1918 में अली अशरफ़ की पैदाइश जिस वक़्त हुई, उस वक़्त रूस में क्रांति हो चुकी थी, और उसका असर दुनिया में दिखने लगा था। पूरी दुनिया में लोग इंक़लाब का नारा बुलंद कर रहे थे। अली अशरफ़ के वालिद भी मौलाना अली असग़र भी उसका असर पड़ा। जो एक आलिम के साथ लेखक भी थे, अलग अलग मौज़ू पर बहुत कुछ लिखा। कई युरोपीय विद्वानो की किताबों का तर्जुमा भी किया जिसमें हरबर्ट स्पेंसर सिद्धांत के साथ लियो टालस्टाय की किताबों तक की लम्बी फ़हरिस्त है। उन्होंने भारत की जंग ए आज़ादी में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेना शुरू कर दिया था। छपरा में वो ख़िलाफ़त कमेटी और कांग्रेस पार्टी के ज़िला अध्यक्ष थे। उनके घर पर कई बड़े रहनुमा आ कर ठहरते थे। जिसमें महात्मा गांधी से लेकर मौलाना शौकत अली तक एक लम्बी फ़हरिस्त है।
अली अशरफ़ थोड़े बड़े हुए तो ख़िलाफ़त और असहयोग आंदोलन को अपने आँखो के सामने देखा। जालियाँवाला बाग़ क़त्ल ए आम का क़िस्सा सुना। इसी इंक़लाब और पढ़ाई लिखाई के माहौल में अली अशरफ़ की परवरिश हुई। उन्होंने शुरुआती तालीम घर पर हासिल की। कुछ समय अपने वालिद के साथ हैदराबाद में भी रहे। फिर मैट्रिक करने के बाद पटना यूनिवर्सिटी में दाख़िला लिया और यहीं उनकी मुलाक़ात कई क्रांतिकारी लोगों से हुआ, कई बड़े लीडरों से तालुक़ात बने और वो पूरी तरह भारत की जंग ए आज़ादी में कूद पड़े। बचपने में उन्हें मौलाना शौकत अली से मिलने का मौक़ा मिला था, इसलिए उन्होंने अपने नाम में लफ़्ज़ “शौकत” लक़ब के तौर पर लगाना शुरू कर दिया था। उन्हें अफ़साने लिखने का बहुत शौक़ था। बहुत कम उम्र में ही पटना से निकलने वाले “शमीम” अख़बार में उनके अफ़साने शाय हुआ करते थे।
ये वो दौर था जब नौजवान रूस की क्रांति से प्रभावित होकर कॉम्युनिस्ट विचारधारा के नज़दीक हुए जा रहे थे। वैसे में अली अशरफ़ पर इसका असर भला कैसे नही पड़ता? इसके बाद वो कॉमरेड अली अशरफ़ हो गए। अली अशरफ़ ने 1937 में बिहार स्टूडेंट फ़ेडरेशन की स्थापना में अहम रोल अदा किया और इसके पहले महासचिव बने। कांग्रेस के अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा देकर जब नेताजी सुभाष चंद्रा बोस पटना आए तो नौजवानों ने उनका ज़ोरदार इस्तक़बाल किया, जिसमें अली अशरफ़ भी थे।
यही वो दौर था जब भारतीय कॉम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापक एमएन रॉय भी पटना आए हुए थे। तब 1939 में अली अशरफ़ ने अपने साथियों के साथ मिल कर कॉम्युनिस्ट पार्टी की बुनियाद बिहार में डाली और ज्ञात रहे के उस समय कॉम्युनिस्ट पार्टी पर पाबंदी थी। इसी बीच दूसरा विश्व युद्ध शुरू हो गया। इंक़लाबी लोगों ने नारा लगाना शुरू कर दिया – न देंगे एक पाई, न देंगे एक भाई..!
