बिहार के अरवल नगर परिषद अध्यक्ष पद की उम्मीदवार रोज़ी नाज़ (पति शाह इमरान अहमद) ने अपना नामांकन दाख़िल कर दिया है। आम लोगों के लिए ये आम बात होगी के एक महिला चुनावी मैदान में है, पर मेरे लिए ये सौ साल बाद दुहराता हुआ इतिहास है।
यानी वो 1920 की दहाई थी, जब शाह इमरान अहमद के दादा यानी शाह मुहम्मद ज़ुबैर साहब भारत की जंग ए आज़ादी में अहम रोल निभा रहे थे। उनके साथ उनकी पत्नी सिद्दीक़ा ख़ातून अपने शौहर के साथ कंधे कंधे मिला कर इस मुहीम में हिस्सा ले रही थीं। फिर एक दौर आया जब शाह मुहम्मद ज़ुबैर , श्री कृष्ण सिंह आदि समेत सारे बड़े लीडर जेल चले जाते हैं, तब सिद्दीक़ा ख़ातून में आगे बढ़ कर मोर्चा सम्भाला। और पूरे इलाक़े का दौरा शुरू किया। महिलाओं को एकजुट कर संगठन बनाया। विदेशी समानो के बहिष्कार के साथ स्वदेशी अपनाने के लिए लोगों को जागरूक किया।
शाह मुहम्मद ज़ुबैर : सर के ख़िताब को ठुकराने वाल एक महान स्वातंत्रता सेनानी
ख़ुद एक ज़मींदार की बेटी और एक बैरिस्टर की पत्नी थीं, लेकिन जब बात मुल्क की आइ तो खद्दर के कपड़े को तरजीह दी। यही दौर था जब 1922 में अली बंधुओं की माँ आबदी बानो बेगम जिन्हें हम बी अम्मा के नाम से जानते हैं, अपनी बहु अमजदी बानो बेगम के साथ बिहार दौरे पर आइ, तब सिद्दीक़ा ख़ातून ने उनका भरपूर साथ दिया। ऐंगोरा और तिलक स्वराज फ़ंड जमा करने भरपूर मेहनत की, साथ ही ख़ुद भी अपने गहने के रूप में एक बड़ी रक़म दान में दिया।
छोटे छोटे बच्चों की माँ होने के बावजूद अलग अलग इलाक़े में जा कर मीटिंग करना , लोगों से मिलना और सबको एकजुट करना उनका सबसे अहम काम था। इसके बाद सिद्दीक़ा ख़ातून ने कभी मुड़ कर नही देखा और अपने आख़री साँस तक भारत के आज़ादी की जद्दोजहद करती रहीं।
1930 में सविनय अवज्ञा आंदोलन को कामयाब बनाने के लिए पति शाह मोहम्मद ज़ुबैर के साथ आंदोलन मे कुद पड़ीं और पति मर्दों के बीच में जाकर नमक क़ानून तोड़ते और पत्नी सिद्दीक़ा ख़ातून महिलाओं में एक जनता के सेवक के रुप मे काम करती। 25 जुलाई 1930 को उन्होने मुंगेर मे एक बड़े जलसे को ख़िताब किया। इसके बाद उन्होने एक कमीटी तशकील की जिसके तहत विदेशी सामान के बहिष्कार करने के साथ साथ लोगो को स्वादेशी सामान ख़रीदने के लिए जागरुक किया जा सके। इसी बीच उनके शौहर शाह मोहम्मद ज़ुबैर की तबियत बिगड़ने लगी, उन्हें जेल में ज़हर दिया गया था, और 12 सितम्बर 1930 को मात्र 46 साल की उम्र में उनका इंतक़ाल हो गया। ये सिद्दीक़ा ख़ातून के लिए बहुत बड़ा सदमा था और वो इसे बर्दाश्त न कर सकीं और कुछ ही साल के अंदर उनका भी इंतक़ाल हो गया।
इधर पिछले कई माह से बिहार के अरवल नगर परिषद अध्यक्ष पद के लिए शाह इमरान अहमद साहब अपनी दावेदारी पेश कर रहे थे, पर परिसीमन के बाद ये पद महिला उम्मीदवार के लिए रिज़र्व कर दिया गया है, जिसके बाद अब उनकी पत्नी रोज़ी नाज़ मैदान में हैं। और अब ये अरवल की जनता पर है की वो इन्हें कामयाब बनाएँ। और एक नया इतिहास रचें।
