते रहे। उन्हें नेहरूजी दाहिना हाथ कहा जाता था। शायद यही वज़ह रही कि नेहरूजी निधन के बाद पार्टी ने उन्हें नेहरूजी का उत्तराधिकारी माना और कंज़र्वेटिव मोरारजी देसाई के गुट के दावे को दरकिनार कर प्रधानमंत्री बनाया।
शास्त्रीजी के प्रधान मंत्री काल में पाकिस्तान ने १९६५ में भारत पर हमला किया। ऐसे नाज़ुक दौर में शास्त्रीजी देश को लीड किया और पाकिस्तान को मुंहतोड़ जवाब दिया।

उन दिनों भारत अन्न समस्या से जूझ रहा था। शास्त्रीजी ने नारा दिया – जय जवान, जय किसान। इसको बहुत सराहा गया। इसके अलावा शास्त्रीजी ने सप्ताह में एक वक़्त भोजन त्यागने पर बल दिया। वो खुद भी इस अमल करते रहे।

छोटी कद-काठी, मगर मज़बूत इरादों वाले भावुक शास्त्री जी का जन्म ०२ अक्टूबर १९०४ को हुआ था। दिल की गति रुक जाने से ११ जनवरी १९६६ को मृत्यु हुई। उस दिन वो सोवियत संघ के ताशकंद शहर में थे। एक दिन पहले ही सोवियत संघ की पहल पर भारत-पाकिस्तान शांति संधि पर हस्ताक्षर किये थे उन्होंने।

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०२ अक्टूबर २०१८