एक ज़माना था के जब भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश और बर्मा सब एक-दूसरे से जुड़े थे; यानी एक मुल्क थे। और आज एक दूसरे से अलग- अलग हैं। वो दौर था जब लोग काबुल से निकलते थे, पेशावर, दिल्ली, कलकत्ता होते हुए सीधे रंगून निकल जाते थे।
हाल तक हमें रंगून से एक गाना जोड़ते आया है, जिसका बोल है – ‘मेरे पिया गए रंगून, वहां से किया है टेलीफ़ून, तुम्हारी याद सताती है।’ वैसे रंगून आज से नहीं पिछले डेढ़ सदी से हमारी यादों का हिस्सा है। अंग्रेज़ों ने 1857 में दिल्ली पर क़ब्ज़ा किया। मेजर हडसन ने मुग़ल शहज़ादों का ख़ून पीया, उनके सिर तश्त में रखकर अस्सी बरस के बूढ़े बाप को दस्तऱख्वान पर भिजवाए। बहादुर शाह ज़फ़र को एक नाजायज़ और ज़ालिमाना मुक़दमा चलाकर जिलावतन किया। फिर रंगून में उन्हें क़ैद किया और मरने के छोड़ दिया और उन्हे उनके मुल्क हिंदुस्तान में दफ़न होने की ख़ातिर दो ग़ज़ ज़मीन के लिए तरसाया। हद तो यह है के बादशाह के लिए रंगून में ज़मीन नही थी … उनके लिए उस सरकारी बंगले के पीछे ज़मीन पर खुदाई की गयी जहां उन्होने 7 नवंबर 1862 को आख़री सांस ली.. और बादशाह को ख़ैरात में मिली मिटटी के निचे डाल दिया गया … और इस तरह एक सूरज ग़ुरूब हो जाता है।
1947 में हिंदुस्तान आज़ाद होता है, साथ मे बटवारा भी, बर्मा पहले से वजूद में था; पाकिस्तान वजूद में आता है, फिर 1971 में बंग्लादेश! रह रह कर इन मुल्क के लीडर आख़री मुग़ल शहंशाह के मज़ार पर हाज़री देने गए। पाकिस्तान के के प्रधानमंत्री रहते हुए मियां नवाज़ शरीफ़ और राष्ट्रपति रहते हुए अयूब ख़ान, परवेज़ मुशर्रफ़ और आसिफ़ अली ज़रदारी ने बहादुर शाह ज़फ़र के मज़ार पर हाज़री दी और फूल चढ़ाए। साथ ही बांग्लादेश की प्रधानमंत्री रहते हुए बेगम ख़ालिदा ज़िया ने बहादुर शाह ज़फ़र के मक़बरे कि ज़यारत की। हिंदुस्तान के प्रधानमंत्री रहते हुए राजवी गांधी और नरेंद्र मोदी ने, राष्ट्रपति रहते हुए एपीजे अब्दुल कलाम ने, उपराष्ट्रपति रहते हुए भैरोंसिंह शेखावत और हामिद अंसारी ने, विदेशमंत्री रहते हुए अटल बिहारी वाजपेयी और जसवंत सिंह ने हिंदुस्तान के इस जिलावतन हुक्मरां बहादुर शाह ज़फ़र की क़ब्र पर हाज़री दी।
पर हिंदुस्तान के आख़री मुग़ल शहंशाह बहादुरशाह ज़फ़र के मज़ार पर हाज़री देने वालों में सबसे बड़ा नाम नेताजी सुभाष चंद्र बोस का है, जिन्होंने अखंड भारत के लीडर की हैसियत से रंगून में बहादुरशाह ज़फ़र की मज़ार पर आज़ाद हिंद फ़ौज के अफ़सरों के साथ 1942 में सलामी दी थी और ‘दिल्ली चलो’ का नारा दिया था।
आज़ाद हिंद फ़ौज के सिपाही ‘कर्नल’ निज़ामुद्दीन के हिसाब से सुभाष बोस ही वो इंसान थे जिन्होंने आख़िरी मुग़ल शहंशाह बहादुरशाह ज़फर की क़ब्र को पूरी इज़्ज़त दिलवाई। उनके अनुसार “ज़फर की क़ब्र को नेताजी बोस ने ही पक्का करवाया था। वहाँ क़ब्रिस्तान में गेट लगवाया और उनकी क़ब्र के सामने चारदीवारी बनवाई थी।”
