ज़फ़र हमीदी का असल नाम मुहम्मद सादउल्लाह हमीदी था। इनका जन्म 26 अगस्त 1926 को बिहार के सीतामढ़ी ज़िला के गड़हौल शरीफ़ में हुआ था। वालिद का नाम डॉक्टर हमीदउद्दीन अहमद अंसारी था; जिनकी पैदाइश मई 1903 को सीतामढ़ी के सैदपुर में हुई थी।
1922 में पटना के टेंपल मेडिकल स्कूल में दाख़िला लिया और चार साल बाद एलएमपी पास किया। मुज़फ़्फ़रपुर डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के हॉस्पिटल में मेडिकल ऑफ़िसर की हैसियत से अपनी सेवाएँ दीं। 1934 के ज़लज़ले के बाद सरकारी नौकरी छोड़ कर ख़ुद की प्रैक्टिस करने लगे। मज़हबी आदमी थे। पेशे से डॉक्टर थे, शेर ओ शायरी भी करते थे। आसी तख़ल्लुस था। सैंकड़ों ग़ज़लें कह डाली। इलाक़े में बड़ा नाम रहा। और उनका इंतक़ाल 5 मार्च 1983 को हुआ।
लेकिन उन्होंने अपनी विरासत अपने बेटे को बख़ूबी सौंपी। इसलिए उन्होंने अपने बेटे को क़ुरान का हिफ़्ज़ कराया। हाफ़िज़ बनवाया, फिर मौलवी की पढ़ाई करवाई। भागलपुर से 1943 में उन्हें अंग्रेज़ी तालीम दिलवानी शुरू की। फिर उन्हें मेडिकल स्पेशलिस्ट बनाया। 1952 में मुहम्मद सादउल्लाह हमीदी ने पटना मेडिकल कॉलेज से एमबीबीएस किया और डॉक्टर हाफ़िज़ मुहम्मद सादउल्लाह हमीदी कहलाने लगे।
Eminent Urdu poet Zafar Hameedi was born in Garhwal, #Sitamarhi on 26th Aug 1926. Zafar, who later moved to #Muzaffarpur, a small city in #Bihar was a medical practioner by profession. He showed an inclination towards poetry while he was at medical college. Five books on…. pic.twitter.com/fb75F32aVX
— Lost Muslim Heritage of Bihar (@LMHOBOfficial) June 16, 2022
दो साल प्रैक्टिस करने के बाद 1954 में मज़ीद पढ़ाई के लिए लंदन गए और उन्होंने वहाँ से डीटीएमएच करने के बाद एमआरसीपी किया। 1956 में वापस बिहार आ कर मुज़फ़्फ़रपुर में प्रैक्टिस करने लगे। 1951 में शादी मुंगेर में हुई। शेर ओ शायरी तो घुट्टी में थी। स्कूल के दौर में ही शेर ओ शायरी में दिलचस्पी बढ़ गई थी। कॉलेज में वो शायरी करने भी लगे। 1946 से 1961 तक उन्होंने जो कलाम कहे वो 1962 में रक़्स ए ख़्याल के रूप में शाए हुआ।
इसके बाद उन्होंने पीछे मुड़ कर नही देखा। 1967 में नवाए तीशह, 1976 में रेज़ा रेज़ा, 1983 में मौज ए ग़ुबार, 1990 में अहंग ए अफ़ाक़, 1995 में तुलु ओ वजदान, 2000 में इनाकास नाम से ज़फ़र हमीदी का शायरी मजमुआ शाए हुआ। उनकी शुरुआती शायरी में मुल्क की आज़ादी की ख़ुशी और बँटवारे का ग़म साफ़ देखने को मिलता है।
जशन ए आज़ादी भारत हो मुबारक साथी
वोह वतन जिसपे निछावर हुआ ख़ून ए गांधी
वोह वतन जिसपे दिया बुद्ध ने अहिंसा का प्याम
सुलह का, अमनो मुहब्बत का, सदाक़त का निज़ाम।
ज़फ़र हमीदी ने अपने पहले मरीज़ के ऊपर, अपने वतन मुज़फ़्फ़रपुर पर, जंग ए आज़ादी के अज़ीम रहनुमा मौलाना मुहम्मद अली जौहर पर नज़्में लिखीं। ज़फ़र हमीदी को उनके कलाम और किताब की वजह कर बिहार उर्दू एकेडमी ने कई इनाम से नवाज़ा। उनके काम के ऊपर पीएचडी भी हुई। एक डॉक्टर की हैसियत से ज़फ़र हमीदी अपने इलाक़े में बड़े मक़बूल और मशहूर रहे। उन्हें अपने आख़री साँस तक लोगों की ख़िदमत की। डॉक्टर हाफ़िज़ मुहम्मद सादउल्लाह हमीदी का इंतक़ाल 2004 में 78 की उम्र में हुआ। उनको उनकी ही एक ग़ज़ल के साथ ख़िराज ए अक़ीदत ~
जब भी वो मुझ से मिला रोने लगा
और जब तन्हा हुआ रोने लगा
दोस्तों ने हँस के जब भी बात की
वो हँसा फिर चुप रहा रोने लगा
जब भी मेरे पाँव में काँटा चुभा
पत्ता पत्ता बाग़ का रोने लगा
आबयारी के लिए आया था कौन
हर शजर मुरझा गया रोने लगा
चाँद निकला जब मोहर्रम का कहीं
चुप से दश्त-ए-कर्बला रोने लगा
उस पे क्या बीती है अपने शहर में
आश्ना ना-आश्ना रोने लगा
मेरे दुश्मन का रवैया था अजब
जब हुआ मुझ से जुदा रोने लगा
बादलों ने आज बरसाया लहू
अम्न का हर फ़ाख़्ता रोने लगा
देख कर मस्जिद में मुझ को मुज़्तरिब
मेरे ग़म में बुत-कदा रोने लगा
था ‘ज़फ़र’ का इक अनोखा माजरा
ग़ौर से जिस ने सुना रोने लगा