पटना की हिंदी पत्रकारिता में पाटलिपुत्र का योगदान

 

बांकीपुर में संपन्न भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के 27 वें अधिवेशन ने बिहार के राजनैतिक जीवन में उथल-पुथल मचा दी और बिहार का बंगाल से पृथक्करण (1912 ई.) राष्ट्रीय आकांक्षाओं की पूर्ति में सहायक बना. इस समय तक बिहार एक नया मोड़ ले चुका था और लोग निःस्वार्थ देश-प्रेम, निर्भीक विचार तथा अटल संकल्पों के दीवाने बनकर जोशपरक पठनीय सामग्रियों की तलाश करने लगे थे. ‘पाटलिपुत्र’ इन्हीं दीवानों की राष्ट्रीय आकांक्षाओं की चिर प्रतीक्षित उपलब्धि बनकर आया जिसने अपने कर्तव्यों के पालन में अपना अस्तित्व तक मिटा दिया पर देशी और अंगरेजी रियासत के सामने झुकना पसंद नहीं किया. इसलिए इसे बिहार का प्रथम राष्ट्रवादी साप्ताहिक की संज्ञा दी गई है.

‘पाटलिपुत्र’ (साप्ताहिक) का प्रकाशन हथुआ नरेश महाराज महादेवाश्रम शाही के ‘एक्सप्रेस प्रेस’ से 1914 ई. में हुआ. आरंभ में इसके संपादक नामी बैरिस्टर एवं ख्यात पुरातत्ववेत्ता काशी प्रसाद जायसवाल थे. वे अंगरेजी राज की नजरों में ‘एक खतरनाक क्रांतिकारी’ थे. राष्ट्रवादी गतिविधियों में सम्मिलित होने एवं अंगरेजी सरकार के विरुद्ध आंदोलनकारियों से मिलकर कुचक्र करने का आरोप लगाकर उन्हें कलकत्ता हाईकोर्ट का जज बनने के अयोग्य घोषित कर दिया गया था. जब वे पटना आये तब भी अंगरेजी सरकार का संदेह दूर नहीं हुआ. इसीलिए यहां के जिला मजिस्ट्रेट और आरक्षी अधीक्षक को उनके क्रियाकलापों एवं संपर्कों की सूचना लेते रहने तथा उन पर नजर रखने का आदेश दिया गया था. शायद इसी कारण वे ‘पाटलिपुत्र’ के आरंभिक अंकों में विद्वता एवं गंभीरता का पोषण करते रहे. किंतु स्थानीय राष्ट्रवादी लोगों के आग्रह पर उन्होंने अपने ओजपूर्ण अग्रलेखों से पाठकों में क्रांति की नई लहर पैदा करनी शुरू कर दी. 10 अगस्त 1914 के अंक में उन्होंने लिखा –

‘विश्व परिवेश में अंगरेजी सरकार युद्धों में फंस चुकी है और उसे अपनी कमजोर स्थिति का आभास होने लगा है. इसीलिए भारतवर्ष के स्वातंत्र्य आंदोलन को भी वह सख्ती से कुचल देना चाहती है ताकि यह उपनिवेश भी कहीं उसके हाथों से न निकल जाय. परंतु सरकार को यह सोच लेना चाहिए कि वह देशप्रेम की व्यापक उत्तेजना को रोक सकने में अंततोगत्वा असफल रहेगी.’

जनता को अंगरेजी सरकार के विरोध में भड़काने वाली ऐसी बातें पढ़कर बिहार के तत्कालीन छोटे लाट का असंतुष्ट हो जाना अस्वाभाविक नहीं था, अतः उन्होंने हथुआ महाराज से अपनी नाराजगी प्रकट की. फलस्वरूप डा. जायसवाल को पदमुक्त कर दिया गया.

