एहसान अज़ीमाबादी ~ बिहार का एक गुमनाम शायर

एहसान हसन खां एहसान–इतिहास के पन्नों से

बिहार की धरती, सदियों से शिक्षा, संस्कृति और साहित्य के क्षेत्र में समृद्ध रही है। यहाँ की मिट्टी में ऐसे ऐसे लोग पैदा हुए जिन्होंने बिहार को हमेशा गौरवान्वित महसूस कराया और यहीं की मिट्टी में दफ़न हो गए। लेकिन इसी मिट्टी में कुछ ऐसे गु़मनाम भी दफ़न हैं जिनको लोग शायद, कम ही जानते हैं। अज़ीमाबादी शायरों की फेहरिस्त में,एक नाम, एहसान हसन खां एहसान (1883-1956) का भी है। इनका आबाई वतन, महुआ से करीब 5 किलोमीटर उत्तर, रसूलपुर उर्फ सुमेरगंज, मुज़फ्फ़रपुर (अब वैशाली) था। लेकिन इनकी पैदाईश 1883 को दीवान मोहल्ला, पटना सिटी में हुई। इनके वालिद का नाम अमीर हसन खां (मृत्यु–1896) था, जो दीवान मौला बख्श के बेटे थे।

इनके दादा, दीवान मौला बख्श (मृत्यु–1865), इलाक़े के बड़े ज़मींदार थे। इस संबंध में प्रोफेसर मोहम्मद सज्जाद ने अपनी किताब _कॉन्टेस्टिग कॉलोनियलिजम एंड सिप्रेटिज्म–मुस्लिम ऑफ मुज़फ्फ़रपुर सींस 1857_ (2014; जिसका उर्दू अनुवाद NCPUL, नई दिल्ली से 2018 में हो चुका है) में लिखते है–”दीवान मौला बख्श, गांव–रसूलपुर, चकला गोरौल [गरजौल], परगना, बिसारा, वैशाली के रईस थे। ये बिसारा के शत्तारी सूफी शेख़ काज़ीन (d.1495), के एक मुरीद [शिष्य] के खा़नदान से ताल्लुक रखते थे। शेख़ मौला बख्श, जमादार शेख़ खुदा बक्श, के बेटे थे। कानपुर कलेक्ट्रेट के पहले दीवान मुक्कर्र [नियुक्त] हुए थे। बाद में वह अज़ीमाबाद की अपीलीय अदालत के प्रमुख सररिश्तादार मुक्कर्र हुए। 1857 के विद्रोह के दौरान, उन्होंने अंग्रेजों की सहयाता कर “खा़न बहादुर” [1860] और “स्टार ऑफ इंडिया” (CSI) [1866] की उपाधि प्राप्त की। अपने बुढ़ापे में वे ऑनरेरी मजिस्ट्रेट हुए। फिर हज के लिए रवाना हुए और वापसी में ग्वालियर में इंतक़ाल हुआ, जो शत्तारी सूफी मराकज़ [केंद्रों] में से एक था।

एहसान हसन खां एहसान (1883-1956)

बिसारा, सरैसा और मुज़फ्फ़रपुर में कई ज़मींदारियां थी। 1855–56 में लालगंज में ‘एंग्लो वर्नाक्युलर स्कूल’ के लिए 14 बिस्वा ज़मीन और मकान फ़राहम [उपलब्ध] किया। उनके सबसे छोटे बेटे मुहम्मद हसन ने, लाल बाग़, पटना, की ज़मीन ‘इंजीनियरिंग कॉलेज पटना’ (अब यह NIT है) को दान कर दी। मुज़फ्फ़रपुर में दीवान रोड, कल्याणी [और पटना सिटी का दीवान मोहल्ला] का नाम भी उसी दीवान मौला बख्श के नाम पर रखा गया है। उनके पोतों [परपोतों] में एजाज़ हसन खां ‘ख्याल’ और रियाज़ हसन खां ‘ख्याल’ [1877–1953], शेरो शायरी [कविता] में दिलचस्पी रखते थे। जनवरी 1907 में, उन्होंने मुज़फ्फ़रपुर में शिबली नोमानी (1857–1914) की मेज़बानी की, एक बैठक आयोजित की, और नदवा के लिए एक बड़ी धन राशि जुटाई। शिबली ने उन्हें “क़ौमी ज़रूरतों की नब्ज़ शनास” कहा। इसी खा़नदान के अबुल हसन, राम दयालु सिंह कॉलेज, मुज़फ्फ़रपुर में बहुत दिनों तक प्रोफेसर रहे। अहमद हुसैन, पूर्व कलेक्टर, पटना और उनके साहबजा़दे [पुत्र], प्रोफेसर इक़बाल हुसैन (1905-1991), संस्थापक निदेशक, खु़दा बख्श लाइब्रेरी, पटना, भी इसी खा़नदान के संबंधित थे”।