इसी दौरान अली अशरफ़ लम्बे समय तक जेल में भी क़ैद रहे, क्यूँकि वो एक ऐसी तंज़ीम के लीडर थे, जिसे अंग्रेज़ शक की नज़र से देखा करते थे। बहरहाल जनवरी 1940 के शुरुआत में उन्हें गिरफ़्तार कर हज़ारीबाग़ जेल भेज दिया गया। 26 जनवरी 1940 को स्टूडेंट फ़ेडरेशन की जानिब से एक जुलूस पटना में निकला और अली अशरफ़ के घर के सामने गुज़रते हुए उनके लिए अपनी एकजुटता का संदेश दिया। वहीं 1942 में जब स्टूडेंट फ़ेडरेशन का अधिवेशन हुआ। तब सम्मेलन वाली जगह का नाम अली अशरफ़ नगर उनके नाम पर एकजुटता दिखाने की ख़ातिर रखा गया।
इसी बीच 1942 में अंग्रेज़ों ने सारे कॉम्युनिस्ट क़ैदियों को रिहा करने का एलान किया। अली अशरफ़ के भी बाहर आने का इमकान बढ़ गया। पर बाक़ी सियासी क़ैदियों को ना रिहा करने पर उन्होंने उसके ख़िलाफ़ विरोध करते हुए जेल से निकलने से इंकार कर दिया। जिसके बाद उन्हें जेल के दरवाज़े के बाहर लाकर पटक दिया गया। इस तरह 1942 में जेल से छूट कर बाहर आए। और इस दौरान पटना में स्वामी सहजानंद की सरपरस्ती में किसान सभा हुआ। तो उसमें बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया। अगस्त 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन की शुरुआत हुई।
अंग्रेज़ों ने फिर धड़ पकड़ शुरू किया। अली अशरफ़ को भी पुलिस ढूँढ रही थी, पर वो भूमिगत हो गए। पकड़ में नही आ सके, पर उनके छोटे भाई अली अमजद जो उस समय पटना यूनिवर्सिटी में पढ़ाई कर रहे थे और बिहार स्टूडेंट फ़ेडरेशन से जुड़े थे, ज़रूर गिरफ़्तार कर लिए गए। इधर अली अशरफ़ का कोई पता नही था, वो ख़ामोशी से कॉम्युनिस्ट पार्टी के मुंबई स्थित दफ़्तर में वहाँ पार्टी ऑफ़िस से निकलने वाले अख़बार “क़ौमी जंग” के एडिटर का कार्यभार सम्भाला। और यहाँ उनका नाम ज्ञान चंद था। इधर जनवरी 1943 में पटना स्थित उनके घर को पुलिस ने कुर्क कर लिया क्यूँकि उन्हें अली अशरफ़ का कोई सुराग़ नही मिल रहा था।
और 1947 में जब देश आज़ाद हुआ तो पार्टी की बिहार कमेटी द्वारा निकाला जाने वाला अख़बार “जनशक्ति” अली अशरफ़ की ज़िम्मेदारी में आया और 1965 तक वो इसके इडिटर रहे। 1965 में वो पटना छोड़ कर दिल्ली शिफ़्ट हो गए। इस दौरान वो 1965 से 1972 तक “सोवीयत रिव्यू” के संयुक्त एडिटर के रूप में भी अपने काम को अंजाम दिया। साथ ही लम्बे समय तक यानी 1972 से 1975 तक मॉस्को में पार्टी के लिट्रेचर पर काम किया और 1976 से 1982 तक दिल्ली स्थित सोवीयत दूतावास के सूचना विभाग में काम किया।
उनकी शादी डॉक्टर मैमूना जाफ़री से हुई थी। जो पटना विमेंस कॉलेज में उर्दू की प्रोफ़ेसर थीं। बाद में उनका तबादला अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी हो गया। और वहीं से रिटायर हुईं। अली अशरफ़ भी रिटायर होने के बाद अलीगढ़ में ही बस गए। उन्होंने अपने जीवन में कई किताबें लिखीं। कई किताबों का तर्जुमा किया। इसी तरह लिखते पढ़ते, इंक़लाब बपा करते 84 साल की उमर में कॉमरेड अली अशरफ़ का इंतक़ाल 2002 में अलीगढ़ में हुआ।