16 दिस्मबर 1987 को प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने यहां के विज़िटर्स बुक में अपना पैग़ाम लिख कर ख़िराज ए अक़ीदत पेश किया था, जो कुछ इस तरह था के अगर्चे आप हिंदुस्तान में दफ़न नही हैं, मगर हिन्दुस्तान आपका है, आपका नाम ज़िन्दा है, मै उस याद को ख़िराज ए अक़ीदत पेश करता हुं जो हमें हमारी पहली जंग ए आज़ादी की याद दिलाती है, जो हमने जीती थी।
9 मार्च 2006 को जब हिंदुस्तान के राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने मज़ार पर हाज़िरी दी; तब उन्होने वहां के विज़िटर्स बुक में लिखा : ‘आपने अपने एक शेर में लिखा है कि मेरे मज़ार पर कोई नहीं आएगा, न कोई फूल चढ़ाएगा, न शमा जलाएगा.. लेकिन आज मैं यहां सारे हिंदुस्तान की तरफ़ से आपके लिए फूल लेकर आया हूं और मैंने शमां रौशन की हैं।’
26 दिस्मबर 1943 को नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने बर्मा के महामहिम डॉक्टर बॉ मॉऊ के साथ आख़री मुग़ल शहंशाह बहादुर शाह ज़फ़र के मज़ार पर हाज़री देने के बाद एक ऐतिहासिक भाषण दिया जो कुछ इस तरह से है :-
महामहिम और मित्रों,
आज हम आज़ाद हिंदुस्तान के आख़री शहंशाह बहादुर शाह ज़फ़र के मज़ार पर जमा हुए हैं, यह शायद इतिहास का अजीब गौरवशाली संयोग है कि जहां भारत के अंतिम सम्राट की क़ब्र बर्मा में सरज़मीन पर है, वहीं स्वातंत्र बर्मा के अंतिम राजा की अस्थियां हिंदुस्तान की मिट्टी में है!हम अपना अडिग इरादा इस पवित्र स्मारक के सामने व्यक्त करते हैं, उसकी मज़ार के सामने खड़े हो कर व्यक्त कर रहे हैं, जो हिंदुस्तान की आज़ादी की लड़ाई का अंतिम योद्धा था, वह जो मनुष्यों के बीच एक शहंशाह था और जो शहंशाहों के बीच एक मनुष्य था। हमने बहादुर शाह ज़फ़र की यादों को संजो कर रखा है। हम हिंदुस्तानी, चाहे किसी भी मज़हब के मानने वाले क्युं न हों, बहादुर शाह ज़फ़र को हमेंशा याद करते हैं, न केवल इस लिए कि वह वही आदमी था, जिसने दुशमन पर बाहर से हमला करने के लिए देशवासियों को उत्तेजित किया था, बल्कि इस लिए भी क्युंके उसके झण्डे के नीचे सभी प्रान्तो के हिंदुस्तानी जमा हुए थे और लड़े थे।
मशहूर शायर जगन्नाथ आज़ाद ने “सुभाष-चंद्र-बोस बहादुर-शाह-ज़फ़र के मज़ार पर” के नाम अपने एक नज़्म में इस वाक़िये को कुछ इस तरह क़लमबंद किया है।
अस्सलाम ऐ अज़्मत-ए-हिन्दोस्ताँ की यादगार
ऐ शहंशाह-ए-दयार-ए-दिल फ़क़ीर-ए-बे-दयार
आज पहली बार तेरी क़ब्र पर आया हूँ मैं
बे-नवा हूँ नज़्र को बे-लौस दिल लाया हूँ मैं
गर्दिश-ए-तक़दीर के हाथों वतन से दूर हूँ
एक बुलबुल हूँ मगर सेहन-ए-चमन से दूर हूँ
शौक़ आज़ादी का मुझ को खींच लाया है यहाँ
आज दुश्मन है ज़मीं मेरी अदू है आसमाँ
मैं भी हूँ अपने वतन से दूर तू भी दूर है
हाँ रज़ा-ए-पाक-ए-यज़्दाँ को यही मंज़ूर है
मेरा दामन भी यहाँ की ख़ाक से आलूदा है
फ़र्क़ सिर्फ़ इतना है मैं आवारा तू आसूदा है
ऐ शह-ए-ख़्वाबीदा ऐ तक़दीर-ए-बेदार-ए-वतन