बाक़ी इस परिवार का अरवल के विकास में क्या योगदान है उसको कुछ इस तरह समझें के अरवल हाल तक गया ज़िला का हिस्सा था, फिर जहानाबाद का हिस्सा बना और फिर ख़ुद ज़िला। ज़िला कार्यालय से दूर एक छोटा सा क़स्बा होने की वजह कर यहाँ कभी विकास पहुँचा ही नही। उपर से अंग्रेज़ों के निशाने पर हमेशा रहा। क्यूँकि 1857 में यहाँ के लोगों ने अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ बड़ा विद्रोह किया था। यहीं शाह मुहम्मद ज़ुबैर, शाह मुहम्मद उमैर और शाह मुहम्मद ज़ोहैर पैदा हुए। बड़े भाई शाह ज़ुबैर का क़िस्सा आपको उपर बताया भी, 1925 में वो स्वराज पार्टी की तरफ़ असेम्बली के मेम्बर भी बने।
उनसे शाह मुहम्मद उमैर जो आज़ादी की ख़ातिर कई साल जेल में रहे, आज़ादी के बाद राजसभा के सदस्य और फिर विधानपरिषद के मेम्बर भी रहे, लेकिन उनका जो सबसे बड़ा कारनामा है वो है जनवरी 1934 में बिहार में आए भयानक भूकम्प जिसमें हज़ारों लोगों की मौत हुई। उसमें भूकम्प प्रभावित लोगों भरपूर मदद करना है। पर आपने जो काम आपने अबाई वतन अरवल में की उसकी सराहना तो उस समय के गवर्नर सर एडवर्ड गेट से लेकर यूरोप और अमरीका तक के विद्वानो ने की।
बाढ़ से विस्थापित हुवे लोगों के लिए नया शहर बसाने वाले शाह मोहम्मद उमैर
हुआ कुछ यूँ के 1934 में आया था भूकम्प, उससे जो नुक़सान होना था; सो हुआ ही पर असल दिक़्क़त ये हो गया के सोन नदी ने अपना रुख़ बदल लिया; जिससे पूरा जिससे सोन नदी के किनारे बसा अरवल बाढ़ की चपेट में आ गया। अधिकतर घर बह गए, हज़ारों लोग विस्थापित हुवे। उसके बाद शाह मुहम्मद उमैर ने अपने निजी ज़मीन पर नहर के उस पार विस्थापित लोगों को बसाया, वही इलाक़ा उमैराबाद, ताड़ीपर और न्यू अरवल कहलाया। शाह वजीहउद्दीन मिनहाजी ने अपनी डायरी ‘मेरी तमन्ना में’ लिखते हैं :- इस जगह का उद्घाटन करने बिहार के पहले मुख्यमंत्री श्री कृष्ण सिंह ख़ुद अरवल आए थे। उनके ही सलाह पर वहाँ के मार्केट का नाम ज़ुबैर मार्केट रखा गया; जो ज़माने तक हाट के रूप में कार्य करता रहा। वो आगे लिखते हैं की उनके कहने पर ही सड़क किनारे के एक इलाक़े का नाम शाह मुहम्मद उमैर साहब के नाम पर उमैराबाद रखा गया।
ज्ञात हो के आज अरवल एक ज़िला है, पर पहले अरवल एक छोटा सा क़स्बा हुआ करता था, सोन नदी और नहर के बीच में। सिपाह से बैदराबाद तक। बिल्कुल ही छोटी सी आबादी हुआ करती थी। लोग पटना जाने के लिए नहर का उपयोग किया करते थे, नहर से खगौल उतर कर पटना पहुँचते थे। धीरे धीरे अरवल बड़ा हुआ, और उसके बड़े होने और फैलने के पीछे भी 1934 के भूकम्प और बाढ़ की दुःखदाई कहानी है।
इनके छोटे भाई हैं शाह मुहम्मद ज़ोहैर, कॉम्युनिस्ट पार्टी के बड़े लीडर थे, दो बार अरवल से विधायक चुने गए। लेकिन इनका जो सबसे बड़ा कारनामा है वो है सियासत से हट कर शिक्षा के फ़ील्ड में। उन्होंने अरवल जैसे बिल्कुल ही छोटे से क़स्बे में प्राइमरी से लेकर हाई स्कूल खोला। चाहे उमैराबाद हाई स्कूल हो या, अरवल गर्ल्स हाई स्कूल। इसके इलावा मुहल्ले के अंदर पर्दानशीन उर्दू स्कूल की भी उन्ही की सोंच का नतीजा है।