इस साल मुहर्रम और अगस्त का महीना एक साथ पड़ा है। एक तरफ़ जहां भारत की आज़ादी का जशन मनाया जा रहा, वहीं दूसरी जानिब इमाम हुसैन (र) की क़ुर्बानी को याद किया जा रहा है। बहुत कम लोगों को पता होगा के भारत की जंग ए आज़ादी में मुहर्रम की एक अपनी अहमियत है। कई ऐसे वाक़ियात हुए हैं जिसमें मुहर्रम एक मील का पत्थर साबित हुआ है, जहाँ लोगों ने इमाम हुसैन की शहादत से प्रेरणा लेकर अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ ख़ूब जद्दोजहद की।
1757 में जहां अंग्रेज़ों ने पूरी बंगाल रियासत पर क़ब्ज़ा कर लिया, वहीं भारतीयों में प्रतिरोध की लहर ने जन्म लिया। हर इलाक़े के भारतीयों ने, चाहे वो आदिवसी हों, चाहे वो रजवाड़े हों, चाहे वो महिलायें हों, चाहे वो किसान हों, चाहे वो फ़क़ीर हों, या फिर ख़ुद अंग्रेज़ी फ़ौज भारतीय सिपाही हों। हर जगह के भारतीयों ने अंग्रेज़ों का विरोध किया। इसी कड़ी में मुहर्रम और इमाम हुसैनकी शहादत ने भारत की आज़ादी में क्या रोल अदा किया है उस बारे में जानते हैं।
ग़रीब ओ सादा ओ रंगीन है दास्ताने हरम
निहायत इसकी हुसैन (र) इब्तदा है इस्माइल (अ)
1778 में ब्रिटिश इंडिया कंपनी ने रॉबर्ट लिंडसे को सिलहट का कलेक्टर बनाया. इसी दौरान लिंडसे ने चुने के पत्थर और हाथियों के दाँत का कारोबार शुरू किया। जिसका लोगों ने विरोध किया पर कोई हल नही निकला। और इसी बीच 1781 में इस इलाक़े में काफ़ी बड़ा बाढ़ आया, जिससे ना सिर्फ इंसानों को, बल्कि जानवरों के साथ साथ खेतों को भी काफ़ी नुकसान हुआ। इस बाढ़ की वजह कर इस इलाके की एक तिहाई आबादी मुकम्मल तौर पर मर गई।
चुंकि बाढ़ से हर चीज बर्बाद हो गई थी इसलिए लोगों में बहुत ग़ुस्सा था और इसी मौक़े का फायदा उठाया पीरजादों ने, अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ लोगों को एकजुट करना शुरू किया। इसी बीच मुख़ब्बिरों ने कलेक्टर को पीरज़ादों की ख़बर दी। और जमादार को पीरज़ादों की हरकत पर नज़र रखने को कहा गया।
इसी बीच किसी 16 दिसंबर 1782 यानी 10 मोहर्रम 1197 हिजरी को किसी ने कलेक्टर को ख़बर दी के पीरज़ादों ने बग़ावत कर दी है, जिसके बाद सिलहट की पहाड़ियों पर लिंडसे और उनके लोगों ने मुहर्रम का जुलूस निकाल रहे लोगों को चारों तरफ़ से घेर लिया, और इन्हे सरेंडर करने कहा। यहीं सिलहट के पीरज़ादे सैयद मोहम्मद हादी और सैयद मोहम्मद मेहंदी भी अज़ादारी में हिस्सा ले रहे थे।
पीरज़ादों को एहसास हो गया के उनके साथ क्या होने वाला है, इसके बाद उन्होंने अपने लोगों ख़ीताब किया :- “हम क्या इन फ़िरंगियों के कुत्ते हैं जो उनकी बात माने?? क्यूँकि आज या तो ये मरेंगे या फिर हम शहीद होंगे, जल्द ही अंग्रज़ों की हुकूमत अब ख़त्म होने वाली है.” जिसके बाद आमने-सामने की जंग हुई, लिंडसे और पीरज़ादों ने एक दूसरे को ललकारा, इनके बीच तलवार की जंग हुई, इस जंग में पीरज़ादे ने लिंडसे की तलवार तोड़ दी, तभी एक जमादार ने अपनी पिस्टल लिंडसे को बढ़ाई, लिंडसे ने फ़ौरन गोली चला दी, जिससे पीरज़ादे वहीं पर शहीद हो गए।
