शाह मुहम्मद उस्मानी का जन्म 1915 में बिहार के गया ज़िला के सिमला में जिस समय हुआ, वो ख़िलाफ़त तहरीक का शुरुआती दौर था। जब कुछ बड़े हुवे तो घर पर तहरीक से जुड़ी बाते सुनी। सात बरस के हुवे तो आँखों के सामने तहरीक का उरूज देखा। घर के लोगों को उसमें हिस्सा लेते देखा।
वालिद का नाम शाह ग़ुलाम शरफ़ुद्दीन था, जिनकी गया शहर में कपड़े की दुकान थी। एक दिन वालिद के साथ शाह मुहम्मद उस्मानी दुकान पर बैठे थे, एका एक हंगामा हुआ के क़ाज़ी अहमद हुसैन गिरफ़्तार हो गए, और सारी दुकाने बंद होने लगी। क़ाज़ी अहमद हुसैन रिश्ते में शाह मुहम्मद उस्मानी के फुफेरे भाई थे।
शाह मुहम्मद उस्मानी ने घर आ कर अपनी वालिदा को बताया के अहमद भाई गिरफ़्तार हो गए हैं। वालिदा ने जवाब दिया “हाँ वो अंग्रेज़ों से लड़ रहे हैं, तुम भी बड़े होकर अंग्रेज़ों से लड़ोगे”। ये शाह मुहम्मद उस्मानी की शुरुआत थी।
1922 में कांग्रेस का सालाना इजलास गया में हुआ, शाह मुहम्मद उस्मानी भी उसमें गए, उसी दौरान डॉक्टर मुख़्तार अंसारी भी उनके घर आए। शाह मुहम्मद उस्मानी की शुरुआती तालीम घर पर हुई, फिर मौलाना अबुल मुहासिन मुहम्मद सज्जाद के गया में खोले गए मदरसा अनवारूल उलूम में दाख़िला लिया। अरबी और दीनी तालीम हासिल की।
फिर दिल्ली के जामिया मिल्लिया इस्लामिया में भी तालीम हासिल की। लेकिन बीमार होने की वजह कर वापस गया आ गए, और हादी हाशमी स्कूल में दाख़िला हुआ। फिर आगे पढ़ाई के लिए 1934 में कलकत्त गए, वहाँ के आलिया मदरसा में दाख़िला लिया, और वहीं से मैट्रिक भी की; क्यूँकि मदरसा के एक हिस्से में स्कूल भी चलता था।
उसके बाद प्रेसीडेंसी कॉलेज में दाख़िला लिया, लेकिन फिर बंगला भाषी कॉलेज में पढ़ाई करने लगे और आपने आईएससी की। पढ़ाई के दौर से ही शाह मुहम्मद उस्मानी भारत की जंग आज़ादी में हिस्सा लेना शुरू कर दिया था, गया में उन्होंने जामिया उत तालबा की बुनियाद डाल कर को नौजवानों को गोलबंद करने लगे थे। जब कलकत्ता गए तो वहाँ मुस्लिम यूथ असेंबली बना कर नौजवानों को गोलबंद किया, वहीं मौलाना आज़ाद की सलाह पर “ख़ुद्दाम ए ख़लक़” बनाया और ग़रीब लोगों के इलाक़े में जाते और उनकी मदद करते।
कलकत्ता ज़िला जमियत उलमा हिंद के सचिव की हैसयत से आपने काम को अंजाम दिया और 1936 में मुस्लिम मास कांटैक्ट कमेटी की शाह मुहम्मद उस्मानी ने क़यादत कर मुसलमानो को कांग्रेस की तरफ़ जोड़ने की कोशिश की। वो कांग्रेसी नेताओं के साथ लगातार आज़ादी की जद्दोजहद में लगे रहे। साथ ही मुफ़्ती अतीक़ उर रहमान के साथ मिल कर कलकत्ता में बड़े पैमाने पर फ़लस्तीन कॉन्फ़्रेन्स भी की।
पढ़ाई के दौरान ही शाह मुहम्मद उस्मानी मुद्दों पर लिखने लगे थे। ज़ुबान पर अच्छी पकड़ थी। आपके मज़ामीन अख़बारों में छपने लगे। पर शाह मुहम्मद उस्मानी ने एक पत्रकार की हैसियत से 1934 से अपने काम को अंजाम देना शुरू किया।