उसके बाद सोना सिंह चौधरी संपादक नियुक्त हुए. पारसनाथ त्रिपाठी, रामानंद द्विवेदी और ईश्वरी प्रसाद शर्मा उनके सुयोग्य सहकारी थे. उनके संपादन में पत्र बहुत सुंदर निकलता था. एक विशेषांक तो ऐसा निकला कि आजतक वैसा सर्वांग सुंदर विशेषांक किसी साप्ताहिक का न देखा गया. (जयन्ती स्मारक ग्रन्थ, पुस्तक भंडार, पृष्ठ 577) श्री चौधरी के विषय में कहा जाता है कि अपने निर्भीक राष्ट्रवादी विचारों के प्रकाशन में किसी की दखलंदाजी बर्दाश्त नहीं करते थे और उसी के अनुरूप अपने सहकारियों का भरपूर सहयोग भी उन्हें मिलता था.

जलियांवाला बाग हत्याकांड के बाद भारतीय मस्तिष्क को व्यापक पैमाने पर झकझोरनेवाली सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटना चंपारण के नीलहों पर अत्याचार और उनकी बर्बरता थी. सीधे-सादे किसानों से जबर्दस्ती नील की खेती करवाना और उनके हितों की कुछ भी परवाह न करना शोषणकारी अर्थव्यवस्था की भयंकरता थी जिसके प्रतिरोध में असंतुष्ट प्रजा का विरोध अस्वाभाविक नहीं था. उस समय नील भारत से गैर सरकारी व्यापार का एक फायदेमंद माल था जिससे अंगरेजों को अच्छी आमदनी होती थी. लेकिन उस आय का लघुत्तम अंश भी वे अपने रैयतों पर खर्च करने के लिए तैयार नहीं थे. उन्हें वास्तविक मजदूरी भी नहीं दी जाती थी. मैकाले ने लिखा है, ‘स्थानीय लोगों के द्वारा अक्सर घोर अन्याय होता है और अनेक रैयतों को किन्हीं कानून के द्वारा अथवा किन्हीं कानून का उल्लंघन करके ऐसी स्थिति में पहुंचा दिया जाता है जो अर्धदासों की अवस्था से अधिक भिन्न नहीं है.’

नील की खेती कराने के लिए नीलहों ने दो प्रकार की प्रथाएं चलाई थीं-जिराती प्रथा तथा असामी प्रथा. जिराती प्रथा के अंतर्गत वे सामान्य किसानों के हल-बैल निम्नतम मजदूरी पर गिरवी रख लेते थे और असामी प्रथा के अंतर्गत प्रत्येक किसान प्रतिबीघा जोत के लिए तीन कट्ठा के हिसाब से नील पैदा करने के लिए बाध्य होता था. यह ‘तिनकठिया’ प्रथा कहलाती थी. इससे नीलहों को ज्यादा लाभ होता था और किसान शोषित हो रहे थे. यदि किसी किसान के द्वारा नील की खेती से इनकार किया जाता तो वे उसपर तरह तरह के जुल्म करते थे. जब कोई रैयत अथवा किसान इसके विरोध में आवाज उठाता या सुरक्षा की मांग करता था तो उसकी आवाज बड़ी कठोरतापूर्वक दबा दी जाती थी.

नीलहों के द्वारा प्रचलित एक अन्य प्रथा खुश्की या कुरतौली भी थी. इसके अंतर्गत किसानों को मामूली रकम पर अपनी जायदाद बंधक रख देना पड़ता था. बंधक छूटने की अवधि सारी जिंदगी या उससे भी अधिक होती थी. इससे मुक्ति तभी मिलती थी जब किसान सूद समेत पूरी रकम अदा कर देता था. इस प्रकार वस्तुतः यह प्रथा किसानों को गुलामी में जकड़ देनेवाली थी, जिससे आजन्म मुक्ति नहीं मिल पाती थी. ‘सीधे-सादे किसानों पर गोरे नीलहों का अत्याचार इतना ज्यादा था जिसकी कल्पना मात्र से रोंगटे खड़े हो जाते हैं. वास्तव में इंगलैंड पहुंचनेवाला नील का हर बक्सा रैयतों के खून से सना होता था. …नील उपजाने की ऐसी व्यवस्था खून बहाने की व्यवस्था से कतई कम नहीं थी.’ बकरी चरानेवाले बच्चे तक उनके अत्याचारों की दहशत से गाफिल नहीं थे. अपनी बकरियों को संबोधित करते हुए वे कहते थे- ‘ई त अलई लिलहवा के राज,/अब कहां चरबू बकरियो.’