दीवान मौला बख्श से सम्बंधित जानकारी बिहारी लाल “फितरत” (1829–d?) कि किताब _‘त्वारीखुल फितरत’_ जिसे हम _‘आईन–ए–तिरहुत’_ (1883) के नाम से भी जानते हैं, में भी देखी जा सकती है। इसके अलावा विलियम टेलर (1808–1892) ने भी अपनी किताब _‘थर्टी एट ईयर्स इन इंडिया’_ (1882) में दीवान मौला बख्श और मुंसी सैयद नजमुद्दीन (महराजा बेतिया के दीवान) का ज़िक्र किया है।

मुफ़्ती सनाउल होदा काशमी ने अपनी किताब, _‘तज़किरा–ए–मुस्लिम मशाहिर वैशाली’_ (2001) में लिखते हैं –एहसान हसन के वालिद को भी आख़री मुग़ल बादशाह, बहादुर शाह ज़फ़र [1775–1862] की तरफ़ से ‘मौहतशीमुद्दुला’ की उपाधि मिली थी। एहसान हसन खां की प्रारांभिक शिक्षा खा़नदानी रिवायत के मुताबिक़ घर पर ही हुई। फिर पटना कॉलिजिएट स्कूल [1835 में स्थापित ] में दाखि़ला लिया। 1893 में एहसान ने सैयद शाह अजीजूर्रहमान से अंग्रेजी पढ़ना शुरू किया और जल्द ही इसमें महारत हासिल कर ली। लेकिन वालिद के इंतका़ल के बाद, उनको, पहले भिखना पहाड़ी, फिर, अपने आबाई वतन, रसूलपुर आना पड़ा। इनकी जा़यदाद गौरीहार, मुज़फ्फ़रपुर में भी थी। इसलिए, यहीं रहना पड़ा। लेकिन जल्द ही जा़यदाद के ख़त्म होने के बाबत, अपने बहनोई, सैयद शाह मकसूद हसन (रईस, छौराही), वैशाली के पास रहने लगे। चूंकि सैयद शाह मकसूद हसन को कोई औलाद नहीं थी, इसलिए, एहसान हसन खां को जायदाद का वारिस बनाया। यहीं (छौराही) में ही 1956 में इनका इंतका़ल हुआ।

सुखद अनुभव

गर्मी की छुट्टियों में मेरा छौराही जाने का इत्तिफ़ाक़ हुआ। मैंने अपनी आंखों से उन वीरान खंडहरों को देखा है, जो कभी गुलजा़र हुआ करते थे। उसी गांव के एक बुज़ुर्ग, नाम तो याद नहीं, लेकिन उनकी उम्र लगभग 80 साल के आसपास रही होगी, से एहसान हसन खां के बारे जानने की कोशिश की, तो वह बुज़ुर्ग फरमाने लगे “मालिक त आदमीए रहीन, हम उनका रोज पांव दबाते थे बदले में कुछ पईसा भी मिल जाता रहा, जमींदारी वाला तनको रूआब न रहा, मालिक बड़े नेक दिल रहें, शायरी भी करते रहें।” (मालिक तो बहुत अच्छे आदमी थे, मैं रोज़ाना उनका पैर दबाता था, बदले में कुछ पैसा भी मिल जाता था, ज़मींदारी का बिल्कुल भी रॉब नही था, मालिक बड़े नेक दिल इंसान थे, वह शायरी भी करते थे।) इन बातों से एक बात तो बिल्कुल साफ है कि वे एक अच्छे शायर होने के साथ साथ एक अच्छे इंसान भी थे। इस पर मुझे आफताब अहमद शाह का ये शेर याद आ रहा है, आप भी मुलाहज़ा फरमाएं:–

