बंगाल से बिहार को अलग किये जाने की घटना को ‘बिहार की जनता की जीत’ एवं ‘हिंदू-मुस्लिम एकता’ के रूप में देखा जा रहा है जो इतिहास का मिथकीकरण है. ध्यान रहे कि बंगाल से बिहार के पृथक्करण के आन्दोलन में जनता की ओर से कोई भागीदारी नहीं निभायी गई. यह विशुद्ध रूप से उच्च मध्य वर्ग का आन्दोलन था जो आधुनिक शिक्षा प्राप्त कर सरकारी नौकरियों की तलाश कर रहे थे. कहना न होगा कि सरकारी नौकरियों में उन दिनों बंगालियों का एकाधिकार था, क्योंकि आधुनिक शिक्षा प्राप्त करने में उनकी अग्रणी भूमिका थी. अतएव बिहार की नई जमात को मुश्किल का सामना करना पड़ रहा था. बंगाल से बिहार का पृथक्करण रोजगार के अवसर की तलाश था, न कि ‘बिहारी अस्मिता’ की तलाश-जैसा इन दिनों सरकारी बुद्धिजीवी प्रचारित कर रहे हैं.
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अप्रैल 1912 को बंगाल के पुनर्गठन से देश के नक्शे में बिहार की अपनी एक स्वतंत्र पहचान बनी। बिहारी उच्च मध्यवर्ग की यह पहली ‘राजनीतिक’ सफलता थी। ऐसा भी नहीं था कि बिहार को बंगाल से अलग कर दिये जाने के बाद बिहारियों की कायापलट हो गई। बिहार के सृजन के समय भारत सरकार के अफसरों में बिहार के ब्राह्मणों की संख्या 77, कायस्थों की 64, राजपूतों की 7, वैश्यों और यादवों की 5-5 और बाभनों तथा कोइरियों की 3-3 थी। वकीलों एवं लॉ एजेंटों के बीच भी अन्य सभी जातियों की संख्या 639 थी जबकि कायस्थ अकेले 1, 289 थे। ज्ञातव्य है कि उन दिनों राजनीतिज्ञों की सबसे अधिक आमद इसी पेशे से थी। अतएव बंगाली वर्चस्व के खिलाफ संघर्ष की बागडोर कायस्थों (और उनके साथ अशराफ मुसलमानों) के हाथों में थी। बीसवीं शताब्दी के आरंभिक तीन दशक बिहारी कायस्थों का ‘स्वर्णकाल’ माने जाते हैं। 1921 में बिहार प्रदेश कांग्रेस कमेटी के 52 फीसदी सदस्य इसी जाति से थे। इसलिए यह कहना ज्यादा सच होगा कि जनता ने नहीं, कायस्थों ने बनाया अलग बिहार .
(मित्रों से अनुरोध है कि इस विषय के लिए विजय चन्द्र प्रसाद चौधरी की किताब ‘क्रिएशन ऑफ मॉडर्न बिहार’ अवश्य पढ़ें.)