Shubhneet Kaushik
मध्यकालीन भारत के दिग्गज इतिहासकार सर यदुनाथ सरकार ने मौलवी ख़ुदा बख़्श (1842-1908) को ‘इस्लामिक अध्ययन के संदर्भ-ग्रंथों का सबसे जानकार हिंदुस्तानी विद्वान’ माना था। और क्यों न हो, आख़िर मौलवी ख़ुदा बख़्श ने अपने अथक परिश्रम के बलबूते ख़ुदा बख़्श ओरियंटल लाइब्रेरी जैसी एक बेहतरीन संस्था जो खड़ी की थी।
किताबों में, ख़ासकर दुर्लभ पांडुलिपियों में ख़ुदा बख़्श की दिलचस्पी अपने पिता मौलवी मुहम्मद बख़्श के चलते हुई। छपरा के रहने वाले मुहम्मद बख़्श के अपने निजी संग्रह में चौदह सौ पांडुलिपियाँ और कुछ दुर्लभ मुद्रित किताबें भी शामिल थीं। 1876 में अपनी मृत्यु से पहले मुहम्मद बख़्श ने अपने बेटे ख़ुदा बख़्श को अपनी ये थाती सौंपी और उनसे ये वायदा लिया कि वे भविष्य में एक आम लोगों के लिए एक लाइब्रेरी खोलेंगे।
अपने पिता के अरमानों को हक़ीक़त में बदलने के लिए ख़ुदा बख़्श जी-जान से लगे रहे। इन प्रयासों के चलते 1888 में एक दोमंजिला लाइब्रेरी तैयार हुई, जिसे तीन साल बाद अक्तूबर 1891 में आम लोगों के लिए खोल दिया गया। तब इस लाइब्रेरी में अरबी, फ़ारसी, तुर्की आदि भाषाओं की चार हजार से भी अधिक दुर्लभ पांडुलिपियाँ थीं और अरबी, फ़ारसी और अँग्रेजी की किताबें भी। यह संकलन तब से दिन-ब-दिन बढ़ता ही गया और आज विशाल रूप ले चुका है। वर्तमान में लाइब्रेरी के पास 21,000 से भी ज्यादे दुर्लभ पांडुलिपियाँ हैं और दो लाख से अधिक किताबें।
On 21st November 1994, @IndiaPostOffice issued a stamp on Khuda Bakhsh Oriental Library, one of the national libraries of India.
'First day cover' issued by #IndiaPost on Khuda Bakhsh Oriental Library in 21 November 1994.#KhudaBakhshOrientalLibrary #Patna #Bihar #Library pic.twitter.com/qjN4XN7Xzz
— Heritage Times (@HeritageTimesIN) November 21, 2019
इनमें कुछ किताबें ऐसी भी हैं, जिनकी दुनिया में केवल एक प्रति बची हुई है, मसलन, ‘तारीख़-ए-ख़ानदान-ए-तिमूरिया’। वर्ष 1969 में संसद द्वारा पारित एक अधिनियम (ख़ुदा बख़्श ओरियंटल लाइब्रेरी एक्ट, 1969) के अंतर्गत इस लाइब्रेरी को ‘राष्ट्रीय महत्त्व के संस्थान’ का दर्जा दिया गया। आज लाइब्रेरी दुर्लभ पुस्तकों के प्रकाशन का काम भी बख़ूबी कर रही है।
पटना से शिक्षा प्राप्त करने वाले ख़ुदा बख़्श ने अपनी पेशेवर ज़िंदगी की शुरुआत बतौर पेशकार की। बाद में वे पटना में सरकारी वकील नियुक्त हुए। 1895 में ख़ुदा बख़्श हैदराबाद के निज़ाम के कोर्ट में मुख्य न्यायाधीश बने, इस पर वे तीन सालों तक बने रहे।
‘द चार्म ऑफ कश्मीर’ और ‘द सिल्केन ईस्ट’ सरीखी किताबें लिखने वाले विद्वान विन्सेंट स्कॉट ओ’कॉनर ने लिखा है कि ख़ुदा बख़्श को ब्रिटिश म्यूज़ियम ने यह पेशकश की थी कि वे अपना संग्रह ब्रिटिश म्यूज़ियम को सौंप दें और इसके बदले में मनचाही धनराशि माँग लें। पर ख़ुदा बख़्श ने इस पेशकश को ये कहते हुए ठुकरा दिया कि वे अपने पिता के अरमानों और पटना के आम लोगों के साथ धोखा नहीं कर सकते। लिहाज़ा ख़ुदा बख़्श ने यह तय किया कि ये लाइब्रेरी और इसका संग्रह आम लोगों के लिए हमेशा खुली रहेगा। 3 अगस्त 1908 मौलवी ख़ुदा बख़्श का 66 वर्ष की उम्र में निधन हो गया।