लोग उठ जाएंगे उनके तज़्किरे रह जाएंगे,
अब यहां इंसानियत के मक़बरे रह जाएंगे।

एहसान हसन खां की शायरी

एहसान हसन खां, ज़मीनी मुक़दमे की वजह से दिमागी़ तौर पर कमजो़र होते जा रहे थे। आखि़रकार वह छौराही आ कर रहने लगे, तब उनको कुछ सुकून मिला और फिर शेरो–शायरी में लग गए। शायरी से उनको गहरा लगाव था। उनको उर्दू,फारसी और अंग्रेजी पर समान अधिकार था। वह उर्दू,फारसी में शेर पढ़ते और लिखते भी थे। वह शायरी में, हकीम सैयद शाह एहतशामुद्दीन हैदर मशरीकी फिरदौसी मनेरी अज़ीमाबादी, फजलूल हक़ आज़ाद अज़ीमाबादी, आशिक़ हुसैन सीमाब अकबराबादी, तमन्ना ऐमादी फुलवारी से इस्लाह लिया करते थे। एहसान के दोस्तों में वहीदुद्दीन वहीद रहीमाबादी (मौलाना अब्दुल अजीज़ रहीमाबादी के पोते, समस्तीपुर) थे, इनसे भी एहसान ने एक या दो गजलों की इसलाह ली थी। एहसान हसन खां के अल्लाती (सौतेले) भाई, हादी हसन खां ‘नायाब’ (d.1882) और मेहदी हसन खां ‘शादाब’ (1853–1889), जो हज़रत अमीर मिनाई के शागिर्दों में थे, का शुमार उस वक्त के मशहूर शायरों में होता था।

उन्होंने गज़ल, नज़्म, रुबाई, सहरा गोई, तारीख गोई, यानी हर फ़न में न सिर्फ कोशिश की बल्कि कामयाब भी रहे। हालांकि, उनकी शायरी का केंद बिंदु ‘हुस्न व इश्क़’ के इर्द गिर्द ही घूमता है। लेकिन उनकी शायरी में सिर्फ हुस्न व इश्क ही नहीं बल्कि दर्द, कसक, तरप, बेचैनी सब कुछ मिलेगा। जैसे–

बीमार वह हूं जिसकी दवा के लिए एहसान,
आऐंगे मसीहा भी तो अच्छा न करेंगे ।।

न मुझ को दर्दे दिल होता न मुझ को दर्दे सर होता,
मेरे काबू में दिल होता , मेरे बस में जिगर होता।।

हंसता ही रहा बिस्मिल मज़तर तहे खंज़र,
उफ़ तक नही लाया वह ज़बां पे तहे खंज़र।।

कुछ अपनी अदाओं से भी ले मेरे लिए काम,
आने की नही मौत सीतमगर तहे खंज़र।।

ये वह दौर था, जब हर नौजवान, आज़ाद हिंदुस्तान की फ़ज़ा में सांस लेना चाहता था। फिर एहसान इससे अछूते कैसे रह सकते थे, आज़ादी की लड़ाई को मज़बूती प्रदान करने और अंग्रेजों को हिंदुस्तान से बाहर का रास्ता दिखाने के लिए, एक शायर कैसे अपने जज़्बात का इज़हार कर सकता है, खुद ही देखें –

ब्रह्मण, शेख़, हिंदू और मुस्लिम एक हो जाएं,
गर यक दिल ये हो जाएं तो आज़ादी भी आसां है।।

अंग्रेजों की मक्कारी का भी एहसान को खूब एहसास था। अंग्रेजों के ‘डिवाइड एंड रूल’ पॉलिसी को वह खूब समझते थे। अतः अपने कलाम के ज़रिए क़ौम के लोगों को आगाह करते रहें। इस संबंध में वह लिखते हैं–

कहां समझेंगे हिंदी क़ौम, अंग्रेजों की पॉलिसी,
के जिस के ख़याल में हर पेशवा तिफ़्ल–ए–दबिस्तां है ।।

लीग और कांग्रेस में कशा कश रहे मदाम,
हर दम इसी ख़्याल में शैतान है आज कल।।

फाका कशी से गांधी के कुछ हासिल न हुआ,
हस्ती फिर उनकी ज़ीनत–ए–ज़नदां है आज कल।।

लीडर जो हिंद का है सियासत से बाख़बर ,
सरकार की चाल से वह हैरां है आजकल।।

उठो तुम खा़ब–ए–ग़फलत से संभालो होश को अपने,
करो तंज़ीम मिल्लत की व गरना सख़्त नुक्सां है।।

