जमील मज़हरी का असल नाम सैयद काज़िम अली था। वालिद का नाम ख़ुर्शीद हसनैन था। उनकी पैदाइश सितम्बर 1904 को पटना के मुग़लपूरा में हुई। वालिद पटना के स्कूल में टीचर थे। जैसे जैसे उनका तबादला होता गया, सैयद काज़िम अली का स्कूल भी उसी तरह तब्दील होता गया।
शुरुआती तालीम घर पर हासिल करने के बाद पहले वो मुज़फ़्फ़रपुर गए। फिर पटना के सुलेमानिया स्कूल में पढ़ने लगे। फिर मोतिहारी गए, फिर 1920 में मुज़फ़्फ़रपुर के ज़िला स्कूल में दाख़िला लिया। इसी साल कलकत्ता में आलिया मदरसा में दाख़िला हो गया। इसके बाद आगे की पढ़ाई के लिए कलकत्ता चले गए। कलकत्ता में उनकी मुलाक़ात मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, आग़ा हश्र, नसीर हुसैन ख़्याल और अल्लामा रज़ा अली वहशत जैसी हस्तीयों से हुई, उसने मिलने और उनके सोहबत में रहने का मौक़ा मिला। यहीं ये उनकी सरगर्मियों की शुरुआत होती है।
जलाने वाले जलाते ही हैं चराग़ आख़िर
ये क्या कहा कि हवा तेज़ है ज़माने की
पढ़ाई के दौरान ही शेर ओ शायरी करना शुरू कर दिया था। उनके एक बुज़ुर्ग सैयद मज़हर हसन अच्छे शायर हुए हैं। उनसे ख़ानदानी ताल्लुक़ पर सैयद काज़िम अली को फ़ख़्र था। इसलिए जमील तख़ल्लुस इख़्तियार करने के साथ ही उस पर मज़हरी का इज़ाफ़ा किया। इस तरह वो जमील मज़हरी के नाम से मशहूर हुए। अल्लामा रज़ा अली वहशत को अपनी शायरी का उस्ताद माना और इनसे इसलाह हासिल करते। धीरे धीरे बाकमाल शायर तौर पर पहचाने जाने लगे।
जमील मज़हरी ने 1923 में मैट्रिक का इम्तहान पास किया। सेंट जेवियर्स कॉलेज, कलकत्ता से 1925 में इंटर पास किया। 1928 में इस्लामिया कॉलेज कलकत्ता से बीए किया और उन्होने 1931 में कलकत्ता यूनीवर्सिटी से फ़ारसी में एम.ए की डिग्री हासिल की।
साथ में शेर ओ शायरी भी चल रही थी। इधर पढ़ाई मुकम्मल मुकम्मल हो चुकी थी। उनके लिखे शेर और ग़ज़ल रिसालों में छपने लगे थे, इसलिए जमील मज़हरी ने भी सहाफ़त यानी पत्रकारिता के क्षेत्र में क़दम रखा। उन्होंने कलकत्ता से निकलने वाले रोज़नामा “अलहिंद” में नौकरी शुरू की, वो इसके एडिटर थे। जमील मज़हरी की सरपरस्ती में ये अख़बार अंग्रेज़ी हुकूमत के ख़िलाफ़ काफ़ी मुखर हो गया। इस वजह कर अंग्रेज़ों ने इस अख़बार को बंद करवा दिया। इसके बाद उन्होंने “अस्र ए जदीद” नाम के अख़बार में मुलाज़मत शुरू की। इस दौरान उन्हें बहुत कुछ लिखने का मौक़ा मिला और क़लम में रवानगी आ गई। कई मुद्दों पर लिखना शुरू किया। सियासत और इल्मों अदब पर उन्होंने बहुत कुछ लिखा। उनके लिखे मज़मून और लेख बड़े मशहूर हुए। इस तरह वो सियासी रहनुमा के क़रीब भी आ गए।मौलाना अबुल कलाम आज़ाद के बड़े क़रीबी थे। और उन्ही के कहने पर नवम्बर 1937 में वो बिहार की कांग्रेस सरकार में पब्लिसिटी अफ़सर की हैसयत से शामिल हो गए।
होने दो चराग़ाँ महलों में क्या हम को अगर दीवाली है
मज़दूर हैं हम मज़दूर हैं हम मज़दूर की दुनिया काली है
सन् 1939 में जब कांग्रेस सरकार ने इस्तीफ़ा दिया तो जमील मज़हरी भी पब्लिसिटी अफ़सर की ज़िम्मेदारी से अलग हो जाना चाहते थे, पर बिहार कांग्रेस के अध्यक्ष डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद के कहने पर इस पद पर बने रहे और भारत छोड़ो आंदोलन के समय इस्तीफ़ा देकर पूरी तरह आंदोलन में कूद पड़े। इन्होंने इस्तीफ़े पर दस्तख़त अपने ख़ून से किया था। और लिखा ‘‘शहीदों के ख़ून की रौशनाई में अपना क़लम डुबो कर मैं हुकूमते-बरतानिया की पब्लिसिटी नहीं करना चाहता।’’ इसके बाद हुकूमत ने उन्हें भी गिरफ़्तार कर जेल की सलाख़ों के पीछे डाल दिया। जेल से छूटने के बाद वो मुम्बई गए, और फ़िल्मों के लिए लिखने लगे। ये सिलसिला 1946 तक तब तक चला जब बिहार में वापस कांग्रेस ने अपनी हुकूमत क़ायम कर ली।