आइना मेरी निगाहों पर है ओ बार-ए-वतन
मेरे दिल को याद है अब तक वो सत्तावन की जंग
जिस के बा’द इस सरज़मीं पे छा गए अहल-ए-फ़रंग
मेरी नज़रों में है मेरठ और देहली का ज़वाल
जानता हूँ मैं जो था झांसी की रानी का मआल
मैं नहीं भूला अभी अंजाम-ए-नाना-फ़रनवीस
है नज़र में कोशिश-ए-नाकाम-ए-नाना-फ़रनवीस
दास्ताँ जैसे भी हो गुज़री वो सब मालूम है
तेरे दिल-बन्दों पे जो गुज़री वो सब मालूम है
ये वतन रौंदा है जिस को मुद्दतों अग़्यार ने
जिस पे ढाए ज़ुल्म लाखों चर्ख़-ए-ना-हंजार ने
जिस को रक्खा मुद्दतों क़िस्मत ने ज़िल्लत-आश्ना
जिस ने हर पहलू में देखी पस्तियों की इंतिहा
आज फिर उस मुल्क में इक ज़िंदगी की लहर है
ख़ाक से अफ़्लाक तक ताबिंदगी की लहर है
आज फिर इस मुल्क के लाखों जवाँ बेदार हैं
हुर्रियत की राह में मिटने को जो तय्यार हैं
आज फिर है बे-नियाम इस मुल्क की शमशीर देख
सोने वाले जाग अपने ख़्वाब की ता’बीर देख
इस तरह लरज़े में है बुनियाद-ए-ऐवान-ए-फ़रंग
खा चुके हैं मात गोया शीशा-बाज़ान-ए-फ़रंग
हुब्ब-ए-क़ौमी के तरानों से हवा लबरेज़ है
और तोपों की दनादन से फ़ज़ा लबरेज़ है
शोर गीर-ओ-दार का है फिर फ़ज़ाओं में बुलंद
आज फिर हिम्मत ने फेंकी है सितारों पर कमंद
फिर उमंगें आरज़ूएँ हैं दिलों में बे-क़रार
क़ौम को याद आ गया है अपना गुम-गश्ता वक़ार
नौजवानों के दिलों में सरफ़रोशी की उमंग
इश्क़ बाज़ी ले गया है अक़्ल बेचारी है दंग
आज फिर इस देस में झंकार तलवारों की है
कुछ निराली कैफ़ियत फिर देस के प्यारों की है
जो तवानाई इरादों में है कोहसारों की है
ज़र्रे ज़र्रे में निहाँ ताबिंदगी तारों की है
ये नज़ारा आह लफ़्ज़ों में समा सकता नहीं
आँख जो कुछ देखती है लब पे आ सकता नहीं
फ़त्ह-ए-नुसरत की दुआओं से हुआ मा’मूर है
नारा-ए-जय-हिंद से सारी फ़ज़ा मा’मूर है
मुझ को ऐ शाह-ए-वतन अपने इरादों की क़सम
जिन के सर काटे गए इन शाह-ज़ादों की क़सम
तेरे मरक़द की मुक़द्दस ख़ाक की मुझ को क़सम
मैं जहाँ हूँ उस फ़ज़ा-ए-पाक की मुझ को क़सम
अपने भूके जाँ-ब-लब बंगाल की मुझ को क़सम
हाकिमों के दस्त-परवर काल की मुझ को क़सम
लाल-क़िले के ज़वाल ओ शहर-ए-देहली की क़सम
मोहसिन-ए-देहली मआल-ए-शहर-ए-देहली की क़सम
मैं तिरी खोई हुई अज़्मत को वापस लाऊँगा
और तिरे मरक़द पे नुसरत-याब हो कर आऊँगा
तेग़-ए-हिन्दी जिस का लोहा मानता है इक जहाँ
जिस की तेज़ी की गवाही दे रहा है आसमाँ
तेग़-ए-हिन्दी जिस को मैं ने कर दिया है बे-नियाम
जिस का शेवा हुर्रियत-केशी जहाँगीरी है काम
जिस ने पूरी मुंसिफ़ी की आज तक दुनिया के साथ
ज़ुल्म की दुश्मन है जो इक ज़ुल्म-ए-बे-पर्दा के साथ
हर क़दम पर जिस ने बातिल को मिलाया ख़ाक में
जिस के साखों की अभी तक गूँज है अफ़्लाक में
आज फिर अपनी नज़र जिस की चमक से ख़ीरा है
जिस की ताबानी से रौशन इक जहान-ए-तीरा है
इक जज़ीरे के हसीं साहिल से जब टकराएगी
चैन से मुझ को भड़कती आग में नींद आएगी