लेकिन वक्त बहुत तेजी से बदल रहा था, आज़ादी के बाद सन 1950 में जमींदारी उन्मूलन कानून के तहत सरकार द्वारा ज़मीनदारी प्रथा पूर्ण रूप से समाप्त कर दी गई । अब ज़मींदारी ख़त्म होती जा रही थी, दुश्मन बढ़ते जा रहे थे, एहसान को इसका खूब एहसास था। छौराही इस्टेट (जागीर) बिख़रने के संबंध में लिखते हैं–

बर्बाद कर के सारी म’ईशत को रख दिया,
अपना सभी ने अच्छी तरह जेब भर लिया।।

छौराही बे मिशाल था अपने दयार में,
तारीफ़ उस की होती थी क़ुर्ब-ओ-जवार में ।।

उनकी गज़लों के कुछ चुने हुए अश’आर देखें:–

कहीं राज़–ए–मोहब्बत भी छुपा है बे क़रारों में,
जो अहल–ए–दर्द हैं पहचाने जाते हैं हजारों में ।।

आज ही एहसान हो क्यूं कर कमाल,
शायरी को एक ज़माना चाहिए ।।

दिखा कर हुस्न तड़पाया गया हूं,
छिपा कर चेहरा तरसाया गया हूं।।

जब कभी एहसान का नाम आया तो हस कर कह दिया,
जनता हूं, आदमी हैं जाने पहचाने हुए।।

सामने जब वह यार आता है,
जान–व–दिल में क़रार आता है।।

सितम सहेंगे जफ़ा सहेंगे हज़ार ज़िल्लत उठाएंगे हम,
सर अपना दे देंगे तेरे दर पर यहां से लेकिन न जाएंगे हम।।

एक चांद सी सूरत से लगा बैठे दिल अपना,
जीने की हम एहसान तमन्ना नही करते।।

गुमानमी से उजाले की ओर

एहसान को बाग़वानी का भी शौक़ था। इसके साथ ही पढ़ने का भी बहुत शौक़ था। हर तरह की किताबें आपके पास थीं। जो शायद, अब ‘नूर उर्दू लाइब्रेरी’ (1982 में स्थापित), हसनपुर गंघटी, वैशाली की ज़ीनत है। पढ़ने लिखने के इसी असर का कमाल था कि उनका शुमार अज़ीमाबादी शो’अरा की फेहरिस्त में आ गया। उनका दीवान कई वजहों की बिना पर उनकी ज़िंदगी में नहीं छप सका। खै़र, ‘देर आयद दुरुस्त आयद’, डॉक्टर अब्दूल क़ादिर अहक़र अज़ीज़ी (1940–2016) जिन्हें लोग मौलाना इबाद के नाम से भी जानते हैं, ने बिहार यूनिवर्सिटी से 1981 में डॉक्टर जूबैर अहमद क़मर (लंगट सिंह कॉलेज, मुज़फ्फ़रपुर) की निगरानी में _‘एहसान हसन खां एहसान और उनके शे’री कारनामे’_ पर PhD किया। बल्कि यह कहा जाए कि डॉक्टर अब्दूल क़ादिर अहक़र अज़ीज़ी ने एहसान पर ‘एहसान’ किया और उनकी शायरी को जिंदा कर दिया, तो कोई ग़लत न होगा। इस लेख में भी काफी हद तक उनकी PhD थिसिस, जो बाद में किताबी शक्ल में हमारे सामने _‘कुल्लियात–ए–एहसान अज़ीमाबादी’_ के नाम से मौजूद है, से मदद ली गई है।

संक्षेप में कहा जाए तो एहसान अज़ीमाबादी, उन शायरों में आते हैं जिनको लोग, शायद, कम ही जानते होंगे। इस लेख का भी यही मकसद है कि उनको लोगों तक, खास कर हिंदी पाठकों तक लाया जा सके। ऐसे कई और नगीने होगें, जिन्हे खोजने और लोगों तक लाने की ज़रूरत है।

लेखक नूरूज़्ज़माँ अरशद, (एस.टी.एस.स्कूल (मिंटो सर्किल), ए.एम.यू.,अलीगढ़ से हैं