वो फिर से बिहार की कांग्रेस सरकार में पब्लिसिटी अफ़सर की हैसयत से शामिल हो गए। इस दौरान बिहार भयंकर फ़साद हुआ, उनके कई जानने वाले क़त्ल कर दिए, उन्हें गहरा सदमा पहुँचा। वो भारत के बँटवारे और पाकिस्तान की माँग के विरोधी थे। और आख़िर जब मुल्क बँट गया तब उन्होंने सियासत से किनारा कर लिया और पटना यूनीवर्सिटी में उर्दू के उस्ताद की हैसियत से पढ़ाना शुरू किया। उनके शागिर्दों ने भी उर्दू अदब में बड़ा नाम कमाया। इसकी भी एक लम्बी फ़हरिस्त है।1964 में वो नौकरी से रिटायर हो कर उर्दू अदब की ख़िदमत में पूरी तरह से लग गए। चाहने वालों ने अल्लामा जमील मज़हरी के नाम से पुकारना शुरू किया। वो पूरे भारत में होने वाले मुशायरे के ज़ीनत बने रहे। कलकत्ता से लेकर दिल्ली के लाल क़िले तक में अपने कलाम को उन्होंने पढ़ा।
क्या मरसिया, क्या क़सीदा, अल्लामा जमील मज़हरी को ग़ज़ल, मसनवी, नज़्म सबमें ऊबूर हासिल था। उन्होंने ख़ूब लिखा। उनकी ज़िंदगी में उनके लिखे छः किताब शाय हुए। जिसमें 1950 में उनका अफ़साना “शिकस्त ओ फ़तह” कलकत्ता से, 1952 में नज़्मों का मजमुआ “नक़्श-ए-जमील” पटना से, 1959 में ग़ज़लों का मजमुआ “फ़िक्र-ए-जमील” पटना से, 1970 में फ़लसफ़ाना मसनवी “आब ओ सिराब” कलकत्ता से, 1970 में ही “इरफ़ान ए जमील” लाहौर से और 1979 में “वजदान ए जमील” लाहौर से शाय हुआ। जमील मज़हरी में अपने शेर ओ शायरी में कई तरह के सामाजिक और सियासी मुद्दे को जगह दी है, उन्होंने भारत और वहाँ रहने वाले लोगों को नज़र कर कई कलाम लिखे हैं। अपने अन्दाज़ में एक शायर की हैसियत से उन्होंने वतन से मुहब्बत, तारीख़ ओ तहज़ीब, हिंदू मुस्लिम इत्तिहाद पर खुल कर अपनी बात रखी है।
कलकत्ता में क़याम के दौरान उन्होंने कहा था के उर्दू-अदब की तरक़्क़ी अगर हिन्दुस्तान की तहरीके-आज़ादी के काम नहीं आ सकती तो यह अपना फ़र्ज़ पूरा नहीं करती। इससे तहरीके-आज़ादी को आगे बढ़ाने का मुक़द्दस तारीखी फ़र्ज़ अंजाम देना है।’’
अल्लामा जमील मज़हरी का इंतक़ाल 23 जुलाई 1980 को मुज़फ़्फ़रपुर के भिकनपुर में हुआ। और उन्हें वहीं दफ़न कर दिया गया। अल्लामा जमील मज़हरी को उन्ही की एक ग़ज़ल के साथ ख़िराज ए अक़ीदत ~
किसी का ख़ून सही इक निखार दे तो दिया
ख़िज़ाँ को तुम ने लिबास-ए-बहार दे तो दिया
मेरे शुऊर को कलियाँ अब और क्या देतीं
तसव्वुर-ए-लब-ए-रंगीन-ए-यार दे तो दिया
अब और ख़िज़्र से क्या चाहती है प्यास मेरी
सराब-ए-रहमत-ए-परवर-दिगार दे तो दिया
अगर-चे जब्र है ये भी मगर ग़नीमत जान
के एक जज़्ब-ए-बे-इख़्तियार दे तो दिया
ये और बात के दामन को फूल दे न सकी
मगर बहार ने तलवों को ख़ार दे तो दिया
बहार आए न आए मगर लहू ने मेरे
चमन की ख़ाक को इक ऐतबार दे तो दिया
उम्मीदें छीन लीं उस ने तो फिर गिला क्या है
क़रार माँग रहे थे क़रार दे तो दिया
करे ख़ुदा से गिला क्यूँ किसी की मजबूरी
किसी के दिल पे सही इख़्तियार दे तो दिया
‘जमील’ उस आतिश-ए-रुख़ को हवा न दो इतनी
अब और चाहिए क्या इक शरार दे तो दिया