इन कारणों से आम जनता में असंतोष व्याप्त हो जाना और आक्रोश उबलना अस्वाभाविक नहीं कहा जा सकता. तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं ने नीलहों के अत्याचार से त्रस्त प्रजावर्ग के असंतोष और आक्रोश को जन सामान्य तक पहुंचाने का काम किया. ‘स्टेट्समैन’, ‘प्रताप’, ‘बिहारी’ और ‘पाटलिपुत्र’ ने अपने अग्रलेखों तथा निबंधों में रैयतों की दिनानुदिन बिगड़ती दशा पर गहरी चिंता व्यक्त की, यद्यपि इस जुर्म में कई पत्र बंद कर दिये गये और कई पर राजद्रोह का मुकदमा भी चलाया गया. ‘प्रताप’ (13 मार्च 1917 ई.) ने लिखा था,

‘किसानों से बेगार कराया जाता है और कई तरह की नाजायज रकम वसूली जाती है. यथा आम और कटहल पर ‘अमही’ और ‘कट्ठी’, हाथी या घोड़ा खरीदने पर ‘हथियाही’ या ‘घोड़ाही’ आदि.’

इस असंतोष एवं त्राषजनक स्थिति से बिहार उबल पड़ा. तत्कालीन उदार एवं अनुभवी शासक सर एडवर्ड ने जनता की शिकायतों को दूर करने का आश्वासन दिया पर वह पर्याप्त नहीं था.

1917 ई. में रैयतों की असह्य व्यथा तथा नीलहों के विरुद्ध शिकायत सुनने के लिए महात्मा गांधी चंपारन प्रस्थान करने हेतु पटना आये. प्रो. कृपलानी, ब्रजकिशोर नारायण और राजकुमार शुक्ल आदि उनके साथ थे. जैसे ही वे चंपारण पहुंचे, उनके विरुद्ध वारंट जारी कर दिया गया और सीधी-सादी शांत जनता को आंदोलन के लिए भड़काने के जुर्म में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया. 5 मई 1917 को जब महात्मा गांधी नीलहों के अत्याचार से ऊबे रैयतों का बयान ले रहे थे तो नील प्लांटरों ने रैयतों के द्वारा किये गये उपद्रवों की झूठी अफवाहें प्रचारित कीं. विशेष-विशेष अखबारों में उसे प्रचारित भी करवाया. यद्यपि गांधीजी ने उन सबों से विचार-विमर्श करके अपने आगमन का उद्देश्य उन्हें बताया पर प्लांटरों ने उनके काम में बाधा डालने तथा उन पर और उनके सहकर्मियों पर कीचड़ उछालने में कुछ भी उठा नहीं रखा. (डा. राजेन्द्र प्रसाद, महात्मा गांधी एंड बिहार, पृष्ठ 12)

जेल से छूटने के बाद दूने उत्साह से गांधीजी ने चंपारन के अलावा मोतिहारी और बेतिया के ग्रामीण इलाकों में घूम-घूम कर रैयतों के बयान लेने शुरू कर दिये. राजेन्द्र बाबू ने लिखा, ‘शायद ही कोई प्लांटर बचा हो जिसके रैयत सैंकड़ों की संख्या में हमारे पास नहीं आये हों तथा अपनी शिकायत पूरे विस्तार से नहीं लिखाये हों.’ (राजेन्द्र प्रसाद, आत्मकथा, पृष्ठ 498)