इधर 1799 में टीपू सुल्तान अंग्रेज़ों द्वारा शहीद होते हैं, इस वाक़िये ने भारतीयों बहुत मायूस किया, पर वो रुके नही। लीडर के मर जाने से हक़ नही मर जाता है। लोगों ने 1806 में टीपू सुल्तान के बेटों को अपना लीडर मान कर अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ बग़ावत कर दिया। और इसी बग़ावत के पीछे पीर और फ़क़ीरों का एक अलग रोल था, इन्होंने ही अंग्रेज़ी फ़ौज में काम कर रहे भारतीय सिपाहियों को बग़ावत के लिए प्रेरित किया। और इसके लिए ने जिस चीज़ का उपयोग किया, वो था गीत। जिसमें वो टीपू सुल्तान की शहादत को करबला में हुए इमाम हुसैन की शहादत से जोड़ते थे। के कैसे इमाम हुसैन की तरह टीपू सुल्तान ने अपना सब कुछ क़ुर्बान कर दिया पर हक़ का रास्ता नही छोड़ा। इसलिए हमें भी यही करना है। चूँकि फ़ौज में सिपाही हर इलाक़े से होते थे, इसलिए ये पीर फ़क़ीर हर ज़ुबान में गीत गया करते थे। इसमें अब्दुल्ला ख़ान, नबी शाह , रुस्तम अली और पीरज़ादा आगे आगे थे। इसमें हिंदू सन्यासियों का भी भरपूर साथ मिला। और फिर जुलाई 1806 को बग़ावत हुई। बग़ावत काफ़ी बड़े इलाक़े में फैल गई थी, पर अंग्रेज़ों ने कुचल दिया।
पर लोग रुके नही। इसके बाद अलग अलग दौर में अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ बग़ावत के लिए क्रांतिकारियों द्वारा लोगों को तैयार किया जाता है, इसमें भी लोगों के प्रेरणा के लिए जिस वाक़िये का सबसे अधिक इस्तेमाल होता है, वो करबला में इमाम हुसैन की शहादत का। चाहे 1838 का दकन हो या 1846 का पटना में अंग्रेज़ विरोधी प्लॉट। इन सब में दीन बचाने की बात होती है, और इमाम हुसैन की तरह हक़ की राह पर चलने की बात की जाती है।
फिर आता है 1857 का दौर, पीर फ़क़ीर और सन्यासी ने जहां एक बार फिर छावनी इलाक़े में भारतीय सिपाहियों को अंग्रेज़ों के विरुद्ध इमाम हुसैन की क़ुर्बानी का हवाला देकर भड़काना शुरू किया। वहीं कई अंग्रेज़ ख़ुद मानते थे, की मुहर्रम के समय मुसलमानो की बड़ी आबादी एका एक हिंसक हो जाया करती थी। और ये अंग्रेज़ों के लिए बहुत ख़तरनाक साबित हो सकता था। इसी तरह का एक ज़िक्र 1857 में पटना के कमिश्नर रहे विलियम टेलर ने भी किया है। की हर साल जब मुहर्रम आता है तो शहर में रह रहे अंग्रेज़ और ईसाई अवाम के लिए ये एक ख़तरे की घंटी होती थी। और 1857 में पटना में जब बग़ावत की शुरुआत हुई, उसमें जो नारा लगा और जिस तरह से लोग सामने आए वो पूरी तरह करबला की याद दिहानी कर रहा था। डफ़ली बजाता हुआ एक शख़्स आगे बढ़ रहा था, कुछ लोगों ने हाथ में अलम यानी झंडा ले रखा था। और नारा था दीन बोलो दीन, नारा ए हैदरी – या अली, या अली।
पटना के पीर अली, लीबिया के बागियों का सरदार उमर मुख़्तार और भोपाल के मौलवी बरकतुल्लाह भोपाली!