आपने रोज़नामा इस्तक़लाल नाम से एक अख़बार कलकत्ता से निकाला, आप उसके एडिटर थे। कई साल कलकत्ता में रहने के बाद आप बिहार आ गए, फिर कुछ दिन भोपाल में रहे, जमियत उलमा का काम भी देखते रहे और आपके लेख दिल्ली से शाए होने वाले अंसारी और बिजनौर के मदीना शाय होते रहे।
जब सन 46 के इलेक्शन का ज़माना आया तो मौलाना हिफ़जुररहमान के कहने बिहार नेशनल मुस्लिम पार्लमेंट्री बोर्ड सम्भालने बिहार आ गए। इलेक्शन में अपने काम को अंजाम दिया। रोज़नामा इस्तक़लाल के बाद आप पटना से निकलने वाले अल-हेलाल में लिखने लगे, आप उसके एडिटर बने। आप ने भारत के बँटवारे का भरपूर मुख़ालिफ़त किया।
नवम्बर 1946 में बिहार में बहुत ख़तरनाक मुस्लिम विरोधी फ़साद हुआ, कई हज़ार लोग मारे और और लाखों बेघर हुवे। आपने पूरे इलाक़े का दौरा कर लोगों को भरपूर इमदाद पहुँचाने की कोशिश की। आज़ादी के बाद आप पटना ज़िला जमियत उल्मा के सचिव बनाए गए।
आप रिलीफ़ कमेटी के मेम्बर थे। दंगो में बर्बाद हो रहे मुसलमानो की जायदाद की कस्टोडीयन ज़ब्त हो रही थीं, उसे बचाने में जिस तरह से हो सका, लोगों की भरपूर मदद की। बहुत दबाव बढ़ गया, बीमार रहने लगे। डॉक्टर के सलाह पर जमियत उल्मा से इस्तीफ़ा देकर अपने वतन सिमला चले गए और खेती करने लगे।
क़ाज़ी अहमद हुसैन, मौलाना अब्दुस समद रहमानी के इसरार पर इमारत ए शरिया आ गए। शाह मुहम्मद उस्मानी को इमारत ए शरिया पटना के नायब-नाज़िम बने और इसके साथ आपने इमारत ए शरिया से निकलने वाले पंद्रहरोज़ा अख़बार नक़ीब के एडिटर का ओहदा भी लम्बे वक़्त सम्भाला। फिर इमारत ए शरिया से अलग हो गए।
शाह मुहम्मद उस्मानी ने पटना से निकलने वाले संगम अख़बार में भी काम किया। इसके इलावा और भी कई अख़बार में आपके मज़ामीन छपते थे, जिसमें दिल्ली से शाए होने वाले अल-जमिया और अंसारी और कलकत्ता का आज़ाद हिंद, बिजनौर का मदीना क़ाबिल ए ज़िक्र है। इसके बाद कलकत्ता चले गए। वहाँ भी किसी अख़बार में काम किया। 1968 में शाह मुहम्मद उस्मानी हेजाज़ के सफ़र पर निकल गए। काफ़ी लम्बे वक़्त तक उधर ही रहे। उन्होंने क़रीब 16 बार हज किया।
जंग ए आज़ादी में शाह मुहम्मद उस्मानी को जिन लोगों के साथ काम करने का मौक़ा मिला उसमें मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, मौलाना अबुल महासिन मुहम्मद सज्जाद, मौलाना ओबैदुल्लाह सिंघी, क़ाज़ी अहमद हुसैन, अब्दुल क़ैयुम अंसारी, सुभाष चंद्रा बोस, बिनोवा भावे, बैरिस्टर यूनुस, ज़ाकिर हुसैन, मौलाना उस्मान ग़नी का नाम क़ाबिल ए ज़िक्र है।
शाह मुहम्मद उस्मानी ने इसलाह के नियत से बहुत कुछ लिखा जिसमें उनके एक मज़मून “रहनुमा बनने का ज़ौक़” का एक हिस्सा पेश कर रहा हूँ, जो आज के दौर में बहुत रेलिवेंट है। :-
“आज लीडर बनने का शौक़ आम हो गया है, जिसने खड़े होकर लेक्चर दे दिया, जिसने दो सतरें लिख दीं, बस वोह पर तौलने लगा। न फ़िक्र में सेहत, न अमल में अख़लास, न जद्दोजहद में इस्तक़ामत, न दूसरों के अक़्ल व तजुर्बा से फ़ायदा उठाना, न अपने पास अक़्ल व तजुर्बा की पूँजी, सिवाए ख़ुशामद, झूठ और लड़ाई के कुछ नही जानते; लेकिन लीडर बनने और ख़ुद को लीडर कहलाने का शौक़ है।”