ये नज़्म “शहीदों के सन्देश” के नाम से एक नामालूम इंक़लाबी शायर ‘प्रेमी’ ने 1930 में लिखा था, जो दिल्ली के प्रकाशक पंडित बाबू राम शर्मा के ‘आज़ादी की देवी लक्षमी बाई’ में छपा था, जिसे अंगेज़ों ने बाग़ियाना माना था, और पाबंदी आयद कर दी थी.
दिन ख़ून का हमारे प्यारो न भूल जाना
ख़ुशियों में अपनी हम पर आंसू बहाते जाना
सय्याद ने हमारे चुन चुन के फूल तोड़े
वीरान इस चमन में अब गुल खिलाते जाना
गोली को खा के सोए जलियान बाग़ में हम
सूनी पड़ी क़ब्र पर दिया तो जलाते जाना
हिन्दू व मुसलमां की होती है आज होली
बहते हमारे रंग में दामन भिगोते जाना
कुछ क़ैद में पड़े हैं, हम क़ब्र में पड़े हैं
दो बूँद आँसू उन पर प्रेमी बहाते जाना