बाग़ियों के नेता पीर अली को गिरफ़्तार कर पटना के कमिश्नर विलियम टेलर के दफ़्तर ले जाया गया। कमिश्नर विलियम ने पीर अली से कहा ‘अगर तुम अपने नेताओं और साथियों के नाम बता दो तो तुम्हारी जान बच सकती है’ पर इसका जवाब पीर अली ने बहादुरी से दिया और कहा ‘ज़िन्दगी मे कई एसे मौक़े आते हैं जब जान बचाना ज़रुरी होता है पर ज़िन्दगी मे ऐसे मौक़े भी आते हैं जब जान दे देना ज़रुरी हो जाता है और ये वक़्त जान देने का ही है।’
इमाम हुसैन की मीरास के इस वारिस ने मरते-मरते कहा था, “तुम मुझे फाँसी पर लटका सकते हों, पर तुम हमारे आदर्श की हत्या नहीं कर सकते। मैं मर जाऊँगा, पर मेरे ख़ून से लाखो बहादुर पैदा होंगे और तुम्हारे ज़ुल्म को ख़त्म कर देंगे।” वही हुआ पटना के दानपुर छावनी ने बग़ावत हो गई।
1857 में हुई क्रांति में इमाम हुसैन और शोहदाय करबला का एक अलग ही रोल रहा है, लोग चेहरे पर मुस्कान के साथ मौत को चुनौती देते हुए हक़ की राह पर बातिल के सामने बिना झुके शहीद हो गए। कई दर्जन कहानियाँ हैं।
1857 के बाद अंग्रेज़ों बड़ी तादाद में भारत के लोगों को दुनिया के अलग हिस्सों में ग़ुलाम और मज़दूर की हैसियत से भेजना शुरू किया। लाखों मज़दूर गिरमिटिया बनाकर फिजी, ब्रिटिश गुयाना, डच गुयाना, ट्रिनीडाड, टोबेगा, नेटाल (दक्षिण अफ्रीका) आदि को ले जाये जाते थे। इनमें बड़ी तादाद अंग्रेज़ विरोधी लोगों की थी। पर अपने वतन से दूर होकर भी ये लोग इमाम हुसैन की तालीम को नही भूले और रह रह कर अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ झंडा बुलंद करते रहते। और हर आशुरा यानी मुहर्रम में इमाम हुसैन की शहादत को याद करते। और इस कार्यक्रम में मुसलमान और हिंदू साथ होते थे। कई बार अंग्रेज़ों के ज़ुल्म का शिकार भी होते। ऐसा ही एक ज़ुल्म अक्तूबर 1884 को हुआ जब ट्रिनीडाड में इमाम हुसैन की शहादत का सोग मना रहे हज़ारों लोगों पर अंग्रेज़ों ने गोली चला कर कई दर्जन भारतीयों को शहीद कर दिया। आज इस क़त्ल ए आम को वहाँ होसे नरसंहार के नाम से जाना जाता है, होसे का असल मतलब इमाम हुसैन से है। इमाम हुसैन की तरह यहाँ भी उनके जानशीं हक़ की ख़ातिर अंग्रेज़ों का विरोध करते हुए शहीद हो गए।
इसी तरह कई ऐसे मौक़े आए जब इमाम हुसैन की शहादत से प्रेरणा लेते हुए कई जंग ए आज़ादी के रहनुमा सामने आए। 1890 से 1947 तक एक लम्बी फ़हरिस्त है। गांधीजी से लेकर मौलाना आज़ाद तक ने भारत में अंग्रेज़ों का विरोध करने के लिए शोहदाय करबला की तालीम का सहारा लिया। कुछ पॉप्युलर कल्चर में भी ये दिखाया गया है के नेताजी सुभाष चंद्रा बोस ने आज़ाद हिंद फ़ौज बनाने के लिए सिपाहियों को ख़िताब करते हुए, हक़ की लड़ाई के लिए करबला में इमाम हुसैन की शहादत का ज़िक्र किया है।
अंग्रेज़ जाते जाते भारत को पाँच हिस्से में बाँट गए, पर आज भी भारत में ही सबसे अधिक इमाम हुसैन से अक़ीदत रखने वाले लोग हैं, जो जाती और धर्म से उपर उठा उनसे अक़ीदत रखते हैं।