सैयद भाई का असल नाम सैयद हसन था, जिनका जन्म 30 सितंबर 1924 बिहार के जहानाबाद के काको में हुआ था।
जब वह 10 साल के थे तो उनके घर वालों ने उनका दाख़िला दिल्ली के जामिया मिलिया इस्लामिया में करवाया।
प्रारंभिक शिक्षा के दौरान ही हसन को महात्मा गांधी से मिलने का मौक़ा मिला। उनकी शिक्षा डॉक्टर ज़ाकिर हुसैन की निगरानी में हुई।
जामिया से पढ़ाई मुकम्मल कर वहीं एक शिक्षक के रूप में अपना करियर शुरू किया।
1955 में वो लिंकन यूनिवर्सिटी से मिली फ़ेलोशिप पर अमेरिका चले गए।
फिर वेस्ट इलिनोइस यूनिवर्सिटी गए और 1962 में वहाँ से पीएचडी कर डॉक्टर सैयद हसन बने।
साथ ही वह पी डेल्टा कप्पा और कप्पा डेल्टा पाई जैसी संस्था के सदस्य भी रहे।
1962 में ही उन्होंने फ्रोस्टबर्ग स्टेट यूनिवर्सिटी असिस्टेंट प्रफ़ेसर का पद सँभाला।
पर उनकी तरबियत डॉक्टर ज़ाकिर हुसैन ने की थी, जिनके पास वतन से दूर रह कई बड़े काम अंजाम देने के मौक़े थे, पर उन्होंने जर्मनी से पढ़ाई मुकम्मल करने के बाद बंद होने की कागार पर पहुँच चुके जामिया मिलिया इस्लामिया को सम्भालने भारत आ गए, वैसे सैयद हसन भी अमेरिका में रहते हुवे कई भारतीय छात्रों की पढ़ाई में मदद करते रहे और 1965 वापस भारत आ गए।
उनके पास भारत में भी बहुत सारी नौकरी करने के मौक़े थे, पर उन्होंने जामिया के तर्ज़ पर पढ़ाई के फ़ील्ड में कुछ करने को सोचा और फ़ील्ड वर्क में लग गए।
आपने अपनी जन्मभूमि से दूर अपनी कर्मभूमि पूर्णिया के उस इलाक़े में बनाई जो सरकारी उपेक्षा की वजह कर हर मामले में पिछड़ा हुआ था।
प्रोफ़ेसर क़ासिम अहसन वारसी, शिक्षा के लिए जीवन वक़्फ़ कर देने वाला इंसान
उन्होंने फ़रवरी 1966 में एक संस्था तलेमी मिशन कॉर्प बनाई और मार्च 1966 में एक शैक्षिक पत्रिका तलेमी बिराद्री के नाम से निकालना शुरू किया।
और लगभग दो साल के ग्राउंड वर्क करने के बाद उन्होंने 14 नवंबर 1966 को 36 छात्रों के साथ किशनगंज में एक प्रारंभिक स्तर के इंसान स्कूल की स्थापना, ज़मीन के एक छोटे से टुकड़े से शुरू हुआ स्कूल कई एकड़ में फैल गया, पर क्लास रूम वही फूँस की झोपड़ी में थी।
इस वजह कर लोग स्कूल को झोपड़ियों का शहर भी बोलने लगे।
ज़ाकिर हुसैन से प्रेरित होकर उन्होंने अपना पूरा जीवन इस संस्था के लिए वक़्फ़ कर दिया। उन्होंने बच्चों को मंत्र दिया।
इंसान बनेंगे – हम इंसान बनेंगे
जीने की तरकीब सीखेंगे।
इंसान बनेंगे – हम इंसान बनेंगे
सिर्फ़ तालीम ही नही, शिक्षा ही नही, बल्कि जीने का सलीक़ा भी बच्चों को सिखाया जाता था।
उनसे कई सामाजिक काम करवाए जाते थे।
उन्हें पूरी ट्रेनिंग दी जाती थी के जब वो स्कूल से पढ़ कर बाहर जाएँ, तो समाज में कुछ बदलाव ला सकें।
कई हज़ार बच्चे स्कूल से पढ़ कर निकले।
स्कूल में उन्होंने उस्ताद और शागिर्द में दूरी ख़त्म करने के लिए मर्द टीचर को भाई और महिला टीचर को बाजी कह कर बुलवाना शुरू किया, और बच्चे अपने सीनियर को भाईजान कहते थे।
यही वजह है की सैयद हसन भी सैयद भाई हो गए। 1970 से 1995 तक ये स्कूल अपने उरूज पर रहा, लोग बाहर से यहाँ पढ़ने आने लगे थे।
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तालीम और शिक्षा के फ़ील्ड में सैयद हसन के काम की वजह कर उन्हें भारत सरकार द्वारा 1991 में पद्मा श्री से नवाज़ा गया था।
उनके काम की गूंज दुनिया भर में थी, यही वजह है कि साल 2003 में, उन्हें नोबेल शांति पुरस्कार के लिए नोमिनेट किया गया था।
तालीम के लिए अपनी ज़िंदगी वक़्फ़ करने वाले सैयद हसन का इंतक़ाल 92 साल की उमर में 25 जनवरी 2016 को हुआ।