मुहम्मद दानिश
4 मार्च 1921 को देशज अस्मिता और लोकजीवन के महान रचनाकार फणीश्वरनाथ रेणु का जन्म औराही हिंगना,अररिया बिहार में हुआ था।
‘मैला आँचल’, ‘तीसरी कसम’, ‘लाल पान की बेगम’, ‘ऋणल-धनजल’, ‘नेपाली क्रांतिकथा, ‘परती परिकथा’ और ऐसी ही कई अन्य सशक्त रचनाओं से रेणु ने पूरे साहित्य जगत में एक अप्रतिम पहचान बनाई। अपनी रचनाओं के माध्यम से रेणु हमेशा धरतीपुत्रों की संघर्षगाथा को मुखरित करते रहे।
#PhanishwarNath 'Renu' (4 March 1921 – 11 April 1977) was one of the most successful & influential writers of modern Hindi literature in the post-Premchand era. #Renu is the author of Maila Anchal, which after #Premchand's #Godaan, is regarded as the most significant Hindi novel. pic.twitter.com/AoIVl505Ue
— Heritage Times (@HeritageTimesIN) March 4, 2019
अपने कमिटमेंट को सदा इन्हीं धरतीपुत्रों के साथ पूरी जिम्मेदारी से निभाया।मानव जीवन के हर मनोभाव की सूक्ष्म अभिव्यक्ति रेणु के लेखन में मौजूद है लेकिन एक बात जो सर्वोपरि है वो।
उनकी प्रतिबद्धता जिसे वो खुद बार-बार कहते थे मेरे लिए प्रतिबद्धता का एक ही अर्थ है जनता के प्रति प्रतिबद्ध होना बाकी सब बकवास है।उनकी जनता आज भी कोसी के सूखे इलाके से लेकर गंगा के कछारों तक, पूर्णिया, पटना, दिल्ली और मुम्बई के छोटे-बड़े कारखानों तक में हाड़तोड़ मेहनत करती दिख जाती है।
बाढ़, भूख, भ्रष्टाचार, निरंकुशता और शोषण का हर रूप जो उनकी रचनाओं में दीखता है आज भी बदस्तूर मौजूद है।
रेणु जैसे महान रचनाकार की लेखनी को, उनकी प्रतिबद्धता को उनके समय के वामपंथी विचारकों ने ख़ारिज करने का पूरा प्रयास किया पर विफ़ल हुए। अपनी यथार्थपरक रचनाओं, उनकी ईमानदार बुनावट और निर्भीक अभिव्यक्ति के बल पर रेणु ने हर गिरोहबंदी को घुटने टेकने पर मजबूर किया।आमजन के बीच उनकी रचनाएँ लगातार लोकप्रिय होती गयीं और उन्हें भरपूर प्यार मिला।
आज के राष्ट्रवाद के पैमाने पर #PhanishwarNathRenu के उस राष्ट्रवाद को कैसे नापा जाएगा, जो बेहिचक भारत माता के साथ नेपाल को भी अपनी माँ बोलता था। बेशक छोटी माँ ही सही। #Renu ने नवंबर 1961 में एक लेख लिखा था: “नेपाल – मेरी सानोआमाँ”। #PhanishwarNath https://t.co/4UBexPYOsR
— Heritage Times (@HeritageTimesIN) March 4, 2019
अपने आलोचकों का जवाब देते हुए रेणु ने लिखा है- “तेरे लिए मैंने लाखों के बोल सहे”। मतलब यह कि वे अपनी जनता से यह कहना चाहते थे कि देखो जब मैंने तुम्हारी ज़िन्दगी, बोली, भाषा, रहन-सहन, संघर्ष को तुम्हारी असलियत में चित्रित किया तो लोगों ने मुझे गँवारू, देहाती और अशिष्ट जैसे अलंकरणों से नवाज़ दिया।
लेकिन यह रेणुजी की अदम्य जीवटता और कर्मठता ही थी कि वे न तो झुके, न ही रुके। इसकी पराकाष्ठा तो तब देखने को मिली जब 1974 के आपातकाल के विरोध में उन्होंने न केवल सरकारी पेंशन को वापस किया बल्कि पद्मश्री को भी “पापश्री” कहते हुए वापस कर दिया। इससे बढ़कर प्रगतिशीलता की मिसाल क्या होगी ?
मैं आपसे वह पत्र साझा कर रहा हूँ जो उन्होंने तत्कालीन राष्ट्रपति को अपनी पद्मश्री की उपाधि लौटाने हेतु लिखा था। ग़ौर से इसे पढियेगा एक एक शब्द हमारे समय और समाज का जीवंत दस्तावेज है। एक ऐसे लेखक की ईमानदारी की गवाही है जो खुद सत्ता का प्रतिपक्ष बनने में यकीन रखता था, वह किसी का पिछलगा नहीं था और न ही किसी झंडे या डंडे की राजनीति का मुरीद।
प्रिय राष्ट्रपति महोदय,
21 अप्रैल,1970 को तत्कालीन राष्ट्रपति वाराहगिरी वेंकटगिरी ने व्यक्तिगत गुणों के लिए सम्मानार्थ मुझे पद्मश्री प्रदान किया था।
तब से लेकर आजतक इस संशय में रहा हूँ कि भारत के राष्ट्रपति की दृष्टि में अर्थात भारत सरकार की दृष्टि में वह कौन- सा व्यक्तिगत गुण है, जिसके लिए मुझे पद्मश्री से अलंकृत किया गया।
1970 और 1974 के बीच देश में ढेर सारी घटनाएं घटित हुईं हैं। उन घटनाओं में, मेरी समझ से बिहार आंदोलन अभूतपूर्व है। 4 नवम्बर को पटना में लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में प्रदर्शित लोक- इच्छा के दमन के लिए लोक और लोकनायक के ऊपर नियोजित लाठी प्रहार झूठ और दमन की चरम पराकाष्ठा थी।
आप जिस सरकार के राष्ट्रपति हैं, वह कब तक लोक इच्छा को, झूठ, दमन और राज्य की हिंसा के बल पर दबाने का प्रयास करती रहेगी? ऐसी स्थिति में मुझे लगता है कि ‘पद्मश्री’ का सम्मान अब मेरे लिए पापश्री बन गया है।
साभार यह सम्मान वापस करता हूँ। धन्यवाद।
भवदीय
फणीश्वरनाथ रेणु
ऐसे ही नहीं निर्मल वर्मा ने रेणु को “संत लेखक” कहा है।