शीर्षस्थ नेता के नेतृत्व में जनमत संग्रह के इस अभियान से अंगरेज प्लांटर थर्रा उठे. अतः उन सबों ने संगठित होकर उच्चाधिकारियों से गांधीजी की शिकायत की, उनके विरुद्ध झूठी अफवाहें फैलाईं और उन्हें नीचा दिखाने के लिए अखबारों में मनगढ़ंत खबरें छपवाईं लेकिन पत्र-पत्रिकाओं ने उनके समस्त आरोपों को बेबुनियाद और मिथ्या बताकर निरस्त कर दिया. ‘पाटलिपु़त्र’ ने जांच-कार्य में अड़ंगा लगाने की आलोचना की. 12 मई 1917 के अंक में पाटलिपुत्र ने अपने संपादकीय में स्पष्ट लिखा- ‘गांधीजी की प्रवृत्ति, स्वभाव और काम करने के वैधानिक तरीकों से पूरा राष्ट्र अवगत है. जनता ऐसी अफवाहों में कभी भी विश्वास नहीं करेगी. ऐसा अवैधानिक काम एक वैसे व्यक्ति के द्वारा संभव हो ही नहीं सकता जो सविनय अवज्ञा का निष्ठावान प्रवर्तक है… उनके काम में जितना भी अड़ंगा लगाया जाय, जनता उतनी ही उत्तेजित और दृढ़संकल्प युक्त होती जाएगी. इसलिए इस अवसर पर एकमात्र बात जो कही जा सकती है वह यह कि उनके काम को शांतिपूर्ण ढंग से चलने दिया जाय.’

इसी अंक में बलदेव अग्रहरी की एक भावपूर्ण कविता भी छपी थी जिसमें नीलहों के जुर्म से त्राण के लिए चंपारण के रैयतों की गांधीजी से प्रार्थना की गई थी. (डा. कृष्णानंद द्विवेदी, बिहार की हिंदी पत्रकारिता, प्रवाल प्रकाशन, पटना, प्रथम संस्करण : 1996, पृष्ठ 69.) ‘बिहारी’ ने इस झूठी अफवाह पर रोष व्यक्त किया और ‘मिथिला मिहिर’ ने मानवता के निष्ठावान सेवक पर झूठे आरोप लगाने की निंदा की. सारांश यह कि महात्मा गांधी ने राष्ट्रीय जागरण की जिस चेतना को किसानों के मन में भरने का संकल्प चंपारन यात्रा में लिया था, पत्रों ने उसे जनता तक पहुंचाने की जवाबदेही बखूबी पूरा की. असंतुष्ट जनता में राष्ट्रीय जागरण का उत्साह भरने हेतु उन सबों ने अप्रतिम कुशलता का परिचय दिया.

जब ‘पाटलिपुत्र’ पूरे जोश और राष्ट्रवादी आवेश में सरकार की जड़ें खोदने के लिए कलम चला रहा था, उसके साथ एक दुर्घटना हो गई. छपरा की एक आमसभा का प्रतिनिधित्व इसके संचालक हथुआ महाराज ने किया था. उसी सभा में सर्वसम्मति से यह प्रस्ताव पारित हुआ कि वर्तमान घोर विपत्ति में अंगरेजी सरकार की मदद की जाय. वहां से लौटने के बाद उन्होंने उक्त पारित प्रस्ताव की सूचना ‘एक्सप्रेस’ एवं ‘पाटलिपुत्र’ को प्रकाशनार्थ भेजी और यह खबर भी भिजवायी कि यह संवाद छापना बेहद जरूरी है. (राजेन्द्र प्रसाद, आत्मकथा, पृष्ठ 136) ‘पाटलिपुत्र’ क्रांतिकारी विचारों का पोषक था अतः उक्त समाचार को नहीं छापना उसकी बाध्यता थी क्योंकि वह उसके सिद्धांतों के प्रतिकूल था. लेकिन प्रेस संचालक के आदेश को नहीं मानना भी व्यावहारिक दृष्टि से उचित नहीं था. अतः ‘सिर्फ बारह प्रतियों में, जो नरेश और लार्ड के यहां भेजे जानवाले थे, में उक्त संवाद छपा और शेष में नहीं. बाद में जब भेद खुला और संचालक ने संपादक-पत्रकारों के विचारों में परिवर्तन के कोई आसार नहीं देखे तो 3 मई 1921 को अंगरेजी सरकार के निर्देश पर तार भेजकर प्रकाशन रोकने का आदेश दे दिया था.’ (राजेन्द्र अभिनंदन ग्रंथ, पृष्ठ 361-62)